स्वतंत्रता दिवस विशेष : टंट्या भील भारत का गौरव

अशोक वर्मा “हमदर्द”, हुगली। भारत के शौर्य के इतिहास में कुछ ऐसे नाम भी है जिनके इतिहास को समाज से वंचित रखा गया, महज इसलिए की वो एक जनजाति समाज में जन्में व्यक्ति थे? यही कारण है की टंट्या भील का नाम इतिहास में उतना प्रमुखता से नहीं उभरा जितना कि अन्य स्वतंत्रता सेनानियों का और इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं, जिनमें से एक उनका जनजातीय समाज से होना भी है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान और बाद में भी, मुख्यधारा के इतिहास में जनजातीय योद्धाओं और उनके योगदान को अक्सर अनदेखा किया गया।

जनजातीय समाज हमेशा से भारतीय समाज का अभिन्न हिस्सा रहा है। उनके पास अपनी अनूठी संस्कृति, परंपराएं और जीवन शैली है। टंट्या भील जैसे योद्धाओं ने न केवल अपनी जनजाति बल्कि व्यापक समाज के अधिकारों और न्याय के लिए भी लड़ाई लड़ी। उनका संघर्ष ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खिलाफ था, जिसने सभी भारतीयों को समान रूप से प्रभावित किया। ब्रिटिश शासन के दौरान और स्वतंत्रता संग्राम के बाद भी, इतिहास लेखन में अक्सर उन नायकों पर जोर दिया गया जो मुख्यधारा के समाज से आते थे!

जनजातीय नायकों के योगदान को उस स्तर पर मान्यता नहीं मिली। यह उपेक्षा एक व्यापक समस्या का हिस्सा है, जिसमें समाज के हाशिए पर खड़े लोगों के संघर्षों को पर्याप्त स्थान नहीं दिया गया। हालांकि, हाल के वर्षों में टंट्या भील और अन्य जनजातीय नायकों के योगदान को मान्यता देने के प्रयास किए गए हैं। उनके जीवन और संघर्षों पर कई अध्ययन और शोध कार्य किए जा रहे हैं और सरकारें और समाजिक संगठनों द्वारा उनके सम्मान में विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं।

टंट्या भील का योगदान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अत्यंत महत्वपूर्ण था और उन्हें उस सम्मान और पहचान की आवश्यकता है जिसके वे हकदार हैं। उनकी वीरता और संघर्ष हमें यह सिखाते हैं कि स्वतंत्रता और न्याय के लिए लड़ाई किसी भी समाज, समुदाय या वर्ग तक सीमित नहीं होती, बल्कि यह एक व्यापक मानव संघर्ष है। टंट्या भील (1842-1889) का नाम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में वीरता और साहस के प्रतीक के रूप में जाना जाता है।

मध्यप्रदेश के निमाड़ क्षेत्र में जन्मे टंट्या भील एक ऐसे आदिवासी योद्धा थे, जिन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ संघर्ष किया और अपने लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिए जीवनभर लड़ते रहे। उन्हें “भारत का रॉबिन हुड” भी कहा जाता है क्योंकि उन्होंने अमीरों से लूटकर गरीबों और जरूरतमंदों की सहायता की।

टंट्या का जन्म निमाड़ क्षेत्र के खजुरिया गांव में एक भील आदिवासी परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम भीखु और माता का नाम गंगा था। टंट्या का पूरा नाम टंट्या नायक था, लेकिन वे टंट्या भील के नाम से प्रसिद्ध हुए। उन्होंने बचपन से ही अपने समुदाय के दुख-दर्द और अंग्रेजों की क्रूरता को देखा और महसूस किया, जिसने उनके अंदर विद्रोह की भावना जागृत की।

टंट्या भील का संघर्ष 1857 की क्रांति के बाद शुरू हुआ। उस समय भारतीय समाज ब्रिटिश हुकूमत के अत्याचारों से पीड़ित था। अंग्रेजों द्वारा लगाई गई कड़ी कर नीति और अन्यायपूर्ण कानूनों से परेशान होकर टंट्या ने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत करने का निर्णय लिया। उन्होंने अपने समुदाय के लोगों को संगठित किया और अंग्रेजों के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध शुरू किया।टंट्या भील ने अपनी रणनीति के तहत अंग्रेजों के सरकारी खजानों और धनी व्यापारियों को निशाना बनाया। वे अपने लोगों के साथ जंगलों और पहाड़ियों में छिपकर अंग्रेजों पर अचानक हमले करते थे।

टंट्या भील ने अमीरों से लूटी हुई संपत्ति को गरीबों और जरूरतमंदों में बांट दिया, जिसके कारण उन्हें जनता का अपार समर्थन मिला। अंग्रेजी हुकूमत ने टंट्या भील को पकड़ने के लिए कई प्रयास किए, लेकिन वे लंबे समय तक सफल नहीं हो पाए, अंततः 1889 में टंट्या को उनके ही एक विश्वासघाती साथी ने धोखा देकर अंग्रेजों के हवाले कर दिया। अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार करके जबलपुर की जेल में बंद कर दिया और बाद में उन्हें फांसी की सजा दी गई। टंट्या भील की वीरता और बलिदान ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा दी।

अशोक वर्मा “हमदर्द”, लेखक /कवि

उनके संघर्ष और त्याग ने आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित किया। आज भी मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र के कई क्षेत्रों में टंट्या भील की याद में मेले और त्योहार आयोजित किए जाते हैं। उनकी कहानी हमारे स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है और उनकी वीरता को सदा याद किया जाएगा। टंट्या भील का जीवन संघर्ष और साहस की मिसाल है। उन्होंने अपने लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी। उनकी कहानी हमें यह सिखाती है कि सच्चे नायक वे होते हैं जो अपने स्वार्थ से ऊपर उठकर समाज और देश के लिए लड़ते हैं।

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