रामनवमी के अवसर पर दंगे का दंश झेलता भारत

अशोक वर्मा, कोलकाता। भारत के इतिहास में दंगे के दंश को हमेशा से लोगों ने झेला है। यह उस समय के नफरत की आग है जब भारत आजाद नहीं हुआ था और बंटवारे का नीव जिन्ना ने रख दी थी। जिसके अनुयायी आज भी देश के दो-दो बंटवारे के बाद भी शांत नहीं हैं और पुनः एक साजिश के तहत् अपना मुहिम चलाए जा रहे हैं और इन्हें ईंधन देने का काम कुछ राजनैतिक पार्टियां कर रही है या करती रहती है। जब भी देश में कोई दंगा या दंगे जैसा माहौल तैयार होता है तो उसका सारा श्रेय धर्मनिरपेक्षता की झूठी वकालत करनें वाली पार्टियां आरएसएस, विश्वहिंदू परिषद, बजरंगदल या फिर भाजपा को दे देती है। इससे सही मायने में दंगा करनें वालों को एक रक्षा कवच मिल जाता है और वो आजाद घूमते हैं। भारत मे ऐसे भी बहुत सारे पैशाचिक प्रवृति के लोग हैं जो खाते तो भारत का हैं, सारा सुख भारत में भोगते है मगर उनका दिल पाकिस्तान के लिए धड़कता है। उस पाकिस्तान के लिए जो भारत की खात्मा का सोच रखते-रखते खुद खत्म होने के कगार पर आ गया है।

जिन्ना के पहले का एक समय था जब भारत में एक दूसरे के लिए एक श्रद्धा थी। लोग कहा करते थे की राम सबके शरीर में रमण करते है और खुदा खुद में है यानि सब में है अर्थात कुल मिलाकर दोनों का एक ही स्वरूप है। जिसे गांधी ने भी स्वीकार किया और गाया की ईश्वर अल्लाह तेरो नाम सबको सम्मति दो भगवान। किंतु आज के तथाकथित छद्मवेशी अपनें स्वार्थ में इतना लीन हो गए है की उन्हें राम से भी नफरत होने लगी है। इसमें केवल एक विशेष वर्ग के लोग ही नहीं है। इस में वो तमाम आसुरी शक्ति वाले लोग भी है जो अपनें आप को तो सनातनी मानते है मगर राम और रामचरित मानस का दहन कर उनके होने या ना होने पर भी प्रश्नवाचक खड़ा करते है। इनका उद्देश्य महज अपना स्वार्थ सिद्ध करना है। इन्हें यह पता है की भारत में ज्यादातर लोग भेड़ चाल चलते है। जिन्हें सही गलत से मतलब नहीं होता। वो केवल जाति, धर्म, धोखा, छलावा को भी सही ठहरा कर अपनें मत के अधिकार का प्रयोग करते है और ये छद्मवेशी उनके बल पर अपना राज स्थापित करते है।

अशोक वर्मा “हमदर्द”, लेखक

एक तरफ जहां भारत एक शक्तिशाली देश के रूप में अपना स्थान बना रहा है वहीं इस देश के किए पर पानी फेरने का काम ये देश के गद्दार कर रहे है। भारत दुनियां का एकलौता ऐसा देश है जो सांप्रदायिकता की वजह से विभाजित हुआ और उसकी नीव देश में पहले सांप्रदायिक बड़े दंगे के रूप में 1893 में मुंबई में रखी गई। जिसमें करीब सौ लोग मारे गए थे और 800 घायल हुए थे फिर भी ये शांत नहीं हुए और देश की हालत 1921 से 1940 तक विषम रहा। उस समय तक आरएसएस, विश्वहिंदू परिषद, बजरंगदल या भाजपा का कोई अस्तित्व नहीं था जिसे लांक्षणित किया जाता। आज भी महाराष्ट्र में हमेशा किसी न किसी प्रकार दंगा का प्रयास रहता है। ठीक उसी तरह 1926 में कोलकाता में मुहर्रम के दौरान दंगे हुए थे जिसमें 28 लोग मारे गए थे उस समय आरएसएस के स्थापना के महज़ एक साल हुए थे जिसकी कोई पहचान नहीं थी। देश के स्वाधीनता के बाद 1946 में बंगाल के नोआखाली और बिहार के कुछ हिस्सों में दंगे हुए जिसमे बिहार और बंगाल के लोग प्रभावित हुए थे जिसमे ज्यादातर लोग बहुसंख्यक समाज के थे।

