‘हरि हरि बलिया काया, लिखिल राम पँचाली माया’
कोलकाता। बंगला भाषा के आदि कवि कृत्तिबास ओझा की जन्मस्थली, फुलिया, नदिया, पश्चिम बंगाल है। छंद, व्याकरण, ज्योतिष, धर्म और नीतिशास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान तथा रामनाम में गहरी आस्था व विश्वास रखने वाले बंगला भाषा के प्रथम महाकवि के रूप में स्वीकृत ‘कृत्तिबास ओझा’ का नाम बंगाल की शस्य-श्यामला सांस्कृतिक धरा पर ध्रुवतारा सदृश अटल प्रतिष्ठित है। महाकवि कृत्तिबास ने आदिकवि महर्षि बाल्मीकि द्वारा संस्कृत में रचित “रामायण” का बंगला में अत्यंत ही सरल अनुवाद और उसमें कुछ अपनी नवीन उद्भावना को समाहित कर बंगला भाषा में प्रथम “रामायण” नामक महाकाव्य की रचना की, जिसे कृतिकार के सम्मान में “कृत्तिबासी रामायण” कहा जाता है। चुकी यह महाकाव्य नृत्य-संगीत की ‘पँचाली’ रीति पर रचित है। अतः इसे “श्रीराम पँचाली” भी कहा जाता है। यह संस्कृत के अलावा किसी भी उत्तर भारतीय भाषा में रचित रामायण का सबसे पहला अनुवादित महाकाव्य है। इसमें महाकवि ने श्रीराम कथा के साथ ही साथ मध्य युगीन बंगाल के समाज और संस्कृति के विभिन्न पहलुओं को भी चित्रित किया है।
आज विस्तृत बंग-भाषा क्षेत्र पश्चिम में राजमहल तथा पुरुलिया की पहाड़ियों से लेकर पूर्व में वर्तमान बांग्लादेश के चट्टगाँव तक और उत्तर में कामख्या-कामरूप से लेकर दक्षिण में लहराते बंगोपसागर की चंचल अविरल लहरों की छोर तक की शस्य-श्यामला भूमि के अबाल-वृद्ध के हृदय में जो श्रीराम-भक्ति की अबाधित भागीरथी धारा प्रवाहित हुई है और हो रही है, वह महाकवि कृत्तिबास द्वारा रचित “रामायण” अर्थात “कृत्तिबास रामायण” या “श्रीराम पँचाली” की ही अक्षय ऋणी है। यह पावन महाग्रंथ बंगाल और उसके आसपास के क्षेत्रों में वैष्णव-भक्ति के विकास कार्य को समयानुसार विशेष गति प्रदान करता रहा है। परवर्तित विविध भाषीय भारतीय साहित्य भी इसके प्रभाव से अछूता नहीं रह पाए हैं।
हिन्दी के शशि सदृश श्रीराम भक्तकवि गोस्वामी तुलसीदास के पावन ‘श्रीरामचारितमानस’ महाकाव्य की रचना “कृतिबासी रामायण” अर्थात “श्रीराम पँचाली” के लगभग सौ वर्षों के बाद ही हुई है। अपनी अद्भुत सरलीकरण के कारण ही आज यह महाकाव्य बंगाल और बंगला भाषी हिन्दू सनातनी के घर-आँगन की संस्कृति का विशेष अभिन्न अंग बना हुआ है। बंगाली अमीर के महलों से लेकर गरीब की झोपड़ियों तक में ‘कृत्तिबासी रामायण’ अर्थात ‘श्रीराम पँचाली’ में वर्णित श्रीराम परिवार की मंत्रमुग्ध कथा, भक्ति भाव से नित्य ही प्रभात की नई किरणों और पक्षियों के प्रभाती कलरव के साथ गूँजती रहती है।
‘श्रीराम भरत आर शत्रुघ्न लखन। एक अंशे चारि अंश हैला नारायण॥
लक्ष्मीमूर्ति सीतादेवी बसेछेन बामे। स्वर्णछत्र धरेछैन लखन श्रीरामे॥
चामर ढुलान ताँरे भरत शत्रुघ्न। जोड़हाथे स्तव करे पवन-नंदन॥’
