इहे सवनवा में

श्रीराम पुकार शर्मा

ज्येष्ठ-आषाढ़ के तपिस दिवस और उमस भरी रात्रि की बेचैनी के उपरांत श्रावणी शीतल फुहार से सम्पूर्ण वातावरण ही जलयुक्त कीचड़ की सोंधी सड़ाइन महक से परिपूर्ण हो उठता है। फिर यह सड़ाइन सोंधी महक पवन की गति को थामें सम्पूर्ण वातावरण में ही सावन के आगमन की सूचना को प्रसारित करने के लिए चंचल बालिका सदृश भागम-भाग करने लगती है। एक ओर रिमझिम फुहारों के बीच आकाश में एक छोर से दूसरे छोर तक ताने सतरंगी रामधनुख (इंद्रघनुष) का दिव्य दर्शन होता है, तो और दूसरी ओर धरती पर विविध सप्तरंगी मानवीय संस्कृतियों का अनोखा प्रदर्शन। धरती भी पिय के आगमन का संकेत पाकर हरीतिमा युक्त गर्वित परिधान धारण कर लहर-लहर कर पवन हिंडोला पर पेंग मारने लगती है।

जहाँ-तहाँ धवल रजत वर्णी गर्वित जलकुण्ड व जलधाराएँ तथा पवन-वेग के हिंडोले पर इतराते कदम्ब, गुलर, अनार आदि के फूल-फल धरती के हरित-पट पर विविध स्वरूपीय रंग-बिरंगे बूटों को आभासित करते हैं। प्रफुल्लित श्रृंगारित धरती की पिय-मिलन की आतुरता मोर, दादुर, कोयल की सम्मिलित सरगम में चतुर्दिक अभिव्यक्त होने लगती है। ऐसे में आसमान में उमड़ते घने कजरारे मेघ भी अपने मल्हार राग से सभी जीव-जन्तु व पादप-पुंज को हर्षित कर झुमाने लगते हैं।

काले-अंधियारे दिन में रह-रह कर चमक-दमक कर बिजली उस आगत प्रियतम के स्वागत में हर्षित अपनी चंचलता को प्रदर्शित करने लगती हैं और अनंत के कजरारे घन धरती की नव हरित परिधान को अपने प्रभाव से श्यामल-मलिन और आर्द्र कर गर्व महसूस करते हैं। पर ऐसे में बेचारी रूपसी धरित्री को तो अपनी जग हंसाई की चिंता तो बढ़ ही जाती है।
सावन में गोरी, जल अम्बर से गोरी,
भीगे बदन, तन लिपटे वसन, माने न लाख जतन गोरी।
बेदर्दी तू बालम, मानें न बतिया, जग में होई हँसाई मोरी। इन्द्रपुरी की रमणीयता से प्रतिस्पर्धा करती श्रावणी प्रकृति के इस अद्भुत सौन्दर्य का आभास पाते ही इन्द्रलोक निवासी अशरीर ‘मदन’ को भी अपने आप पर नियन्त्रण नहीं रह जाता है I

फिर तो वे भी अति द्रुतगति से अपनी पत्नी ‘रति’ को अपने साथ लिये धरती पर आ धमकते हैं। शायद आगमन में विलम्बता का आभास उन्हें हो जाता है। अतः व्यर्थ में बिन समय गँवाए ‘मदन’ मधुमक्खियों के शहद की कोमल रसीली रज्जु से बंधित, मिठास से परिपूर्ण इक्षुः दण्ड से निर्मित अपने बंकिम काम-धनुष पर अशोक के महकते श्वेत पुष्पों के साथ, नीलवर्णी पंकज, नवमल्लिका (चमेली) और रसाल पुष्पों से निर्मित काम-बाणों को चतुर्दिक त्वरित गति से छोड़ने लगते हैं।

जिससे स्थूल से लेकर सुक्ष्मजीवी प्राणी दर प्राणी के हृदय विदीर्ण होने लगते हैं और वे अपने विदीर्ण हृदय पर अपने संगी-स्नेही के प्रेमालेप को लगा कर कुछ मानसिक आश्वस्त होना चाहते हैं I पर ‘मदन’ के वे कोमल पर हृदय विदारक काम-बाण सावन की फुहार रस में डूबे होने के कारण प्राणिमात्र को भेदते ही उनमें काम-तृष्णा जनित भयानक ज्वर उत्पन्न होने लगता है I जिससे वे तड़प-तड़प कर अपने संगी-स्नेही के मधुर प्रेमालिंगन के पाश में बद्ध कर कुछ मानसिक और आत्मीय शीतलता को पाना चाहते हैं।

