बंगाल में “किंगमेकर” की भूमिका में अल्पसंख्यक समुदाय

  • राज्य की 42 में से सात सीटों पर मुस्लिम वोटर ही निर्णायक हैं

Kolkata Hindi News, कोलकाता। पश्चिम बंगाल में चुनाव चाहे विधानसभा का हो या फिर लोकसभा का, अल्पसंख्यक वोटर हमेशा निर्णायक भूमिका निभाते रहे हैं। इस बार भी अपवाद नहीं है। वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक राज्य में अल्पसंख्यक आबादी 27 फीसदी थी जो अब बढ़ कर 30 फीसदी से ऊपर हो गई है। इस तबके का समर्थन चुनाव में जीत की गारंटी माना जाता है।

यह वोट बैंक कांग्रेस से लेफ्ट फ्रंट होते हुए अब तृणमूल कांग्रेस के पाले में है लेकिन पार्टी प्रमुख और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के सामने इस बार इसे एकजुट रखने की कड़ी चुनौती है। बीते लोकसभा चुनाव में इस वोट बैंक में सेंध लगने के कारण रायगंज और मालदा उत्तर सीट पर बीजेपी का कब्जा हो गया था। राज्य की 42 में से सात सीटों पर मुस्लिम वोटर ही निर्णायक हैं।

इस बार ममता बनर्जी शुरू से ही इस वोट बैंक को मजबूत करने की कवायद में जुटी हैं। वो अपनी तमाम चुनावी रैलियों में इस तबके के लोगों से बीजेपी, कांग्रेस या लेफ्ट को एक भी वोट नहीं देने की अपील करती रही हैं।

लेफ्ट को समर्थन का चला लंबा दौर

राज्य के मुस्लिम वोटर ऐतिहासिक रूप से हिंदू महासभा और जनसंघ के खिलाफ पहले कांग्रेस को समर्थन देते रहे हैं लेकिन साठ के दशक के आखिर और खासकर ज्योति बसु सरकार के सत्ता में रहने के दौरान यह तबका खुल कर लेफ्ट के समर्थन में आ गया।

वामपंथियों से इस तबके का मोहभंग शुरू हुआ वर्ष 2008 में आई सच्चर समिति की रिपोर्ट के बाद। उसमें राज्य में अल्पसंख्यक समुदाय की सामाजिक और आर्थिक बदहाली के अलावा सिंगूर और नंदीग्राम में जमीन अधिग्रहण विरोधी आंदोलनों का जिक्र किया गया था।

उस दौर में ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस अल्पसंख्यकों के मसीहा के तौर पर उभरी। इस तबके के व्यापक समर्थन के कारण ही तृणमूल कांग्रेस ने वर्ष 2011 में लेफ्ट को सत्ता से हटा दिया और सत्ता में आई।

पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले में सबसे अधिक करीब 67 फीसदी मुस्लिम आबादी है। उससे सटे मालदा जिले में यह आंकड़ा 51.27 फीसदी है। इनके अलावा कम से कम चार जिले ऐसे हैं, जहां इस तबके की आबादी 35 से 50 फीसदी के बीच है। इससे अल्पसंख्यक वोट बैंक की ताकत समझी जा सकती है।

अल्पसंख्यक आबादी वाले ज्यादातर जिले बांग्लादेश की सीमा से सटे हैं। बीजेपी सीमा पार से घुसपैठ के आरोप लगाते हुए ममता बनर्जी सरकार पर इनको संरक्षण देने के आरोप लगाती रही है। पार्टी ने चुनाव से ठीक पहले संशोधित नागरिकता कानून लागू कर दिया है। इसमें पड़ोसी देशों से आने वाले अल्पसंख्यकों को छोड़ कर तमाम तबके के लोगों को नागरिकता देने की बात कही गई है।

सीएए लागू होने का कितना असर

मुख्यमंत्री ममता बनर्जी इसे अपने राजनीतिक फायदे के लिए बनाने का प्रयास कर रही हैं। अपनी चुनावी रैलियों में वो कह रही हैं कि इस कानून के बाद ही नेशनल रजिस्टर आफ सिटीजंस (एनआरसी) आएगा और बीजेपी तमाम अल्पसंख्यकों को देश से बाहर खदेड़ देगी।

इस वोट बैंक में बिखराव रोकने के लिए ही उनकी पार्टी यहां इंडिया गठबंधन के सहयोगी दलों—कांग्रेस और सीपीएम के साथ सीटों पर तालमेल की बजाय अकेले ही तमाम सीटों पर लड़ रही है। इस वोट बैंक के भरोसे ही ममता ने मुर्शिदाबाद जिले के बहरमपुर सीट पर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और पांच बार के विजेता अधीर रंजन चौधरी के किलाफ हरफनमौला क्रिकेटर यूसुफ पठान को मैदान में उतारा है।

