मसला पहाड़ों से विस्थापन का

अर्जुन तितौरिया खटीक, गाजियाबाद। राजू भाई पहुंच गए क्या हम बारात में? मैंने यह प्रश्न राजू रावत से किया। राजू ने बोला नहीं अभी तो हम बस पहाड़ी से नीचे ही उतरे हैं, और एक घंटा लगेगा कम से कम। रास्ते भर में कार की खिड़की से टकटकी लगाए उस पहाड़ी से नीचे उतरते हुए पहाड़ियों पर बसे कुछ छोटे-छोटे गांव किसी-किसी पहाड़ी पर इक्का दुक्का पुराने पहाड़ी संस्कृति में रंगे मकान देख रहा था, सब कुछ अद्भुत लग रहा था। पहाड़ी रास्ते में पड़ने वाले बाजारों से होते हुए हम गुजर रहे थे वहां कुछ मकान जो मुझे खाली दिखाई दे रहे थे इसी विषय पर मैने मेरे साथ बैठे अन्य पहाड़ी मित्र संदीप पंत से बात की। संदीप ये मकान खाली क्यों हैं?

कुछ तो पहाड़ी पर बसे पूरे-पूरे गांव खाली दिखाई पड़ रहे हैं ऐसा क्यों?
संदीप। भाई यही तो हम पहाड़ी उत्तराखंड वासियों की दिक्कत है। यहां रोजगार पर्याप्त नहीं हैं, संसाधन बहुत कम मात्रा में है। यहां आधे से अधिक लोग या तो मजदूरी या फिर छोटे व्यवसाय आदि से ही जीवन यापन करते हैं, कुछ लोग सरकारी नौकरी में हैं। ये जो मकान हैं ये गवाह हैं अपनी पुरातन पहाड़ी संस्कृति को कुछ वृद्ध माता, पिता, दादा, दादी यहां रहते हैं वो इस संस्कृति को आज भी संजोए हुए हैं।

मुझे जीवन जितना सरल दूर से दिखाई दिया था यह पहाड़ी जीवन उससे कई गुणा अधिक दुर्गमता से भरा था। इसी चर्चा में एक घंटा कब गुजर गया पता नहीं चला। ड्राइवर चाचा ने “बोला लो बई दगड़यों बारात पहुंच गई गांव मा”। बारात की कार गांव के बाहर एक छोटी सी पहाड़ी के घूमावदार रास्ते से ऊपर बड़ी पहाड़ी पर जाकर रुकी। सामने गांव कुछ नए कुछ पुराने मकान यहां भी मौजूद थे। गाड़ी से उतरे तो सामने पहाड़ी पर ही एक लड़की बकरियां चरा रही थी और हाथ में लिए थी एक छोटा सा डंडा वो शायद बकरियां हांकने के लिए उसने हाथ में लिया हुआ था।

मुझे थोड़ी तलब थी सिगरेट की सो इस आशा में लड़की से दुकान पूछा अरे लड़की कोई दुकान है आसपास? लड़की अपनी गढ़वाली भाषा में बोली जो मुझे बहुत कम समझ आई, किंतु संदीप और राजू समझ गए दोनो मुझसे बोले- बोल रही है “आगे पहाड़ी के ऊपर जो रास्ता जा रहा है उसके आगे से ऊपर वाले गांव में है”। मैने कहा चलें फिर तो राजू बोला “ठहरो यार अभी बारात का स्वागत होना है फिर कुछ खा-पी कर आगे चलते हैं”।

मुझे तलब अधिक लगी थी तो मैने बोला “इसको खाना ठूस लेने दे यार हम दोनो चलते हैं”। ना चाहते हुए भी वो हमारे साथ आगे बाजार चलने के लिए तैयार हुआ। लगभग 15 मिनिट में हम बाजार पहुंच गए थे। रास्ते में बहुत से मकान इस गढ़वाली पहाड़ी संस्कृति को संजोए हुए अपनी रंगत खोते जा रहे थे कुछ मकान जीर्ण-शीर्ण अवस्था में थे, तो कुछ मकान अपनों की राह तकते-तकते हर कदम टूट चुके थे।