अभी यह आग शांत भी नही हुआ था की अहमदाबाद में 1969 में दंगे हुए जिसमें करीब एक हजार लोग मारे गए। 1979 में जमशेदपुर और अलीगढ़ को भी इस दंगे की चपेट में ले लिया गया। 1980 में मुरादाबाद और 1984 में सिख दंगे हुए जिसमें लगभग 2,700 लोग मारे गए। 1987 में मेरठ में दंगे हुए जो दो महीने तक चले और 1989 में भागलपुर दंगा का सिलसिला 1990 तक चला जिसमें एक हजार लोगों ने अपनी जान गवाई। 1992 में दिसंबर से जनवरी तक पुराने राममंदिर (तथाकथित बाबरी मस्जिद) के ध्वस्त हो जाने के बाद देश में काफी दंगे हुए जिसमें 1,788 लोग मारे गए और गुजरात में 27 फरवरी 2002 को अयोध्या से लौट रहे 58 साधु संतों को ट्रेन की बोगी में जलाकर मार डाला गया और इस वीभत्स मौत के बाद प्रतिक्रिया स्वरूप गुजरात में जो दंगे हुए उसमे सैकड़ों लोगों की जान चली गई। पूरे दंगों पर नजर डाला जाय तो ये वही क्षेत्र होते हैं जो मुस्लिम बहुल होते है और लांछित बहुसंख्यक होते हैं जो आत्म चिंतन का विषय है।

पश्चिम बंगाल के उन तमाम क्षेत्रों पर नजर डाला जाय की रामनवमी के शोभा यात्रा के समय किसके द्वारा ये पत्थरबाजी की पहल की गई। क्या वसुधैव कुटुंबकम् की मंत्र जप करने वाले का स्तर इतना गिर गया की वो रामनवमी के अवसर पर अपनें प्रभु राम के जन्म दिवस पर दंगा करेंगे!कदापि नहीं क्योंकि इनके मूल में ही शांति है जो सबके मंगल कामना का उद्घोष करती है। मेरा मानना है की दंगो के टहनी को छाटनें से कुछ नही होगा। इस दंगे और दंगाइयों के समूल को कानून के द्वारा खत्म करना होगा।यदि हम दोषी प्रशासन और राजनीति के कुछ रहनुमाओं को कठोर दण्ड दे सके तो शायद भविष्य में कोई दंगा न हो। साथ ही साथ यह देखा गया है की दंगों में जो मोहरा बनते है या तो वो मजदूर वर्ग के लोग होते है या आर्थिक रूप से अति पिछड़ा या फिर उनके अबोध बच्चे जिन्हें धर्म की वाहियात शिक्षा देकर कट्टर बनाया जाता है और ये मरने मारने पर उतारू हो जाते है।

किंतु आश्चर्य इस बात की होती है की इनके आका के बच्चे कभी इस दंगे की भूमि से जुड़े नही होते। उन्हें वीवीआइपी सरीखे सुख भोगने होते है और प्रशासन ने अपना काम सही रूप से किया तो ये पकड़े जाते है और इनकी जिंदगी नारकीय बन जाती है।मेरा मानना है की यदि किसी से लड़ना है तो कलम की वार से युद्ध करो और समाज में क्रांति लाओ जैसे भीमराव अंबेडकर, ज्योतिबा फुले सरीखे तमाम लोगों ने लाया था। दंगे से किसी का हित नही होता अपितु समाज टूटता है जो देश हित में नहीं होता। दंगे की आग में गरीब निरीह लोग मरते है और इसका शिकार होते है। सबसे बड़ी बात है की इतने बड़े आबादी वाले उत्तर प्रदेश में रामनवमी के अवसर पर एक भी दंगा नही हुआ है। इससे साबित होता है की दंगे अगर राज्य सरकार चाहें तो किसी राज्य में न हो, यूपी इसका उदाहरण है। रही बात नियत और नियति की तो घड़ी की सुई अपने आप को दोहराती है। आप जैसा करोगे आपको वैसा ही भुगतना पड़ेगा चाहे वो आपका परिवार हो या फिर आपका देश। उदाहरण पाकिस्तान है जो आज दाने-दाने को तरस रहा है। आत्म चिंतन का विषय है।

(स्पष्टीकरण : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी व व्यक्तिगत है। इस आलेख में दी गई सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई है।)

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