वाराणसी। महाभारत युद्ध से पूर्व गुरु द्रोणाचार्य अनेक स्थानों में भ्रमण करते हुए हिमालय (ऋषिकेश) प्हुचे। वहाँ तमसा नदी के तट पर एक दिव्य गुफा में तपेश्वर नामक स्वयंभू शिवलिंग है। यहाँ गुरु द्रोणाचार्य और उनकी पत्नी माता कृपि ने शिव की तपस्या की। इनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने इन्हे पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया। कुछ समय पश्चात् माता कृपि ने एक सुन्दर तेजश्वी बालक को जन्म दिया। जन्म ग्रहण करते ही इनके कण्ठ से हिनहिनाने की सी ध्वनि हुई जिससे इनका नाम अश्वत्थामा पड़ा। जन्म से ही अश्वत्थामा के मस्तक में एक अमूल्य मणि विद्यमान थी। जो कि उसे दैत्य, दानव, शस्त्र, व्याधि, देवता, नाग आदि से निर्भय रखती थी।
वह मणि अश्वत्थामा को बुढ़ापे, भूख, प्यास और थकान से भी बचाती थी। भगवान शिव से प्राप्त उस शक्तिशाली दिव्य मणि ने अश्वत्थामा को लगभग अजेय और अमर बना दिया था। उन्होंने दिव्य तलवार प्रदान की और अपने पूर्ण रूप में अश्वत्थामा के शरीर में प्रवेश कर उसे पूरी तरह से अजेय बना दिया था। दूसरी ओर, श्रीकृष्ण ने अपनी योग शक्ति से पहले ही भांप लिया था कि उस रात पांडव शिविर में क्या अराजकता होने वाली थी, इसलिए पांडवों और सात्यकी को अश्वत्थामा के विनाशकारी क्रोध से बचाने के लिए श्रीकृष्ण उन्हें पहले ही शिविर से दूर ले गए थे।
पुत्रों के वध से शोकग्रस्त द्रौपदी विलाप करने लगी। द्रौपदी के विलाप को सुनकर अर्जुन अश्वत्थामा को विच्छेदित कर डालने को प्रतिज्ञाबद्ध हुआ और श्रीकृष्ण को सारथी बनाकर, गाण्डीव धनुष लेकर अर्जुन ने अश्वत्थामा का पीछा किया। अश्वत्थामा को कहीं भी सुरक्षा नहीं मिली तो उसने अर्जुन को लक्षित कर शक्तिशाली ब्रह्मशिर अस्त्र का प्रयोग कर दिया। अश्वत्थामा ब्रह्मशिर चलाने से तो अभिज्ञ था परंतु निष्क्रमण (लौटा लाना) से अनभिज्ञ था।
उस अति प्रचण्ड तेजोमय अग्नि को अपनी ओर आता देख अर्जुन ने श्रीकृष्ण से विनती की, “हे जनार्दन! आप ही इस त्रिगुणमयी सृष्टि का सृजन करने वाले परमेश्वर हैं। सृष्टि के आदि और अंत में आप ही शेष रहते हैं। आप ही अपने भक्तजनों की रक्षा के लिए अवतार ग्रहण करते हैं। आप ही ब्रह्मा स्वरूप हो रचना करते हैं, आप ही विष्णु स्वरूप हो पालन करते हैं और आप ही रुद्र स्वरूप हो संहार करते हैं। आप ही बताइए कि यह प्रचण्ड अग्नि मेरी ओर किस ओर से आ रही है और इससे मेरी रक्षा कैसे होगी?”
श्रीकृष्ण बोले, “हे अर्जुन! तुम्हारे प्राण घोर संकट में है। इससे रक्षा के लिए तुम्हें भी अपने ब्रह्मशिर अस्त्र का प्रयोग करना होगा क्योंकि अन्य किसी भी अस्त्र से इसका निवारण नहीं हो सकता।”
श्रीकृष्ण की इस मंत्रना को सुनकर महारथी अर्जुन ने भी तत्काल आचमन करके अपना ब्रह्मशिर अस्त्र लक्षित कर दिया। दोनों प्रलयंकारी एवं विनाशकारी ब्रह्मशिर अस्त्र परस्पर भिड़ गये और प्रचण्ड अग्नि उत्पन्न होकर तीनों लोकों को तप्त करने लगी, उनकी लपटों से समस्त प्रजा दग्ध होने लगी। इस महाविनाश को देख वेदव्यास और नारद उनके सामने प्रकट हुए और उनसे अपने विनाशकारी अस्त्र वापस लेने को कहा। यह सुनकर अर्जुन ने अपना अस्त्र वापस लौटा कर शांत कर दिया लेकिन अश्वत्थामा ऐसा करने में असमर्थ था इसलिए गुस्से में उसने अपने उस अस्त्र की दिशा उत्तरा के गर्भ की ओर बदल दी।
यह कृत्य देखकर पांडवों को अत्यंत क्रोध आया और उन्होंने क्रोध में झपट कर अश्वत्थामा को पकड़ कर बाँध दिया। श्रीकृष्ण बोले “हे अर्जुन! धर्मात्मा, निद्रामग्न, असावधान, मतवाले, पागल, अज्ञानी, रथहीन, स्त्री तथा बालक का वध धर्मानुसार वर्जित है। इसने धर्म विरुद्ध आचरण किया है, जीवित रहेगा तो पुनः पाप करेगा। अतः तत्काल इसका वध करके इसका विच्छेदित मस्तक द्रौपदी के समक्ष प्रस्तुत कर अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करो।” वास्तव में श्रीकृष्ण यह देखना चाहते थे कि उनकी बातें सुनकर अर्जुन आगे क्या कदम उठाता है।
उनकी बात को समझ कर अर्जुन ने अपने खड्ग से अश्वत्थामा के केश विच्छेदित कर डाले और उसके मस्तक से वह शक्तिशाली दिव्य मणि का भी विच्छेदन कर डाला। मणि-विच्छेदन से वह श्रीहीन हो गया। श्रीहीन तो वह उसी क्षण हो गया था, जब उसने एक निर्दोष स्त्री और उसके अजन्मे शिशु को मारने की कोशिश की थी। फिर अश्वत्थामा को बांध कर शिविर में ले जाकर द्रौपदी के समक्ष उपस्थित किया। पशु की तरह बँधे हुए गुरुपुत्र को देखकर ममतामयी द्रौपदी का कोमल हृदय पिघल गया।
उसने गुरुपुत्र को प्रणाम कर उसे बन्धन मुक्त करने के लिये अर्जुन से कहा, “हे आर्यपुत्र! ये गुरुपुत्र तथा ब्राह्मण हैं, ब्राह्मण सदा ही पूजनीय होता है और उसका वध पाप है। इनके पिता से ही आपने इन अपूर्व शस्त्रास्त्रों का ज्ञानार्जन किया है। पुत्र के रूप में आचार्य द्रोण ही आपके सम्मुख बन्दी रूप में खड़े हैं। इनके वध से इनकी माता कृपी मेरी तरह ही कातर होकर पुत्र शोक में विलाप करेंगी। पुत्र से विशेष मोह होने के कारण ही वह द्रोणाचार्य के साथ सती नहीं हुई। कृपी की आत्मा निरन्तर मुझे कोसेगी। इनके वध करने से मेरे मृत पुत्र लौट कर तो नहीं आ सकते! अतः आप इन्हें मुक्त कर दीजिये।
ज्योतिर्विद रत्न वास्तु दैवज्ञ
पंडित मनोज कृष्ण शास्त्री
मो 99938 74848
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