Supreme Court stays order to install nameplates on Kanwar Yatra route

कावड़ यात्रा जाति विहीन हिंदू समाज की दिशा में एक ठोस प्रयास

आशा विनय सिंह बैस, नई दिल्ली। भगवान शिव के ज्योतिर्लिंग पर गंगाजल चढ़ाने की परंपरा को ‘कांवड़ यात्रा” कहा जाता है। गंगाजल एक पवित्र स्थान से अपने कंधे पर ले जाकर भगवान शिव को सावन की महीने में शिवरात्रि को अर्पित किया जाता है। हर साल शिवभक्त भगवान भोलेनाथ के प्रति अपनी भक्ति दिखाने के लिए कांवड़ यात्रा निकालते हैं। पूरी यात्रा के दौरान कांवड़ियों को यह सुनिश्चित करना होता है कि मिट्टी/स्टील/प्लास्टिक के बर्तन जमीन को न छुएं। गंगाजल ले जाते समय, भक्त नंगे पैर चलते हैं और कुछ भक्त तो जमीन पर लेटकर तीर्थयात्रा पूरी करते हैं।

प्रतीकात्मक तौर पर कांवड यात्रा का संदेश इतना भर है कि आप जीवनदायिनी नदियों के लोटे भर जल से जिस भगवान शिव का अभिषेक कर रहे हें, वे शिव वास्तव में सृष्टि का ही दूसरा रूप हैं। धार्मिक आस्थाओं के साथ सामाजिक सरोकारों से रची कांवड यात्रा वास्तव में जल संचय की अहमियत को उजागर करती है। धार्मिक ग्रंथ के जानकारों का मानना है कि कावड़ यात्रा की शुरुआत सबसे पहले भगवान परशुराम ने की थी। उन्होंने कांवड़ से गंगाजल लाकर उत्तर प्रदेश के बागपत के पास बने पूरा महादेव का अभिषेक किया था। भगवान परशुराम गढ़मुक्तेश्वर से कांवड़ में गंगाजल लेकर आए थे और फिर इस प्राचीन शिवलिंग का अभिषेक किया था।

कांवड़ के प्रकार :-
1) डाक कांवड़ : इसमें कांवड़िए शुरुआत से लेकर शिव के जलाभिषेक तक बगैर रुके लगातार चलते रहते हैं। इस यात्रा के दौरान शरीर से उत्सर्जन की क्रियाएं वर्जित होती हैं।

2) खड़ी कांवड़ : जो शिवभक्त खड़ी कांवड़ लेकर चलते हैं, उनकी मदद के लिए कोई-न-कोई सहयोगी उनके साथ चलता रहता है।

3) दांडी कांवड़ : इस कांवड़ में भक्त नदी तट से शिवधाम तक की यात्रा दंड देते हुए पूरी करते हैं। यह बेहद मुश्किल यात्रा होती है, जिसमें कई दिन और कभी-कभी एक माह का समय तक लग जाता है।

हमारे क्षेत्र बैसवारा में कांवड़ यात्रा नहीं होती है। आज से कुछ वर्ष पूर्व तक मैं किसी भी बुद्धिजीवी की तरह यह सोचता था कि कावड़ यात्रा करने वाले बेरोजगार, समाज के निचले वर्ग के, नशेड़ी, अपराधी प्रवृति के लोग होते हैं। कावड़िए सड़क जाम करते हैं, दंगा फसाद करते हैं और निहायत ही बेकार कार्य में अपना समय, ऊर्जा और धन बर्बाद करते हैं।

लेकिन गहराई से विचार करने पर मुझे कावड़ यात्रा की कुछ विशेषताएं समझ में आती हैं। जैसे कि –
1) सभी कावड़ यात्री ‘भोले’ होते हैं। वह केवल और केवल हिंदू होते हैं। किसी जाति के बंधन से कम से कम कावड़ यात्रा के दौरान मुक्त होते हैं।
2) कावड़ियों में जबरदस्त एकता होती है। जरा सी बात पर मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं। फिलहाल इस एकता की बहुत आवश्यकता है।

3) हिंदू धर्म की एक कमजोरी यह रही है कि तथाकथित उच्च जाति के लोग ही इसके स्टेकहोल्डर माने जाते रहे हैं। कावड़ यात्रा एक ऐसा अनुष्ठान है जिसमें तथाकथित निम्न जाति के लोग भी हिंदू धर्म के प्रबल स्टेकहोल्डर बन जाते हैं।
4) भगवान राम और भगवान कृष्ण की जाति राजनेताओं द्वारा बांट दी गई है। भगवान भोलेनाथ अभी भी इससे अछूते हैं। भगवान शिव से कोई भी, कभी भी और कैसे भी जुड़ सकता है।
5) कावड़ यात्रा में तमाम तरह के चमत्कार प्रदर्शित किए जाते हैं। कटु सत्य यह है कि समाज के एक वर्ग का इन्हीं चमत्कारों के बल पर धर्म परिवर्तन किया गया है।

6) आज के इस मोबाइल और एसी वाले युग में कावड़ यात्रा कठिन शारीरिक फिटनेस मांगती है। यह शारीरिक दक्षता कई मौकों पर हमारे काम आएगी।
7) भगवान राम के भक्त मर्यादा में रहते हैं। भगवान कृष्ण के भक्त केवल प्यार करना जानते हैं। भगवान भोले शंकर के भक्त प्यार बरसाना भी जानते हैं और जरूरत पड़ने पर तांडव करना भी जानते हैं। ‘एक हाथ में माला और एक हाथ में भाला’ आज के समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है।

जिस प्रकार लोक आस्था के महापर्व छठ में जाति गौड़ हो जाती है बल्कि समाप्त हो जाती है। उसी प्रकार कावड़ यात्रा भी जाति विहीन हिंदू समाज की दिशा में एक ठोस प्रयास है।
जय भोलेनाथ
(आशा विनय सिंह बैस)
शिव भक्त

(स्पष्टीकरण : इस आलेख में दिए गए विचार लेखक के हैं और इसे ज्यों का त्यों प्रस्तुत किया गया है।)

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