जय प्रकाश नारायण जयंती विशेष…

“जय प्रकाश है नाम समय की करवट का, अँगड़ाई का”

श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने अपनी ‘रश्मिरथी’ की इस पंक्ति में उस महान व्यक्तित्व को परिभाषित किया है, जिसके चहरे पर संतों की दिव्य आभा, अन्तः में दुर्बल जनों की वेदना, सीने में जुल्म के प्रति धधकती ज्वाला और मस्तिष्क में क्रान्ति के विराट बवंडर को समेटे एक साधारण कायाकाठी वाला व्यक्तित्व, जिसको हम भारतवासी ‘लोकनायक’ जय प्रकाश नारायण या फिर ‘जेपी’ के नाम से जानते हैं।

दीर्घ संघर्ष के उपरांत नवनिर्मित स्वतंत्र भारत में लगभग २५ वर्षों में ही कुछ स्वेच्छाचारी शासकों को शायद यह भ्रम हो गया था कि अब भारत की राजनीति-भूमि योद्धाविहीन हो गई है। उनके अत्याचारी और भ्रष्टाचारी कदमों को रोकने वाला अब उनका कोई प्रतिरोधी नहीं रह गया है। ऐसे में बिहार की वीर प्रसूता भूमि ने एक बार पुनः अपने इतिहास को दुहराते हुए ‘बूढ़े भारत में आई फिर से नई जवानी’ को चरितार्थ करते हुए ७२ वर्षीय एक वृद्धलाल ‘शेर-ए-बिहार’ ‘लोकनायक’ जय प्रकाश नारायण की बूढ़ी धमनियों में फिर से उष्मित रक्त प्रवाहित हुआ, जिसने उन अत्याचारी, भ्रष्टाचारी और स्वेच्छाचारी शासकों के नापाक कदमों को बेड़ियों में जकड़ दिया था।

‘लोकनायक’ जय प्रकाश नारायण’ का जन्म ११ अक्टूबर, १९०२ को बिहार के वर्तमान जिला छपरा के सिताबदियरा में गाँधीवादी विचारधारा और कार्यों के पोषक देवकी बाबू तथा फूलरानी देवी के साधारण प्रांगण में हुआ था। उनमें चार वर्ष तक कोई दाँत न आए थे, न स्पष्ट बोल ही पाते थे । जिस कारण उनकी माताजी इन्हें ‘बऊल जी’ कहा करती थीं। फिर ‘बऊल’ जी ने जब बोलना आरम्भ किया, तो इनकी वाणी की ओज शक्ति के सामने कोई टिक न सका, बल्कि तत्कालीन अंग्रेज शासक तक काँप उठे थे। फिर सत्तर के दशक में स्वेच्छाचारी केन्द्रीय सत्ता भी औंधे मुँह के बल गिर पड़ी थी।

१९२० में जय प्रकाश नारायण का विवाह अत्यन्त ही मृदुल स्वभाव और घर-गृहस्ती में निपुण कन्या ‘प्रभावती’ के साथ हुआ। चुकी प्रभावती के पिता ब्रजकिशोर जी अपने अंचल के एक ख्याति प्राप्त गाँधीवादी कार्यकर्ता थे। वे बिहार विधान परिषद के सदस्य तथा बिहार काँग्रेस के अध्यक्ष भी रह चुके थे। महात्मा गाँधी के चम्पारण प्रवास के समय वे अपनी किशोर पुत्री प्रभावती के साथ ही बापू से अक्सर मिलने जाया करते थे। गाँधी जी का पिता-पुत्री के प्रति अपार स्नेह था। इस प्रकार प्रभावती देवी में विवाह के पूर्व से ही देश की आजादी के संघर्ष के लिए विशेष कार्य-शक्ति की नींव पड़ चुकी थी।

जय प्रकाश नारायण ‘जलियाँवाला बाग़ नरसंहार’ (१९१९) के प्रति विरोध जताते हुए सरकारी स्कूल को छोड़कर पूर्णतः स्वदेशी ‘बिहार विद्यापीठ’ में भर्ती हुए। फिर उच्च शिक्षा के लिए वह अमेरिका के ‘कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय’, बरकली तथा ‘विसकांसन विश्वविद्यालय’ में भर्ती हुए थे। वही पर वे मार्क्सवादी विचार धारा से भी प्रभावित हुए थे।