अपने इस वोट बैंक को अटूट रखने के लिए हाल के वर्षों में ममता अल्पसंख्यकों की सहायता के लिए दर्जनों योजनाएं शुरू कर चुकी हैं। इनमें अल्पसंख्यकों के मदरसों को सरकारी सहायता, इस तबके के छात्रों के लिए स्कॉलरशिप और मौलवियों को आर्थिक मदद भी शामिल है। इसी वजह से भाजपा समेत तमाम राजनीतिक दल उनके खिलाफ तुष्टिकरण की राजनीति के आरोप लगाते रहे हैं।

तृणमूल का साथ क्यों दे सकते हैं अल्पसंख्यक

ममता बनर्जी हर साल ईद और बकरीद के मौके पर कोलकाता के रेड रोड इलाके में नमाज पढ़ने के लिए जुटी भीड़ के समक्ष पहुंचती हैं। इस साल भी वो वहां पहुंची और लोगों से यह सुनिश्चित करने की अपील की कि अल्पसंख्यक वोटों में विभाजन नहीं हो लेकिन यह तबका आखिर ममता बनर्जी और उनकी पार्टी का समर्थन क्यों कर रहा है?

हर साल रेड रोड पर ईद की नमाज का नेतृत्व करने वाले काजी फजलुर रहमान कहते हैं, ज्यादातर सीटों पर तृणमूल कांग्रेस के अलावा कोई बेहतर विकल्प नहीं है। अकेले यही पार्टी बीजेपी की सांप्रदायिक नीतियों का मुकाबला कर सकती है।

वेस्ट बंगाल इमाम एसोसिएशन के मोहम्मद याह्या कहते हैं, “पिछली बार उत्तर दिनाजपुर और मालदा जिलों में अल्पसंख्यक वोट बैंक के विभाजन के कारण बीजेपी दो सीटें जीतने में कामयाब रही थी। इस बार हमारा मकसद इस विभाजन को रोकना है।”

आल बंगाल माइनॉरिटी यूथ फेडरेशन के महासचिव मोहम्मद कमरुज्जमां कहते हैं, “बंगाल में बीजेपी से मुकाबले के लिए तृणमूल कांग्रेस ही सबसे विश्वसनीय ताकत है।”

दूसरी ओर, तृणमूल कांग्रेस नेता और मंत्री चंद्रिमा भट्टाचार्य का दावा है कि उसकी सरकार के कार्यकाल के दौरान अल्पसंख्यक तबका सबसे सुरक्षित महसूस कर रहा है. यही उसके लगातार समर्थन की प्रमुख वजह है।

बीजेपी को है कोशिशों के रंग लाने की उम्मीद

उधर, विपक्षी पार्टियां ममता बनर्जी पर अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की राजनीति करने का आरोप लगाती हैं। बीजेपी के प्रवक्ता शमीक भट्टाचार्य कहते हैं, “टीएमसी सरकार विभाजन की नीति पर आगे बढ़ रही है। अल्पसंख्यक तबके उससे धीरे-धीरे मोहभंग हो रहा है।”

सीपीएम नेता सुजन चक्रवर्ती भी यही आरोप दोहराता हुए दावा करते हैं कि अब यह तबका लेफ्ट की ओर लौट रहा है। कांग्रेस नेता अधीर चौधरी का कहना है कि अब तृणमूल कांग्रेस सरकार की हकीकत सामने आ गई है। उसके राज में अल्पसंख्यकों का कोई विकास नहीं हुआ है।

यह बात इस तबके के पढ़े-लिखे लोगों की समझ में आ रहा है। अल्पसंख्यक वोट बैंक का समर्थन घटने की चिंता ने ही सत्तारूढ़ पार्टी के नेताओं की नींद हराम कर दी है।

नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन के प्रतीची ट्रस्ट के एक शोधकर्ता साबिर अहमद मानते हैं कि तृणमूल की ओर से शुरू की गई विभिन्न कल्याण योजनाओं ने इस तबके का समर्थन और मजबूत किया है। इससे तृणमूल के प्रति अल्पसंख्यकों का भरोसा बढ़ा है।

हालांकि एक अन्य विश्लेषक अब्दुल मतीन कहते हैं कि तृणमूल का समर्थन करने के अलावा अल्पसंख्यकों के सामने दूसरा कोई भरोसेमंद विकल्प नहीं है।

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