कोलकाता। प्रत्येक जाति में धर्म को सदा से सर्वोपरी स्थान मिलता चला आया है और आगे भी मिलता रहेगा।यह निर्विवाद सत्य है। किंतु एक सत्य यह भी है की अभी के समय में मनुष्य अपनें आप को जिस धर्म के साथ जोड़ कर चल रहा है सच में क्या वो धर्म है? धर्म शुभा शुभ रूप क्रिया की प्रवृति से ऊपर की चीज है और धर्म निवृति स्वरूप है जो राग-द्वेष से परे है। इसी धर्म के अनाकुलत्व लक्षण से आत्म सुख की प्राप्ति हो सकती है किंतु यहां राग-द्वेष से ऊपर उठकर कोई जीना नहीं चाहता। फलतः राग द्वेष कम न करनें के कारण धर्म कार्य में अपना बहुमूल्य समय लगाने वाले धर्म प्रिय लोगों का जीवन भी अशांति मय ही बना रहता है। वो इसलिये की वो अपनें जीवन में सही रूप से धर्म धारण नही किए होते है।
धर्म की क्रिया मन से जुड़ी होती है। मन यदि इंद्रियों पर पूरा शासन रखें और इंद्रियों को इधर उधर भटकनें ना दे तो हम यानी मनुष्य महान से महान कार्य कर सकते हैं, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। मन की चंचलता से व्यर्थ तथा बुरे संकल्प उत्पन्न होते है जो वास्तविक धर्म मार्ग में बाधा बनते है। मन की चंचलता के मुख्य कारण है – संशय, परदोष दर्शन, ईर्ष्या, अति भौतिक सुख की कामना, बीती बातों की चिंतन से दुःखी होना और भय। धर्म के परिपेक्ष में देखा जाय तो जिससे मनुष्य जीव वनस्पति व जीवनोंपयोगी वस्तुओं अथवा मनुष्य के द्वारा संचालित सत्कर्म करनें की क्रिया ही धर्म है। जिसे पुण्य कर्म के साथ जोड़ कर देखा जा सकता है।
जैसे बूंद बूंद से सरिता और सरोवर बनते है वैसे ही छोटे छोटे पुण्य महापुण्य का रूप लेते है। छोटे-छोटे सद्गु#ण समय पाकर मनुष्य में ऐसी महानता लाते है की व्यक्ति बंधन और मुक्ति के पार अपनें निज स्वरूप को निहार कर शिव स्वरूप हो जाता है। जिन उपायों से व्यक्ति का जीवन महानता की ओर चलता है वे उपाय संतों के शास्त्रों के वचन, श्रीमद्भागवत कथा सार का श्रवण होता है और ऐसे श्रोता (दास) प्रत्येक में प्रभु को देखने वाला हमेशा प्रभु के सानिध्य का अनुभव करता है। जिससे यह जग सुधरता है किंतु दुर्भाग्य यह है की यह केवल सनातन संस्कृति में ज्यादा देखने को मिलता है अन्य में कम। अतः प्रत्येक व्यक्ति को अपनें जीवन में श्रीमद् भगवद्गीता को स्थान देना चाहिए। जय श्री कृष्ण।