अशोक वर्मा “हमदर्द”, कोलकाता। भारत की पहचान उसकी सांस्कृतिक विविधता, समृद्ध परंपराओं और लघु एवं शिल्पकला जैसे क्षेत्रों में अपनी ऐतिहासिक उत्कृष्टता से है। लेकिन समय के साथ-साथ इन क्षेत्रों में जो गिरावट आई है, उसके पीछे वामपंथी विचारधारा की नीतियों और उनके प्रभाव की गहन पड़ताल करना जरूरी है। वामपंथी विचारधारा का आधार वर्ग संघर्ष और सरकारी नियंत्रण पर आधारित है। इसका असर भारत की लघु एवं शिल्पकला पर इस प्रकार पड़ा कि पूरी अर्थ व्यवस्था चरमरा गई। आर्थिक केंद्रीकरण और सरकारी नियंत्रण की बात की जाए तो वामपंथी नीतियों ने निजी उद्योगों और उद्यमशीलता पर अंकुश लगाया। पारंपरिक कारीगर और शिल्पकार, जो अपनी कला के माध्यम से आत्मनिर्भरता की ओर अग्रसर थे, सरकारी योजनाओं और नियंत्रण की चपेट में आ गए। सरकारी नियंत्रण ने उनकी स्वतंत्रता को बाधित किया और उनकी कला बाजार से कटती चली गई।
मशीनों और उद्योगों का वरीयता प्राप्त करना भी कही ना कही गलत था ।वामपंथी दृष्टिकोण ने बड़े उद्योगों और मशीनों को प्राथमिकता दी। पारंपरिक शिल्पकला, जो हाथों और सृजनात्मकता पर आधारित थी, उन मशीनों के आगे पिछड़ गई। इसके परिणामस्वरूप, लघु उद्योगों को वह प्रोत्साहन नहीं मिला जिसकी उन्हें आवश्यकता थी। वैश्वीकरण और गलत व्यापार नीतियां इन उद्योगों के विस्तार में मुख्य बाधक साबित हुई है।
वामपंथी सरकारों ने वैश्वीकरण का विरोध करते हुए भी ऐसी नीतियां बनाई जो भारत के शिल्प और लघु उद्योग को वैश्विक प्रतिस्पर्धा में कमजोर बनाती गईं। चीनी सामानों के आयात को बढ़ावा मिला, जिससे भारत के हस्तशिल्प और परंपरागत कला के कारीगर अपनी पहचान खोने लगे। रोजगार पर संकट पारंपरिक शिल्प उद्योग न केवल कला का पोषण करते थे, बल्कि लाखों लोगों के लिए रोजगार का साधन भी थे। लेकिन वामपंथी नीतियों की वजह से यह क्षेत्र हाशिए पर चला गया। इससे गांवों और कस्बों में बेरोजगारी बढ़ी और ग्रामीण आबादी पलायन करने को मजबूर हो गई।
सांस्कृतिक पहचान पर संकट बात की जाए तो भारत की शिल्पकला केवल आर्थिक गतिविधि नहीं है; यह हमारी सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा है। वामपंथी विचारधारा, जो पारंपरिक और सांस्कृतिक मूल्यों को “पिछड़ा” मानती है, ने इस धरोहर को कम आंकते हुए इसे संरक्षण देने के बजाय इसे प्रगति की राह में बाधा के रूप में देखा। वामपंथी दृष्टिकोण के विरोधाभास की बात की जाए तो, यह विडंबना है कि वामपंथी विचारधारा मजदूर और किसानों के अधिकारों की बात करती है, लेकिन उनकी नीतियां उन कारीगरों और शिल्पकारों के लिए विनाशकारी साबित हुई जो सबसे अधिक संरक्षण और समर्थन के पात्र थे।
समाधान और पुनर्निर्माण की बात करें तो भारत को अपनी लघु एवं शिल्पकला को पुनर्जीवित करना होगा। कारीगरों के लिए स्वतंत्र बाजार की आवश्यकता होगी जो पारंपरिक कारीगरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त कर उनके लिए स्वतंत्र बाजार का निर्माण कर सकें। स्थानीय उत्पादों को बढ़ावा देने के लिए ‘वोकल फॉर लोकल’ जैसे अभियानों को व्यापक रूप से अपनाया जाए। आधुनिक तकनीक का समावेश भी इस पारंपरिक शिल्प को आधुनिक तकनीक से जोड़कर इसे अधिक प्रतिस्पर्धी बना सकता है।
वैश्विक स्तर के प्रचार प्रसार पर अगर नजर डाला जाए तो भारतीय शिल्पकला को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर बढ़ावा दिया जाना चाहिए। भारत की लघु एवं शिल्पकला को पुनर्जीवित करने के लिए वामपंथी नीतियों की आलोचना के साथ-साथ आत्मावलोकन की आवश्यकता है। वामपंथ ने भारतीय शिल्प और लघु उद्योगों के पतन में भूमिका निभाई है, लेकिन हमें इसे पुनर्जीवित करने के लिए सामूहिक प्रयास करना होगा। यह केवल आर्थिक उत्थान का विषय नहीं है, बल्कि यह हमारी सांस्कृतिक पहचान की पुनर्स्थापना का सवाल भी है।
(स्पष्टीकरण : इस आलेख में दिए गए विचार लेखक के हैं और इसे ज्यों का त्यों प्रस्तुत किया गया है।)
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