जय प्रकाश नारायण के मन में अपने देश को आजाद देखने की बड़ी ही ललक थी। यही वजह रहा कि स्वदेश लौटते ही १९२९ किसी नौकरी के आग्रही न होकर तत्कालीन ‘काँग्रेस पार्टी’ में शामिल होकर स्वाधीनता आंदोलन में सक्रिय हो गए। भारत में ब्रिटिश हुक़ूमत के ख़िलाफ़ ‘सविनय अवज्ञा आंदोलन’ में भाग लेने के कारण १९३२ में उन्हें एक वर्ष की क़ैद हुई थी। रिहा होने पर उन्होंने काँग्रेस के भीतर ही वामपंथी विचारधारा से संबंधित ‘काँग्रेस सोशलिस्ट पार्टी’ के गठन में अग्रणी भूमिका निभाई।

द्वितीय विश्व युद्ध में अंग्रेजों की ओर भारत की भागीदारी का उन्होंने कड़ा विरोध किया था। फलतः उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। ९ महीने के बाद जेल से रिहा होने के बाद उन्होंने पुनः आंदोलन का नेतृत्व किया। १९३९ में उन्हें राममनोहर लोहिया के साथ पुनः गिरफ़्तार कर लिया गया और हजारीबाग के जेल में बंद कर दिया गया था। जहाँ से ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के दौरान दीपावली की रात में अपने छ: सहयोगियों के साथ जेल परिसर को लांघकर फरार हो गये थे।

जय प्रकाश नारायण ने स्वतंत्रता संग्राम में हथियारों की उपयोगिता को सही माना। इसके लिए उन्होंने नेपाल जाकर ‘आज़ाद दस्ते’ का गठन किया और उसे आवश्यक प्रशिक्षण भी दिया। उन्हें राममनोहर लोहिया के साथ पुनः सितम्बर १९४३ में गिरफ्तार कर लिया गया। दोनों को लाहौर की काल कोठरी में रखा गया, जहाँ इन्हें कुर्सी पर बाँधकर पिटाई की जाती थी। बाद में दोनों को आगरा जेल में स्थान्तरित किया गया और अप्रेल १९४६ में दोनों को रिहा किया गया था।

भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदान और अथक प्रयास के फलस्वरूप १५ अगस्त, सन् १९४७ को हमारा देश आज़ाद हो गया। जय प्रकाश नारायण ने तब आचार्य नरेंद्र देव के साथ मिलकर १९४८ में ‘ऑल इंडिया काँग्रेस सोशलिस्ट’ की स्थापना की। देश की आजादी के बाद उन्होंने चुनावी राजनीति से स्वयं को अलग ही कर लिया। १९५० के दशक में ‘राज्य-व्यवस्था की पुनर्रचना’ नामक एक पुस्तक लिखी, जिसमें सत्ता के विकेन्द्रीकरण की बात कही गई। जिसके आधार पर ही नेहरू जी ने ‘मेहता आयोग’ का गठन किया था।

जयप्रकाश नारायण ने १९ अप्रेल, १९५४ में गया, (बिहार) में विनोबा भावे के ‘सर्वोदय आन्दोलन’ के लिए अपना जीवन समर्पित करने की घोषणा की। लेकिन बाद में लोकनीति के पक्ष में १९६० के दशक के अंतिम भाग में वे अपने जीवन के तीसरे पड़ाव में राजनीति में पुनः सक्रिय हो गए। ऐसे ही समय उनकी धर्मपत्नी श्रीमती प्रभावती देवी कैंसर रोग से पीड़ित होकर १५ अप्रैल १९७३ को इस दुनिया से चल बसीं, जिससे उनके हृदय पर गहरी चोट लगी। किन्तु इसके बावज़ूद भी वे देश की सेवा में एक बहादुर सिपाही की तरह डटे रहे।