अब मेरी उत्सुकता और दुख अपने चरम पर थी कि ऐसा क्या हुआ होगा की घर के बूढ़े बुजुर्गो को छोड़ कर लोग माइग्रेट होने को मजबूर हुए होंगे? आखिर इतनी क्या मजबूरी थी की पहाड़ के सुंदर जीवन को छोड़ वो लोग जो जमीन प्रकृति प्रेमी हैं वो इस सुंदर स्वर्ग को छोड़ भारत के अलग-अलग शहरों में बस गए? आखिर ऐसा क्या है उस शहरी जीवन की भाग दौड़ में की इन्होंने अपनी जमीन-जंगल घर छोड़ के यहां से भारत के अन्य राज्यों में चले गए?

अभी मैं सोच ही रहा था की सिगरेट पूरी खत्म हो चुकी थी और उसकी आग मेरी उंगली जला रही थी। हाथ को झटकते हुए मैंने सिगरेट को फेंका। अधिक तो नहीं किंतु इतना अवश्य समझ गया था की पापी पेट और घर की जिम्मेदारियों ने यहां के स्थानीय लोगो को यहां से माईग्रेट होने के लिए बाध्य किया किंतु क्या ये सभी सवाल और इसके आधे-अधूरे जवाब यहां समाप्त होते हैं? नहीं यह सब यहीं समाप्त नहीं होते हैं क्योंकि अब तक की केंद्रीय सरकारें अथवा राज्य सरकारें यहां पर साधन, संसाधन उपलब्ध नहीं करा पाई, क्यों यहां उधोग धंधो को बढ़ावा नहीं दिया गया।

अब बाजार से हम लोग वापस जनवासे में पहुंच चुके थे, जहां पर एक चार कॉलम वाला एक डीजे लगा हुआ था। पास में ही खाना चल रहा था हम भी थोड़ा नाचगाने का आनंद ले उसके बाद खाना खा कर दूल्हे के पास गए। वहां से थोड़ा सा समय हुआ उसके बाद दुल्हन पक्ष से कुछ लोग आए, बोले फेरा का समय हो गया है वहां से हम सीधे लड़की पक्ष के घर पहुंचे। बहुत सुंदर सा मंडप सजा था दुल्हन पक्ष की ओर से अच्छी खासी भीड़ जमा थी।

तभी मेरी नजर दूसरी तरफ नृत्य करते कुछ लोगो पर पड़ी। गढ़वाली पूरी तरह समझ ना आने के कारण वह गीत समझ तो नहीं आया किंतु गाने वाले की कर्कश आवाज और नाचने वाली की भाव भंगिमाएं नाचने का अंदाज पूर्ण सांस्कृतिक एवम वीर रस जैसा था। पूर्णतः अपनी पहाड़ी संस्कृति को संजोए वो लोग एक दूसरे की पीठ के पीछे से हाथ पकड़े हुए एक गोल घेरा बना कर घूम-घूम कर नाच रहे थे। अब इस गीत को हिंदी में समझने की जिज्ञासा जाग उठी मैने संदीप से प्रश्न किया “ये क्या गा रहे हैं और इसको क्या बोलते हैं”?

संदीप- भाई यह गीत हमारी पहाड़ी संस्कृति का हिस्सा है यह वीररस ही है यह महाभारत का युद्ध कांड गा रहे हैं जिसमें भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को श्रीमद्भागवत गीता का ज्ञान दे धर्म अधर्म बता रहे हैं ओर अर्जुन को युद्ध करने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। बड़ा अनुपम अद्भुत सुंदर नृत्य था गाने वाले की आयु लभभग 75 वर्ष थी किंतु आवाज आज भी उत्कृष्ठ एवं कर्कश थी साथ में मधुर गायन एक अलग ही कला थी दादा जी की। नृत्य देख शादी में कुछ आनंद तो लिया किंतु वहां से बहुत से प्रश्न खुद अपने अंदर लेकर चला आया जिनका जवाब मुझे आज भी कचोटता है।

अर्जुन तितौरिया खटीक

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