अर्थात, ‘श्रीराम, भरत, शत्रुघ्न और लक्ष्मण इन चारों भाइयों के मूल अंश में श्रीनारायण विराजमान हैं। सीताजी के स्वरूप में श्रीलक्ष्मी देवी श्रीराम जी के बाम में बैठी हैं। जबकि श्रीराम जी के ऊपर स्वर्ण-छत्रप को लक्ष्मण जी संभारे हुए हैं। उनके प्यारे अनुज शत्रुघ्न उनपर निरंतर चँवर झुलाते हैं और हाथ जोड़े सबकी स्तुति करते हैं पवन-पुत्र हनुमान जी हैं।’ बहुत ही अद्भुत और मनोहारी श्रीराम परिवार के चित्र को चित्रित किया है, महाकवि कृतिबास ओझा ने।
महाकवि कृत्तिबास ओझा का जन्म माघमास, रविवार, श्रीपंचमी के दिन, अंग्रेजी में संभवतः 3 जनवरी, 1440 ईस्वी को हुआ माना जाता है। (हालांकि जन्मवर्ष विवादित है) इनका जन्म वर्तमान पश्चिम बंगाल के नदिया जिला के ‘फुलिया’ नामक ग्राम के परम विद्वान पंडित बनमाली ओझा और विदुषी मालिनी देवी के सुशिक्षित व आध्यात्मिक आँगन में हुआ था। वे अपने छः भाइयों और एक सौतेली बहन में सबसे बड़े और कुशाग्र-मेधावी थे। इनके पूर्वज, नरसिम्हा ओझा, पूर्वी बंगाल (वर्तमान बांग्लादेश) के बेदनुज राजा के मामा थे। वे ‘मुखुति’ (मुखर्जी या मुखोपाध्याय) वंश से संबंधित थे। ‘ओझा’ इस परिवार के लिए राजा द्वारा प्रदत्त विशेष उपाधि थी।
वहाँ पर भीषण अकाल पड़ने और राजनीतिक अशान्ति फैलने के कारण नरसिम्हा ओझा सपरिवार वर्तमान पश्चिम बंगाल के नदिया जिला के ‘फुलिया’ नामक गाँव में आकर बस गए थे। इस गाँव के पश्चिम और दक्षिण में पवित्र गंगा (हुगली) नदी प्रवाहित होती है। संभवतः उस समय इस गाँव के मूल निवासी ज्यादातर फूलों की खेती किया करते थे, शायद इसीलिए इस गाँव का नाम ही ‘फुलिया’ पड़ा गया है। नरसिम्हा ओझा के पुत्र गर्वेश्वर ओझा हुए और गर्वेश्वर ओझा के पुत्र पंडित मुरारी ओझा हुए। फिर मुरारी ओझा के पुत्र बनमाली ओझा और उनके पुत्र हम सभी के परम श्रद्धेय महाकवि कृत्तिबास ओझा हुए थे। महाकवि ने स्वयं अपने और अपने परिजन के संदर्भ में एक स्थान पर लिखा है –
‘आदित्यावार श्रीपंचमी पूर्ण माघमास। तिथि मोधे जन्म लइलाम कृत्तिबास।।
मालिनी नामेते माता बाबा बनमाली। छः भाई ऊपजिल संसारे गुणशाली।।
कृत्तिबास पंडित मुरारी ओझार नाती। जार कंठे सदा केलि करेन भारती॥
चंदन भूषित आमी लोक अनिंदित। जबे बोले धन्य धन्य फुलिया पंडित॥’
कृत्तिबास की प्रारम्भिक शिक्षा विविध शस्त्रों के परम ज्ञात अपने पिता बनमाली ओझा और पितामह मुरारी ओझा की विद्वत छत्रछाया में प्रारंभ हुई थी। बारह वर्ष की अवस्था में कृत्तिबास को उच्च शिक्षा की प्राप्ति हेतु गंगा (पद्मा) नदी को पार कर उत्तर बंगाल के तत्कालीन गौड़ के सुविख्यात पंडित रायमुकुट आचार्य चुडामणि वृहस्पति मिश्र के गुरु-गृह में भेजा गया। फिर वे उत्तर बंग के ही परम विद्वान आचार्य दिवाकर की सानिध्यता में परवर्तित विशेष