115 ऋषियों के नाम, जो कि हमारा गोत्र भी है

वाराणसी। चलन के अनुसार एक गोत्र मे हिन्दुओ की शादी वर्जित है।
गोत्र ज्ञान…
1. अत्रि गोत्र,
2. भृगुगोत्र,
3. आंगिरस गोत्र,
4. मुद्गल गोत्र,
5. पातंजलि गोत्र,
6. कौशिक गोत्र,
7. मरीच गोत्र,
8. च्यवन गोत्र,
9. पुलह गोत्र,
10. आष्टिषेण गोत्र,
11. उत्पत्ति शाखा,
12. गौतम गोत्र,
13. वशिष्ठ और संतान
(क) पर वशिष्ठ गोत्र,
(ख) पर वशिष्ठ गोत्र,
(ग) उत्तर वशिष्ठ गोत्र,
(घ) पूर्व वशिष्ठ गोत्र,
(ड) दिवा वशिष्ठ गोत्र!
14. वात्स्यायन गोत्र,
15. बुधायन गोत्र,
16. माध्यन्दिनी गोत्र,
17. अज गोत्र,
18. वामदेव गोत्र,
19. शांकृत्य गोत्र,
20. आप्लवान गोत्र,
21. सौकालीन गोत्र,
22. सोपायन गोत्र,
23. गर्ग गोत्र,
24. सोपर्णि गोत्र,
25. शाखा,
26. मैत्रेय गोत्र,
27. पराशर गोत्र,
28. अंगिरा गोत्र,
29. क्रतु गोत्र,
30. अधमर्षण गोत्र,
31. बुधायन गोत्र,
32. आष्टायन कौशिक गोत्र,
33. अग्निवेष भारद्वाज गोत्र,
34. कौण्डिन्य गोत्र,
35. मित्रवरुण गोत्र,
36. कपिल गोत्र,
37. शक्ति गोत्र,
38. पौलस्त्य गोत्र,
39. दक्ष गोत्र,
40. सांख्यायन कौशिक गोत्र,
41. जमदग्नि गोत्र,
42. कृष्णात्रेय गोत्र,
43. भार्गव गोत्र,
44. हारीत गोत्र,
45. धनञ्जय गोत्र,
46. पाराशर गोत्र,
47. आत्रेय गोत्र,
48. पुलस्त्य गोत्र,
49. भारद्वाज गोत्र,
50. कुत्स गोत्र,
51. शांडिल्य गोत्र,
52. भरद्वाज गोत्र,
53. कौत्स गोत्र,
54. कर्दम गोत्र,
55. पाणिनि गोत्र,
56. वत्स गोत्र,
57. विश्वामित्र गोत्र,
58. अगस्त्य गोत्र,
59. कुश गोत्र,
60. जमदग्नि कौशिक गोत्र,
61. कुशिक गोत्र,
62. देवराज गोत्र,
63. धृत कौशिक गोत्र,
64. किंडव गोत्र,
65. कर्ण गोत्र,
66. जातुकर्ण गोत्र,
67. काश्यप गोत्र,
68. गोभिल गोत्र,
69. कश्यप गोत्र,
70. सुनक गोत्र,
71. शाखाएं गोत्र,
72. कल्पिष गोत्र,
73. मनु गोत्र,
74. माण्डब्य गोत्र,
75. अम्बरीष गोत्र,
76. उपलभ्य गोत्र,
77. व्याघ्रपाद गोत्र,
78. जावाल गोत्र,
79. धौम्य गोत्र,
80. यागवल्क्य गोत्र,
81. और्व गोत्र,
82. दृढ़ गोत्र,
83. उद्वाह गोत्र,
84. रोहित गोत्र,
85. सुपर्ण गोत्र,
86. गालिब गोत्र,
87. वशिष्ठ गोत्र,
88. मार्कण्डेय गोत्र,
89. अनावृक गोत्र,
90. आपस्तम्ब गोत्र,
91. उत्पत्ति शाखा गोत्र,
92. यास्क गोत्र,
93. वीतहब्य गोत्र,
94. वासुकि गोत्र,
95. दालभ्य गोत्र,
96. आयास्य गोत्र,
97. लौंगाक्षि गोत्र,
98. चित्र गोत्र,
99. विष्णु गोत्र,
100. शौनक गोत्र,
101. पंचशाखा गोत्र,
102. सावर्णि गोत्र,
103. कात्यायन गोत्र,
104. कंचन गोत्र,
105. अलम्पायन गोत्र,
106. अव्यय गोत्र,
107. विल्च गोत्र,
108. शांकल्य गोत्र,
109. उद्दालक गोत्र,
110. जैमिनी गोत्र,
111. उपमन्यु गोत्र,
112. उतथ्य गोत्र,
113. आसुरि गोत्र,
114. अनूप गोत्र,
115. आश्वलायन गोत्र।

कुल संख्या 108 ही है,लेकिन इनकी छोटी-छोटी 7 शाखा और हुई है।इस प्रकार कुल मिलाकर इनकी पुरी संख्या 115 है। आप सभी अपने अपने बच्चों को अपना गोत्र जरूर बताएं।
गोत्र : यह शब्द बड़ा ही रोचक इतिहास समेटे हुए है।
गोत्र का अर्थ है- गोशाला (cowshed)
त्र प्रत्यय (अन्त्यलग्न/suffix) का प्रधान अर्थ है- रक्षक।
अत: गोत्र का अर्थ हुआ- गोरक्षक
जिसका तद्भव है- गोरखा।

