अशोक वर्मा “हमदर्द”, कोलकाता। भारत में जाति एक प्राचीन सामाजिक संरचना है, जिसका उल्लेख शास्त्रों में मिलता है। मनुस्मृति में यह कहा गया है कि “जन्मना जायते शूद्रः, कर्मणा द्विज उच्यते।” अर्थात, हर व्यक्ति जन्म से शूद्र होता है और अपने कर्मों के आधार पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र बनता है। मनुस्मृति का यह श्लोक स्पष्ट करता है कि व्यक्ति की सामाजिक स्थिति उसके जन्म से नहीं, बल्कि कर्म से तय होती है।
इसके विपरीत, भारतीय संविधान जाति को जन्म आधारित पहचान के रूप में संरक्षित करता है। संविधान के अंतर्गत आरक्षण व्यवस्था जातिगत आधार पर बनाई गई है, जिसमें अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग जैसी श्रेणियां दी गई है। यह जाति आधारित पहचान को स्थायित्व प्रदान करता है और इस पहचान के आधार पर लोगों को लाभ मिलता है। संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में जातिगत भेदभाव को समाप्त करने की बात कही गई है, लेकिन आरक्षण प्रणाली के माध्यम से जातिगत पहचान को भी बनाए रखा गया है।
यहां एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठता है- क्या भारतीय संविधान जातिगत भेदभाव को समाप्त कर रहा है या उसे और गहरा कर रहा है? मनुस्मृति का उद्देश्य सामाजिक सुधार और व्यक्ति को कर्म के आधार पर पहचान दिलाना था, जबकि संविधान की जातिगत संरचना ने जातियों को स्थायी बना दिया।
आरक्षण व्यवस्था का उद्देश्य सामाजिक और आर्थिक असमानता को दूर करना है। यह सही है कि पिछड़े वर्गों को मुख्यधारा में लाने के लिए यह एक आवश्यक कदम था, लेकिन इसके दुष्परिणाम यह हैं कि जातिगत पहचान और भेदभाव को संस्थागत रूप से स्थापित कर दिया गया। आरक्षण का लाभ अक्सर वही वर्ग लेता है, जो पहले से सशक्त हो चुका है, जबकि वास्तव में जरूरतमंद लोग पीछे रह जाते हैं।
मनुस्मृति और संविधान की तुलना करने पर यह स्पष्ट होता है कि मनुस्मृति कर्म प्रधान है, जबकि संविधान जन्म आधारित पहचान को बढ़ावा देता है। संविधान को जातिगत आरक्षण की बजाय आर्थिक स्थिति के आधार पर आरक्षण की दिशा में संशोधन करना चाहिए। इससे समाज में समानता आएगी और जातिगत पहचान का प्रभाव धीरे-धीरे समाप्त होगा।
इसलिए यह आवश्यक है कि हम जातिगत भेदभाव को समाप्त करने के लिए संविधान में बदलाव की मांग करें। यह बदलाव मनुस्मृति के उस सिद्धांत से प्रेरणा ले सकता है, जो कर्म और गुण को प्राथमिकता देता है। जब तक जातिगत पहचान संविधान द्वारा संरक्षित रहेगी, तब तक समाज में समानता का सपना अधूरा रहेगा। यह समय है कि हम अपने समाज को जातिगत बंधनों से मुक्त कर, कर्म प्रधान समाज की ओर बढ़ें।
भारत माता की जय।
(स्पष्टीकरण : इस आलेख में दिए गए विचार लेखक के हैं और इसे ज्यों का त्यों प्रस्तुत किया गया है।)
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