विद्यार्जन किए। अपनी शिक्षण पूर्ण कर कृत्तिबास एक राज-विद्वान बनने की चाहत में गौड़ के महाराजा गौड़ेश्वर के दरबार में उपस्थित हुए। गौड़ेश्वर महाराज का नाम भी विवादित है। इस संदर्भ में हिंदू राजा गणेश (कंस), ताहिरपुर के राजा कंसनारायण और राजा दनुजमर्दन का भी नाम लिया जाता है। इसके अतिरिक्त किसी ने सुल्तान रूनुद्दीन का भी नाम सुझाया है। परंतु उन्होंने महाराजा गौड़ेश्वर को संस्कृत में कई अद्भुत श्लोक सुनाए। उनकी विद्वता से महाराजा अतिप्रभावित हुए और उन्होंने अपने दरबार में उन्हें राजकवि का आसान सादर प्रदान कर उन्हें सम्मानित किया।
तत्कालीन कुलीन समाज की मान्यताओं के अनुकूल उन्होंने तीन विवाह किए थे, जिनसे उन्हें एक पुत्र और चार कन्याएँ प्राप्त हुई थीं। कालांतर में महाकवि कृत्तिबास ओझा ने राजा गौड़ेश्वर के आदेश पर जन साधारण की समझ के अनुकूल साधारण बंगला भाषा में संस्कृत के आदि कवि महर्षि बाल्मीकि द्वारा रचित ‘रामायण’ के आधार पर बंगला के प्रसिद्ध ‘पयार छंद’ में “रामायण” नामक महाकाव्य की रचना की, जिसे कृतिकार के प्रति विशेष आदर-सम्मान सूचक “कृत्तिबासी रामायण” भी कहा जाता है। कुछ विद्वानों का मानना है कि उन्होंने अपने गुरु आचार्य दिवाकर के आदेश पर ही सर्वसाधारण के लिए अपनी “रामायण” अर्थात “श्रीराम पँचाली” की रचना की थी। जो भी हो, श्रीराम के प्रति उनकी परम आस्था और अटल विश्वास की ही झाँकी उनके महाकाव्य में सर्वत्र मिलती है।
‘कृतिबास कहे सुने, जप रामेर नाम। शुद्ध हउक अंतर, मिटाओ सब भ्रांति।।
श्रीरामेर नाम धन्य, रामेर गुणगान। रामेर नामे सिद्ध होय मनोकामना।।’
अर्थात, ‘महाकवि कृतिबास यही सभी से कहते-सुनते हैं कि सभी कोई रामनाम को जपो, जिससे अन्तःकरण शुद्ध हो और मन की सभी भ्रांतियाँ नष्ट हो जाए। श्रीराम का नाम और उनका गुणगान करने से ही मानवीय समस्त मनोकामनाएँ पूर्ण होती है।’
महाकवि कृत्तिबास ने आदिकवि महर्षि बाल्मीकि के ‘रामायण’ की कथा, परिवेश और पात्रों को अक्षुण्ण रखते हुए उसमें बंगाली जनजीवन-संस्कृति और धर्म-आचरण के आधार पर उसे बँगला में “श्रीराम पँचाली” के रूप में पुनर्निर्मित किया है। महर्षि बाल्मीकि की “रामायण” की तरह ही उन्होंने भी अपनी “रामायण” अर्थात “कृतिबासी रामायण” या ‘श्रीराम पँचाली’ में श्रीरामकथा को सात अलग-अलग ‘काण्डों’ (काण्ड) में विभक्त किया है । यथा-आदिकाण्डों, अजोध्याकाण्डों, अरण्यकाण्डों, किष्किंधाकाण्डों, सुंदरकाण्डों, लंकाकाण्डों और उत्तरकाण्डों। यह ग्रंथ महर्षि बाल्मीकि के “रामायण” का केवल शब्दानुवाद मात्र ही नहीं है, बल्कि इसमें मध्यकालीन बंगाली समाज और उनकी सभ्यता-संस्कृति जनित विविध क्रिया-कलापों का भी चित्रण है। इसमें कहीं-कहीं बहुत अधिक नाटकीयता, कहीं साहित्यिक, कहीं सांस्कृतिक, कहीं जनता की अपेक्षाओं को पूरा करने की कोशिश करते हुए तत्कालीन मिश्रित बंगला भाषा का उपयोग, तो कहीं-कहीं अत्यंत ही सरलीकरण सहित शांत और मनोरंजक पद्धति के माध्यम से निर्देश देते हुए साहित्यिक संतुलित मार्ग को महाकवि ने प्रशस्त किया है।