९ अप्रैल को पटना के ऐतिहासिक गाँधी मैदान में प्रदेश वासियों ने उन्हें ‘लोकनायक’ की उपाधि प्रदान की और अब वे ‘लोकनायक’ जयप्रकाश नारायण बन गये। १९७४ में बिहार में ‘किसान आन्दोलन’ का नेतृत्व करते हुए उन्होंने तत्कालीन बिहार सरकार से इस्तीफे की माँग की। सारा देश ही उनके कदमों के पीछे चलने में अपना सौभाग्य माना, मानो कि वे किसी संत-महात्मा के पीछे धर्मार्थ पुण्य कार्य हेतु चल पड़े हों।

‘लोकनायक’ जयप्रकाश नारायण तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गाँधी की प्रशासनिक नीतियों के विरुद्ध थे, जिसके कारण सम्पूर्ण देश में बढ़ती महँगाई सहित कई बुनियादी और प्रशासनिक आवश्यकताओं की कमी हो चली थी। अतः गिरते स्वास्थ्य के बावजूद भी ‘लोकनायक’ जयप्रकाश नारायण ने देशवासियों के हितार्थ तत्कालीन ‘कानी और बहरी’ इंदिरा गाँधी की सत्ता के खिलाफ आवाज उठाने का फैसला किया। फिर ५ जून १९७४ के दिन पटना के गाँधी मैदान में उन्होंने विशाल सभा की, जिसमें औपचारिक रूप से ‘संपूर्ण क्रांति’ की घोषणा करते हुए इंदिरा गाँधी की सत्ता को उखाड़ फेंकने का आह्वान किया, –
‘भ्रष्टाचार मिटाना, बेरोजगारी दूर करना, शिक्षा में क्रांति लाना आदि ऐसी चीजें हैं, जो आज की प्रशासनिक व्यवस्था से पूरी नहीं हो सकतीं, क्योंकि वे सब इसी व्यवस्था की ही उपज हैं। वे तभी पूरी हो सकती हैं, जब पूरी व्यवस्था को ही बदल दी जाए और पूरी व्यवस्था के परिवर्तन के लिए एक विराट ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ की आवश्यकता है।’

हालाकि प्रारंभ में ‘सम्पूर्ण क्रांति’ का उद्देश्य सामाजिक न्याय, जाति व्यवस्था तोड़ने, जनेऊ हटाने, नर-नारी में समता लाने, अन्तर्जातीय विवाह आदि से संबंधित मूलतः सात विभिन्न क्रांतियाँ शामिल थीं, यथा – राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक, शैक्षणिक व आध्यात्मिक क्रांति। पर, बाद में इसमें शासन व प्रशासन का तरीका बदलने, ‘राइट टू रिकॉल’ को भी शामिल कर लिया गया। तब तत्कालीन शासन व्यवस्था में आमूल परिवर्तन ही ‘सम्पूर्ण क्रांति’ का उद्देश्य बन गया। चुकी १९७५ में निचली अदालत में इंदिरा गाँधी पर चुनावों में भ्रष्टाचार के आरोप सत्य साबित हो गए थे अतः जय प्रकाश ने उनसे इस्तीफ़े की माँग की।

इसके बदले में इंदिरा गाँधी ने राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा कर दी और जय प्रकाश नारायण सहित अन्य लगभग ६०० से भी अधिक विपक्षी नेताओं तथा क्रांति विचार पोषकों को गिरफ़्तार करवा दी। प्रेस पर सेंसरशिप लगा दिया गया। ऐसे में जो आंदोलन ‘संपूर्ण क्रांति’ का लक्ष्य लेकर चला था, अब वह चुनाव के मैदान में शक्ति परीक्षण के रूप में बदल गया। फिर तो बिहार से उठी ‘सम्पूर्ण क्रांति’ की चिंगारी देश के कोने-कोने में आग बनकर भड़क उठी। लोकनायक जय प्रकाश नारायण घर-घर में क्रांति का पर्याय बन चुके थे। लालू प्रसाद, नीतीश कुमार, रामविलास पासवान, सुशील मोदी आदि जैसे नेताओं का उसी क्रांति में प्रादुर्भाव हुआ है।