गो के तीन अभिप्राय हैं : 
1. गाय की कोई विशेष प्रजाति (नस्ल/breed)।
2. गेहूँ (गोधूम) की कोई विशेष प्रजाति। (गोमेध = गोवत्स-बधियाकरण व गेहूँ की खेती)
3. वेद की कोई विशेष शाखा।

भारत में पिता-पुत्र-क्रम (male lineage) को गोत्र संज्ञा प्रदान की गई थी और प्रत्येक पिता-पुत्र-क्रम गो के उपर्युक्त तीनों रूपों की रक्षा कर रहा था। अब ऐसा नहीं हो रहा है! इसी कारण गाय व गेहूँ की प्रजातियाँ नष्टप्राय हैं तथा वेद-वेदांगों का ज्ञान भी क्षीण हो गया है।

हिन्दू संस्कृति के मूलाधार
1. जाति
2. स्मृति
3. श्रुति

संस्कृति : कोई समूह अपने सदस्यों के लिए जो “प्राप्तव्य” मानता है, उनकी प्राप्ति हेतु जो “मूल्य” स्थापित करता है एवं जो “जीवन-पद्धति” निर्धारित करता है, उनकी समष्टि उस समूह की “संस्कृति” होती है।

प्राप्तव्य : इन्हें “पुरुषार्थ” भी कहते हैं।धर्म,अर्थ,काम,मोक्ष- ये चार पुरुषार्थ कहे गए हैं।
धर्म-समस्त कर्तव्यों की समष्टि “धर्म” है। इसका मूल है- “पारस्परिक समादर”।
महाभारतानुसार-
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम्।
आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्॥
अर्थ-आहार,निद्रा एवं सुरक्षा की समष्टि “अर्थ” है।

काम : दूसरे का साथ एवं मनोतुष्टि “काम” है।
मोक्ष : मानसिक दासता का अन्त एवं स्वयं से ही सन्तुष्टि “मोक्ष” है। इसका मूल है- वैयक्तिक स्वातन्त्र्य (individual freedom) अर्थात् कोई भी व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति अथवा समूह द्वारा साधन की भाँति उपयोग में नहीं लाया जा सकता। हिन्दू संस्कृति धर्म प्रधान है अर्थात् हिन्दू संस्कृति के अनुसार धर्म को साथ लिए बिना अर्थ, काम व मोक्ष में से किसी की भी प्राप्ति की चेष्टा आत्मघाती एवं विनाशकारी सिद्ध होती है।

जाति-किसी व्यक्ति की समस्त जीन-सम्पदा (genetic inheritance) उसकी “जाति” है। इसमें कुल, वंश, गोत्र आदि भी अन्तर्निहित हैं। इसकी रक्षा हेतु जातिधर्म, कुलधर्म आदि निर्धारित हैं।जिनमें इतिहास भी अन्तर्निहित होता है। जाति प्राचीन एवं मौलिक है, जबकि चातुर्वर्ण्य (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र) केवल नवीन आयोजन मात्र था, जो अब विलीन हो चुका है। प्रत्येक वर्ण में अनेक जातियाँ होती थीं। जो परस्पर विवाह से बचने का प्रयास करती थीं। भारत में बाहर से आने वाला कोई समूह किसी वर्ण में स्वीकृत होने पर अपना पृथक् अस्तित्व नहीं खोता था। इतना ही नहीं, एक जाति जिस वर्ण की सदस्य होती थी।

कालान्तर में उससे इतर वर्ण में भी स्थान पा सकती थी। यद्यपि अपवादस्वरूप वैयक्तिक रूपेण कतिपय व्यक्तियों को इतर जाति में ले लिया गया किन्तु ऐसे उदाहरण अतिन्यून एवं नगण्य हैं, साथ ही उनके नाम से पृथक् गोत्र भी चलाया गया। यथा- राजर्षि कौशिक के जाति-परिवर्तन से उनका ब्रह्मर्षि बन जाना। किसी जाति की सामाजिक उच्चता अथवा निम्नता पूर्णतया स्थायी नहीं है। स्वजाति को उठाने हेतु उद्योग करना चाहिए। हीन भावना अथवा सम्मान के लोभ से छलपूर्वक अन्य जाति में प्रविष्ट होने की कुचेष्टा स्वजातिद्रोह, स्वपूर्वजद्रोह एवं आत्मद्रोह है, विश्वासघात है।

स्मृति-वे गीत,अनुष्ठान,उत्सव,परम्परा आदि “स्मृति” हैं। जिन में निहित ज्ञान व इतिहास सुविज्ञात है। स्मृति-आधारित कर्तव्य “स्मार्त-धर्म” कहलाता है। स्मृति अरक्षित होने पर श्रुति बन जाती है अथवा नष्ट हो जाती है। श्रुति-वे गीत, अनुष्ठान, उत्सव, परम्परा आदि “श्रुति” हैं जिनमें निहित ज्ञान व इतिहास विस्मृत अथवा अस्पष्ट हो चुका हैॆ। श्रुति-आधारित कर्तव्य “श्रौत-धर्म” कहलाता है। श्रुति में श्रम करने वाले के लिए श्रुति समय-समय पर अपने रहस्यों को उद्घाटित करती रहती है। जाति, स्मृति व श्रुति की रक्षा हेतु निर्धारित धर्म (कर्तव्य-समष्टि) का पालन करने वाले “हिन्दू” हैं। इन तीनों की रक्षा वस्तुत: निज इतिहास एवं अस्तित्व की ही रक्षा है!!
धर्मो रक्षति रक्षित:!
यतो धर्मस्ततो जय:

पंडित मनोज कृष्ण शास्त्री

ज्योर्तिविद वास्तु दैवज्ञ
पंडित मनोज कृष्ण शास्त्री
मो. 9993874848

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