उनका उद्देश्य भी केवल सुशिक्षित ब्राह्मणवादी संस्कृति के आग्रहियों के लिए ही नहीं, बल्कि सरल साधारण बंगालीजन के समझने योग्य श्रीरामकथा की रचना करना ही रहा है। उन्होंने अपने महाकाव्य में तत्कालीन बंगाल के सामाजिक रीति-रिवाज, संस्कृति और सांसारिक जन-जीवन के विविध पहलुओं पर आधारित श्रीरामकथा का सरल बंगालीकरण किया है । जो भी हो, “कृत्तिबासी रामायण” महाकाव्य में बंगालीजन अपनी लालसा के अनुकूल अपनी निज आत्मा के अनुकूल, निज भाषा में, निज मिट्टी की, अपनी संस्कृति की और अपनी जीवन-मीमांसा के संवेदनशील सुगंध को प्राप्त करते हैं। फलतः यह सनातनी बंगालीजन का कंठ-हार बना हुआ है।
‘तुमि ब्रह्म, तुमि शिव, तुमि नारायण। सृष्टि स्मिथ प्रलयेर तुमि जे कारण।।’
महाकवि कृतिबास ने अपनी “रामायण” अर्थात “श्रीराम पँचाली” में महर्षि बाल्मीकि “रामायण” के पात्रों में कुछ अधिक कोमल और करूण रसधार को प्रवाहित कर उन्हें और अधिक ग्राह्य तथा रोचक बना दिया है। उन्होंने पितृ-भक्ति, सत्य-निष्ठा, त्याग व प्रजानुरंजन श्रीराम के चरित्र में बंगला जनित कुछ अपनी उद्भावनाएँ और वैष्णव भक्तिवाद संबंधित कुछ अनुभूति को समाहित कर, कहीं-कहीं कुछेक नए आख्यान देकर, कहीं बंगाल की रीति-रिवाजों को दर्शाकर, कहीं उनके आमोद-प्रमोद का उल्लेख कर, कहीं उनके आचार-अनुष्ठान और कहीं नारी-शक्ति की महिमा को चित्रित कर अपने महाकाव्य को अपने बंगाल प्रदेश के निवासियों के अनुकूल बनाया है। फलतः आज भी बंगाली जन-मानस बहुत ही प्रेम-सम्मान भाव से उसे अपने हृदय से लगाए श्रीराम के रूप में ही “कृतिबासी रामायण” की नित्य आराधना करते हैं।
महाकवि कृतिबास को श्रीराम के नाम के प्रति पूर्ण आस और अटल विश्वास रहा है। उन्हें श्रीराम नाम में ही सम्पूर्ण सृष्टि और उससे संबंधित समस्त चराचर दृष्टिगोचर होते हैं। अतः अपने अन्तःकारण की शुद्धता के लिए उन्होंने परम शक्तिशाली देवमंत्र श्रीरामनाम की महिमा को अभिव्यक्त करते हुए अपनी भक्ति-भावना को व्यक्त किया है –
‘रामेर नाम रत्न, जपो रामेर नाम। रामेर नाम वेद, पुराणे बिधान॥
शिवेर दिव्य बानी, जाहा शिवे बोले। भवजल पार होउक नाम रामेर तले।।’
अर्थात, ‘राम का नाम एक अमूल्य रत्न है। उस रामनाम को जपो। राम का नाम ही वेद, पुराण और समस्त विधान है। यहाँ तक कि राम शब्द ही देवाधिदेव महादेव के दिव्य वचन स्वरूप है। रामनाम में ही विराट भवसागर समाहित है। रामनाम का सहारा लेकर ही कोई भी जीव उस विराट भवसागर को सरलता से पार कर पाता है। रामनाम जपने से ही उसकी सारी मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं। अतः हे मानव! तुम रामनाम का निरंतर जाप करो।’