‘सम्पूर्ण क्रांति’ की तपिश इतनी भयानक थी कि ‘लोकनायक’ जयप्रकाश नारायण की हुंकार पर नौजवानों का जत्था शहरों-गाँवों की सड़कों पर निकल पड़ा। दिल्ली के रामलीला मैदान में एक लाख से अधिक लोगों ने जय प्रकाश नारायण की गिरफ्तारी के खिलाफ हुंकार भरी। जेल में उनकी तबीयत और भी खराब हो जाने के कारण ७ महीने बाद उनको जेल से मुक्त कर दिया गया। स्थिति को बिगड़ते देखकर जनवरी १९७७ को आपातकाल हटा लिया गया।

परंतु वर्ष १९७७ में देश में जो आम हुआ चुनाव हुआ, उसमें ‘लोकनायक’ जय प्रकाश नारायण के प्रभाव से ही जनता ने नेताओं को पीछे करते हुए इंदिरा गाँधी को हरा दिया। “संपूर्ण क्रांति” के कारण देश में पहली बार गैर-कांग्रेसी सरकार बनी। उन्होंने न सिर्फ भारतीय राजनीति को, बल्कि आम जनजीवन को भी एक नई दिशा दी और समयानुसार कई नए राजनीतिक मानक भी गढ़े हैं। राष्ट्रीयता की भावना एवं नैतिकता की स्थापना ही उनका परम लक्ष्य रहा था। उनके समाजवाद का नारा आज भी विभिन्न राजनीतिक दलों में गूँज रहा है।

‘लोकनायक’ जय प्रकाश नारायण ने कभी सत्ता की राजनीति नहीं की, सदैव भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ी, सादगीपूर्ण जीवन जिया, धन संचय नहीं किया और जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों की हमेशा रक्षा की थी। लेकिन उन्ही को अपना राजनीतिक गुरु मानकर लालू यादव, नीतीश कुमार आदि मुख्य मंत्री के पद तक की यात्रा तय की। जबकि अनगिनत नेता सड़क से संसद तक पहुँचने में कामयाब हुए हैं। आज तो इन नेताओं के परिजन और वंशज आदि भी सत्ता के स्वामी बने हुए अभिजात्य जीवन का सुख भोग रहे हैं। लेकिन सत्ता के लोभ में वे अपने राजनीतिक गुरु लोकनायक जय प्रकाश नारायण के विचारों, आदर्शों और सपनों को रोज ही हत्या करने पर तुले हुए हैं।

भारत का वह लोकतंत्र का प्रहरी, भारतीय राजनीति का दिव्य सितारा, स्वप्नदर्शी और ‘शेर-ए-बिहार’ ‘लोकनायक’ जय प्रकाश नारायण डायबिटीज और ह्रदय सम्बंधित विकार से पीड़ित रहें, परंतु उन्होंने अपनी इलाज के लिए सरकारी सहायता स्वीकार न की और ७७ वर्ष की आयु में माँ भारत का वह तेजस्वी अमर पुत्र ८ अक्टूबर, १९७९ को पटना में चिरनिन्द्रा में सो गया।

भारत के स्वतंत्रता संग्राम में महत्त्वपूर्ण योगदान तथा सामाजिक विकास कार्य हेतु ‘लोकनायक’ जय प्रकाश नारायण को १९६५ में ‘रमण मैग्सेसे पुरस्कार’, एफ.आई. फाउंडेशन की ओर से ‘राष्ट्र भूषण’ सम्मान और १९९९ में मरणोपरान्त भारत सरकार द्वारा देश का सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ प्रदान किया गया है।

‘लोकनायक’ जय प्रकाश नारायण आज भी अपनी “सम्पूर्ण क्रांति” तथा उनकी स्मृति में बनाए गए संस्थानों, जैसे – जयप्रकाश नारायण विश्वविद्यालय, छपरा, (बिहार), जय प्रकाश नारायण अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा, पटना, लोकनायक जय प्रकाश नारायण राष्ट्रीय अपराध शास्त्र एवं विधि-विज्ञान संस्थान, (नयी दिल्ली) आदि के साथ हम भारतीयों के हृदय में सदैव जीवित हैं और जीवित रहेंगे।

‘लोकनायक’ जय प्रकाश जयंती, ११ अक्टूबर, २०२३

RP Sharma
श्रीराम पुकार शर्मा, लेखक

श्रीराम पुकार शर्मा
ई-मेल सम्पर्क – rampukar17@gmail.com

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