“राष्ट्र, मानवता सर्वोपरि” सेवा करने के लिए पद होना जरूरी तो नहीं? डॉ. विक्रम

नई दिल्ली। जो भी चीज आपके पास है, उसे आज ही से राष्ट्र को देना शुरू कीजिए। अगर आपके पास मुस्कान के सिवा कुछ नहीं तो हर किसी से मुस्कराकर ही मिल लें चाहे जो हो, देने को आदत बनाएं, क्योंकि इससे मानवता, राष्ट्र मजबूत होती है। जरूरी तो नहीं कि जब कलेक्टर बन जाओ तभी देश सेवा करोगे, सप्ताह में ही एक घंटा वंचित तबकों के जीवन में रोशनी लाने के लिए दे सकते हो? पिछले 15 वर्षों से मैं स्लम बस्तियों में रोशनी लाने के लिए बिना किसी संस्था, पद के लगातार रोशनी लाने का प्रयास करते रहा हूं। ऐसा देश का हर एक युवा कर सकता है जिससे राष्ट्र को विश्व गुरु बनने में और अधिक मजबूती मिलने लगेगी।

यदि दिल से बोले तो देश सेवा के लिए विधायक, सांसद, मंत्री या कलेक्टर बनना कोई जरूरी नहीं है, गांधी जी से लेकर सुभाषचंद्र बोस जैसे ही बहुत से देश के सच्चे सपूत को देख सकते हो। आप अपना राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास ही देख लीजिए बहुत लोगों ने बिना किसी पद और लाभ के ही जान जोखिम में डालकर निःस्वार्थ भाव से अपने समाज व राष्ट्र का सेवा किए आजादी के बाद भी इनमें से अधिकांश ने कभी भी पद व लाभ की इच्छा व्यक्त की नहीं, तो फिर आज ऐसी क्या बात हो गई है कि बिना मुखिया, कलेक्टर, विधायक, सांसद व मंत्री बने हम देश की सेवा नहीं कर सकते?

आखिर पीड़ितों के साथ मिलकर कलम व सत्याग्रह की ताकत व संघर्ष के बल पर हम आप शोषितों, आम जनता व समाज की भलाई क्यों नहीं कर सकते? बड़ी अफसोस व चिंता की ही बात है कि पहले की तरह अब राजनीति सेवा नहीं रहा बल्कि अब व्यवसाय का रूप लेने लगा है। किसी तरह किसी भी मजबूत पार्टी का टिकट पाओ फिर पूंजी लगाओ येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीतो फिर पांच साल सपरिवार ऐश करो जनता की पैसा से देश व विदेश भ्रमण करो।

अब अधिकांश नेतागिरी अपने फ़ायदे के लिए ज्यादातर लोग करते हैं, समाज सेवा जनसेवा हेतु बहुत कम, नहीं के बराबर! यही कारण है कि आम जनता के दिलों में आज के नेताओं, अधिकारियों के प्रति अब वैसा आदर सम्मान श्रद्धा का भाव नहीं रहा जैसा होना चाहिए या जैसा पहले था। इनके प्रति जनता में आदर सम्मान का भाव अब सिर्फ औपचारिकता मात्र रह गया है जबकि पहले के नेताओं, जनप्रतिनिधियों के प्रति लोगों में अपार आदर सम्मान और श्रद्धा का भाव था।

उनका एक झलक पाने के लिए उनकी सभाओं में श्रद्धावश लोग दूर-दूर से आते थे और उनके संभाषणों संवादों को सुनने के लिए भीड़ टूट पड़ती थी। आज के नेताओं, राजनेताओं की सभाओं में तो आमतौर पर प्रायः उन्हीं के पार्टी से संबंधित कार्यकर्ता, नेतागण, कुछ भाड़े पर बुलाए लोग और अन्य कुछ भीड़ देखने वाले उत्साही लोग ही अब ज्यादा दिखाई देते हैं। आम लोगों की उपस्थिति और अभिरूचि तो ऐसी सभाओं में बहुत कम ही देखने को मिलती है।

अब तो नेताओं का नाम सुनते ही अधिकांश लोगों की नाक, भौं तन जाता है, सिकुड़ जाता है और इनके मन में उन तथाकथित महानुभावों के प्रति एक उपेक्षा व असम्मान का भाव दृष्टिगोचर होता है जिन्हें स्पष्ट रूप से देखा व महसूस किया जा सकता है। यह भी कि पहले के नेताओं के संभाषणों संवादों में सच्चाई और भाषा की मर्यादा झलकती थी किन्तु अब के नेताओं के भाषणों संवादों में इसका लगभग लोप हो चुका है इसका स्थान अब बेबुनियादी आरोप-प्रत्यारोप, आलोचना-प्रत्यालोचना और आधा सच, आधा झूठ ने ले लिया है।

यही कारण कि आजकल के अच्छे, ईमानदार बुद्धिजीवी व मेहनतकश लोग व हम जैसे समाज की पढ़ी-लिखी युवा पीढ़ी आज की प्रदूषित राजनीति से दूरी बनाते जा रहे हैं जो एक स्वस्थ व समृद्ध राष्ट्र निर्माण के लिए अच्छी बात नहीं है बल्कि एक गंभीर चिंता का विषय है। एक स्वच्छ व मर्यादित राजनीति समृद्ध राष्ट्र के नवनिर्माण की दिशा में देश के सभी लोगों द्वारा गंभीर चिंतन-मनन की आवश्यकता है।

डॉ. विक्रम चौरसिया
चिंतक/आईएएस मेंटर/सोशल एक्टिविस्ट/दिल्ली विश्वविद्यालय

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