महाकवि कृत्तिबास ने अपनी “रामायण” अर्थात “कृतिबासी रामायण” या ‘श्रीराम पँचाली’ महाकाव्य में कई नए प्रसंगों को भी समाहित किया है। इसके आदिकाण्ड में शायद प्रथम बार मानव समलैंगिक प्रजनन का दुर्लभ प्राचीन चित्रण हुआ है। माँ गंगा के अन्वेषण कार्य में लीन रहते हुए अयोध्या के महाराज दिलीप की मृत्यु के उपरांत उनकी दोनों निःसंतान विधवाएँ देवाधिदेव महादेव जी के परामर्श पर परस्पर सहवास पद्धति से उनमें से कोई एक ने हड्डी विहीन एक माँस का लोथड़ा को जन्म दिया, जो महान ऋषि अष्टवक्र के श्रापयुक्त आशीर्वाद से एक सुंदर शिशु के रूप में परिणत हुआ। कालांतर में वही शिशु सूर्यकुल के वाहक और धरती पर माँ गंगा जी की पावन अजस्र धारा को लाने वाले महामानव भगीरथ के रूप में जग प्रसिद्ध हुआ।
महाकवि कृत्तिबास के दशरथ-नंदन श्रीराम को शत्रुजय विराट शक्ति के परिचायक और कठोर दिव्य अस्त्र-शस्त्रों से सम्पन्न नहीं, वरन् अति सुकोमल हैं, जो अपने हाथ में फूलों से निर्मित धनुष-वाण को लेकर वन में जाते हैं। उनके श्रीराम श्रीहरि विष्णु के समान नीली त्वचा वाले राम के प्रचलित लोकप्रिय स्वरूप के विपरीत, ‘ताज़ी घास की तरह हरा’ रंग वाले और तुलसी-चंदन से आवृत हैं। इस महाकाव्य में चित्रित राम-लक्ष्मण का भाई-चारा, सीता का अत्यंत दुःखी वधू जीवन, हनुमान की दास-भक्ति, सुग्रीव-विभीषण का श्रीराम के प्रति सौहार्द मित्रता आदि वर्तमान बंगाली घर-आँगन और उनके पारिवारिक जीवन के समादृत चित्र बन गए हैं।
‘शिवपूजा करिते बसेन भगवान। कैलास छड़िया शिव होन अधिष्ठान॥
दुई हाथ रामेर धरिल त्रिलोचन। दुईजन हरषित प्रेम-आलिंगन॥
शिव बोले, प्रभु तुमि पूजा कर कार। राम तुमि इष्टदेव हओ जे आमार॥
श्रीराम बोलेन, तुमि मोर इष्टदेव हओ। रावण बधिते तुमि पुष्प-जल लओ॥
अर्थात, ‘देवधिदेव शिव जी अर्थात, त्रिलोचन जी ने श्रीराम के दोनों हाथों को पकड़ लिया। दोनों देव अतिहर्षित प्रेम से आलिंगन बद्ध हो गए। अब शिव जी श्रीराम से पूछते हैं, कि हे प्रभु! आप किसकी पूजा कर रहे हैं? श्रीराम! आप तो हमारे इष्टदेव हैं। तब श्रीराम महादेव शिव जी को कहते हैं, हे प्रभु! आप ही मेरे इष्टदेव हैं। आप रावण-बध हेतु मुझे अपना आशीर्वाद स्वरूप मेरे पुष्प-जल को अपने हाथों में ग्रहण कीजिए।’ कैसा अद्भुत चित्र है, देवधिदेव महादेव जी और श्रीराम जी दोनों ही एक-दूसरे को अपना ईष्टदेव बता रहे हैं। दोनों ही एक-दूसरे की आराधना हेतु आग्रही हैं।
