अंतःकरण शुद्ध हो तभी मिलती है “दीक्षा”

सुजाता चौधरी, इंदौर (मध्य प्रदेश)। “दीक्षा” का तात्पर्य यही हैं, कि गुरु के पास तपस्या का जो विशेष अंश हैं, जो आध्यात्मिक पूँजी हैं, उसे वे अपने नेत्रों के माध्यम से शक्तिपात क्रिया द्वारा, शिष्य को दैहिक, भौतिक, आध्यात्मिक आवश्यकतानुसार उसके हृदय में उतार सकें। जब हमारा अंतःकरण (मन) शुद्ध हो जाता है तब दीक्षा मिलती है। शुद्ध का मतलब जब अंतःकरण (मन) एक भोले भाले बच्चे की तरह हो जाता है।

वह बच्चा न तो किसी के बारे में बुरा सोचता है न तो किसी के बारे में अच्छा सोचता है, अर्थात संसार से उस बच्चे का मन ना तो राग (प्रेम) करता है और ना तो द्वेष (दुश्मनी) करता है। जब किसी व्यक्ति का अंतःकरण भगवान में मन लगाकर, इस अवस्था पर पहुँच जाता है। तब वास्तविक गुरु आपके अंतःकरण को दिव्य बनाते हैं। तब वास्तविक गुरु अथवा संत अथवा महापुरुष आपको गुरु मंत्र या दीक्षा देते है।

बिना गुरु दीक्षा के बिना गुरु सेवा समर्पण और मार्गदर्शन के साधनाओं में सफलता अथवा सिद्धियां प्राप्त नहीं की जा सकती किसी भी मंत्र साधना के माध्यम से देवी देवताओं की कृपा और उनके आशीर्वाद से अपने भौतिक जीवन की समस्या का समाधान करना अथवा मंत्रों की शक्ति के माध्यम से अपने जीवन में तेजस्विता प्राप्त करना अलग बात है और सिद्धि प्राप्त करना अलग बात, सिद्धि प्राप्त करने के लिए उस सिद्ध गुरु से दीक्षित होना अथवा मार्गदर्शन प्राप्त करना अति आवश्यक है।

कहा भी गया है- ईश्वर की ओर आप एक कदम बढ़ाते हैं तो ईश्वर आपकी ओर दस कदम बढ़ाते हैं लेकिन साधना के प्रारंभ में यह बात कई लोगों को अविश्वसनीय लगती है। हमारे भीतर मजबूत धैर्य की जरूरत पड़ती है। ऋषि-मुनियों ने कहा है- किसी गुरु की शरण में जाओ। दीक्षा को अमृत संचार भी कहते हैं। यह हमारे मन को पवित्रतम और उच्चतर स्तर तक ले जाती है, जहां साधक ईश्वर रूपी अमृत का पान करता है।

लेकिन कई साधक दीक्षा लेकर भूल जाते हैं कि उन्हें कोई साधना भी करनी है। उन्हें याद भी रहता है तो आलस्य के कारण वे दीक्षा के नियमों का पालन नहीं करते। दिन पर दिन बीतते जाते हैं और एक दिन उनका अंतिम समय आ जाता है। तब उन्हें एक मानसिक झटका लगता है कि साधना तो हुई ही नहीं और मृत्यु का समय आ गया। लेकिन अब पछताने का कोई अर्थ नहीं होता। जो बीत गई सो बात गई।

दीक्षा से अपूर्णता का नाश और आत्मा की शुद्धि होती है। गुरु का ईश्वर से साक्षात संबंध होता है। ऐसा गुरु जब अपनी आध्यात्मिक/प्राणिक ऊर्जा का कुछ अंश एक समर्पित शिष्य को हस्तांतरित करता है तो यह प्रक्रिया गुरु दीक्षा कहलाती है। यह आध्यात्मिक यात्रा की सबसे प्रारम्भिक सीढ़ी है।

दीक्षा के द्वारा शिष्य में यह सामर्थ्य उत्पन्न होता है कि गुरु से प्राप्त ऊर्जा के द्वारा शिष्य के अंदर आतंरिक ज्योति प्रज्ज्वलित होती है, जिसके प्रकाश में वह अपने अस्तित्व के उद्देश्य को देख पाने में सक्षम होता है। दीक्षा से अपूर्णता का नाश और आत्मा की शुद्धि होती है।

दीक्षा होता है क्या?? साधारण भाषा में कहें तो किसी गुरु की देख-रेख में एक साधना पद्धति को अपनाने का संकल्प दीक्षा है। गुरु अपने शिष्य को साधना के गहन सूत्र बता कर उसके मस्तिष्क और संपूर्ण तंत्रिका तंत्र को अध्यात्म प्रवाह के लिए खोल देते है।

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