इसी तरह से उन्होंने कई नवीन आध्यात्मिक उद्भावनाओं को भी अपनी “श्रीराम पँचाली” अर्थात “कृतिबासी रामायण” में समायोजित किया है, जैसे वीरबाहु-युद्ध, तरणी सेनी की कहानी, श्रीराम द्वारा माँ दुर्गा का अकालबोधन, महिरावण-अहिरावण की कहानी, सीताजी द्वारा रावण का चित्र अंकन करना और श्रीराम का संदेह उत्पन्न होना, रावण की मृत्यु के पूर्व श्रीराम द्वारा शिक्षा की याचना, लव-कुश युद्ध आदि। महासंग्राम के पूर्व श्रीराम द्वारा विस्तृत सागर तट पर माँ दुर्गा का ‘अकाल-बोधन’ अर्थात, ‘असामयिक जागरण’ संबंधित ‘मातृ-शक्ति चंडी-पूजन’ का सर्वप्रथम चित्रण “कृतिवास रामायण” में ही हुआ है, जिसमें माँ दुर्गा द्वारा एक कमल पुष्प को छिपा लेने पर श्रीराम अपने ‘कमलाक्ष’ को ही देवी दुर्गा के प्रति अर्पण हेतु तत्पर हो जाते हैं। तब से, भगवान श्रीराम की लोकप्रियता के कारण, उनके भक्तों ने ‘शरद’ या शरद ऋतु में दुर्गापूजा मनाना प्रारंभ कर दिया।
इसी तरह से ‘भस्मलोचन राक्षस’ का प्रसंग भी आया है, जो चमड़े के टोप से अपनी आँखें ढके सागर तट पर पहुँचा और अपनी आँखों को खोलकर अग्नि की बरसात करने लगता है, जिससे बानरी-सेना भस्म-भूत होने लगी थी। तब विभीषण के परामर्श पर श्रीराम जी अपने बाण पर हजारों दर्पण को संधान कर उसे भस्म-भूत किए थे। इस प्रकार उन्होंने रामकथा के पात्रों को साकेत-कोशल-मिथिला-लंका की राज-संस्कृति से निकाल कर बंगाली घराने या संस्कृति के शांतिपूर्ण और सौम्य स्वरूप में स्थापित किया है। महाकवि लिखते हैं –
‘कमल-लोचन मोरे बले सर्वजन। एक चक्षु दिब आमी संकल्प पुरनों॥
एत बलि तृण हाते लाइलेन बाण। उपाड़ीते जान चक्षु करते प्रदान॥
चक्षु उपाड़ीते राम बसिला साक्षाते। हेनकाले कात्यायनी धरिलेन हाते॥
कि कर, कि कर, प्रभु जगत गोंसाई। पूर्ण होल, चक्षु उपाडिया कार्य नाई॥’
अर्थात, ‘सभी मुझे कमल-नयन कहते हैं। मैं अपने एक कमल-नयन को देवी माता को अर्पण कर अपना संकल्प पूर्ण करूँगा। इतना कहकर श्रीराम ने अपने हाथ में बाण लेकर अपनी एक आँख को निकालना चाहा। ठीक तभी देवी माता प्रगट हुई और उनके हाथों को पकड़कर बोली, – हे प्रभु! आप क्या कर रहे हैं? अब नयन प्रदान करने की कोई आवश्यकता नहीं, आपका संकल्प पूर्ण हुआ।’
जिस प्रकार महर्षि बाल्मीकि कृत “रामायण” के आधार पर अन्य भारतीय भाषाओं में रचित “रामायण” या श्रीराम कथाओं ने मध्यकालीन भारतीय धर्म व संस्कृति के विपर्यय काल में भारतीय सनातनी जन-मानस को संबलता प्रदान करते हुए उनमें भारतीय सनातनी अस्मिता की रक्षा की, उसी तरह “कृत्तिबासी रामायण” या “श्रीराम पँचाली” ने भी बंग-जीवन को, अपने धर्म-संस्कृति के विरूद्ध अपने आक्रताओं से स्वयं की रक्षा कर निज शांतिपूर्ण और सौम्य जीवन-शैली को वहन करने की सबलता प्रदान की है। फलतः सनातनी बंगाली जन को महाकवि की रामकथा अपने घर-आँगन और गलियों की कथा प्रतीत हुई। इसने सरल भाषा में लोगों को जीवन के मर्म बताया है। फलतः उन्होंने उसे अपने हृदय में अमित स्थापित कर लिया है। महाकवि ने लिखा है –
‘एक सत् धेनु बध जेई जन करे। तत पाप होय यदि एक नारि मारे॥
एक शत् नारि हत्या करे जे जन। तत पाप होय एक मारिले ब्राह्मण॥
एक शत् ब्रह्मबधे जत पापोदया। एक ब्रह्मचारी बधे तत पाप होय॥
ब्रह्मचारी मारिले पातक होय राशि। संख्या नाई कत पाप मारिले संन्यासी॥’
कालांतर में “कृत्तिबासी रामायण” या “श्रीराम पँचाली” के मूल रूप में अगली चार शताब्दियों के अंतराल में विभिन्न ग्रंथ-लेखकों के द्वारा अनेक परिवर्तन होते रहे हैं। “कृत्तिबासी रामायण” अर्थात “श्रीराम पँचाली” का प्रथम प्रकाशन अंग्रेज अधिकारी विलियम केरी ने सन् 1802-03 में ‘श्रीरामपुर मिशन प्रेस’ से पाँच खंडों में करवाया था। इसके बाद चंद्रोदय विद्या विनोद भट्टाचार्य, मनोरंजन बंधोपाध्याय आदि ने भी इसका सम्पादन किया।
वर्तमान में प्रचलित संस्करण को जयगोपाल तर्कालंकार ने दो खंडों में 1834 में प्रकाशित करवाया था। बाद में उसी संस्करण के आधार पर 20 वीं शताब्दी में अन्य सैकड़ों संस्करण प्रकाशित हुए हैं। आजकल दिनेश चंद्र सेन, नलिनीकांतों भट्टसाली, रूथ बनिता, शुद्धा मजूमदार, बेनी माधव सील, आशुतोष भट्टाचार्य, उज्ज्वल मजूमदार आदि द्वारा संपादित ग्रंथ बाजार में उपलब्ध हैं। जबकि “कृतिबासी रामायण” अर्थात “श्रीराम पँचाली” की महाकवि द्वारा रचित मूल पांडुलिपि वर्तमान में फ्रांस के नैशनल म्यूजियम में सुरक्षित संग्रहीत है।
“कृत्तिवास रामायण” या “श्रीराम पँचाली” महाकाव्य का बंगाल और उसके आस-पास के क्षेत्रों के जन-जीवन के अतिरिक्त बंगाल भूमि के विविध साहित्यकारों तथा उनके साहित्यों पर गहरा प्रभाव पड़ा है। इसमें चित्रित रामकथा ने माइकल मधुसूदन दत्त और रवींद्रनाथ टैगोर सहित परवर्तित सैकड़ों बंगाली साहित्यकारों को अपने अनुरूप से प्रेरित किया है। माइकल मधूसदन दत्त ने महाकवि के संदर्भ में लिखा है – कृतिबास कवि बंगाल के वेशकीमती अलंकार हैं।’
हिंदू समुदाय की धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परंपराएँ विशेष रूप से श्रीरामकथा पर ही आधारित हैं। इसलिए “रामायण” के बंगला अनुवाद के माध्यम से श्रीरामकथा संबंधित विशद ज्ञान को बंगालियों के घर-आँगन तक पहुँचाने के लिए बंगालीजन महाकवि कृतिवास के सदैव ऋणी ही रहेंगे। साहित्यिक नोबल पुरुस्कार से सम्मानित रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कृत्तिबासी रामायण के संदर्भ में लिखा है, – ‘यह कविता (महाकाव्य) प्राचीन बंगाली समाज को पूर्ण व्यक्त करती है। यह बंगाली संस्कृति का एक विशद दर्पण है।’ महाकवि कृतिबास के शब्दों में ही अपनी इच्छा को को व्यक्त करते हुए मैं भी ‘हरि हरि’ कहता हूँ।
‘कृतिबास कहे सुनि,लिखिल यश तूलि धूनि।
हरि हरि बलिया काया, लिखिल राम पँचाली॥’
श्रीराम पुकार शर्मा
अध्यापक व स्वतंत्र लेखक
हावड़ा- 711101 (पश्चिम बंगाल)
ई-मेल सूत्र- rampukar17@gmail.com
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