‘मदन’ के ऐसे तीखे प्रेमासक्ति काम-बाण से भला कौन बच सकता है? हाँ स्मरण आया! वह हैं कालजयी ‘महाकालेश्वर’I समाधि में लीन ‘भोले कालेश्वर’ को समाधि से च्युत करने के लिए आम्र वृक्ष की ओट से ‘मदन’ ने उन पर पुष्पों द्वारा निर्मित काम-बाण चलाया था, जो भोले शंकर के हृदय में लगा, जिसकी व्यथा से उनकी समाधि टूट गई I क्रोधातुर भोले शिव ने अपने त्रिनेत्र की कोमल अग्नि श्रृंखला से ‘मदन’ को जला कर भस्म कर दिया था I यह तो उनकी पत्नी ‘रति’ की पतिव्रता उपासना का ही फल है कि ‘मदन’ अशरीर रहते हुए भी प्रभावशाली हैं I

त्रिलोक विख्यात शिव भक्त लंकेश ‘दशशीश’ ने अपने आराध्यदेव शिव जी की स्तुति करते हुए कहा है, –
‘ललाटचत्वरज्वलद धनंजयस्फुलिंगभानिपीतपंचसायकं नमन्निलिम्प नायकंI
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं महाकपालि संपदे शिरो जटालमस्तु नः II’ – ‘शिवतांडवस्तोत्रम’
श्रावणी वेगवती पवन के हिंडोले पर सवार ‘मदन’ को देख कर उसके सहायक पेड़ों की हरित शाखाएँ-प्रशाखाएँ एवं उसके कोमल पल्लव व पुष्प आदि सब के सब प्रफुल्लित नाचने और इठलाने लगते हैं। पर यह ‘श्रावण’ तो ‘मदन’ के गर्व के विनाशक भोले बाबा ‘शिव’ का माह माना जाता है, जिन्हें ‘त्रिलोक’ के समस्त सकरात्मक ऊर्जाओं का भी स्वामी माना जाता है।

अतः प्रातःकालीन शैशव सूर्य की अमल स्वर्णिम आभा में स्नात सम्पूर्ण प्रकृति ही ‘जय शिव शंकर’-‘हर हर महादेव’-‘जय भोले नाथ’, ‘बोल बम’आदि की ‘शंकरमय’ पावन धुनी से शिव का विशाल ‘शिवाला’ ही प्रतीत होती है। खेतों की हरीतिमा के मध्य कुछ गिले और कीचड़युक्त पगडंडियों पर गेरुए वेशधारी शंकर-भक्तों की पंक्ति आगे बढ़ती ही जाती है और उनके पीछे बहुत देर तक उनके ‘कांवड़’ की रुन-झुन की मधुर ध्वनि वातावारण में मधुरतम कर्णप्रिय संगीत को गूंजित करती रहती है। सचमुच श्रावण मास में मन भी तो शिव का ‘शिवाला’ ही बन जाता है।

‘मेरे प्रभु का यह धरती है शिवाला, मेरे मन को भी तू बना दे अपना शिवाला I
हे औघड़ दानी, हे महाकालेश्वर, तू ही जग के हर्ता, तूही है मेरे डमरूवाला II’
जहाँ-तहाँ जलकुण्डों में कुछ सप्ताह पूर्व तक के एकत्रित वर्षाकालीन मटमैले जल अब स्थिर होकर अपनी स्वच्छता युक्त पारदर्शी स्वरूप को धारण करने लगे हैं I अब तो उनमें थाल सदृश कमल के बड़े हरित पत्रक अपने ऊपर जल बिन्दु को मोती के समान भी चमकाने लगे हैं I फिर ये जलज उन जलकुण्डों में अपने श्वेत, पीताभ, लालिमायुक्त मधुर शिशु पुष्प कलियों को भी धारण कर लिये हैं I

ऐसे में ही कहीं दूर सावन की इस मधुर फुहार में भींगता किसी चन्द्रवंशी गोप अपने पशुओं को चराते खेत के किसी ऊँचे मेड़ पर खड़े होकर अपनी बाँसुरी पर राग मल्हार छेड़ता हुआ, किसी प्रकृति-प्रेमी कवि की कल्पना प्रतीत होता है। गाँव के पास ही कीचड़ युक्त मटमैले जलकुण्डों में छोटे-छोटे नंगे-अधनंगे बच्चें भागते-गिरते उसमें स्नात किसी चित्रकार के चित्रपट के विचित्र अंग बनते जा रहे हैं।

गाँव के ही छोटे-छोटे बाग़-बगीचों में आम, कदम्ब, महुआ या पीपल की शाखाओं से लटकते अगिनत झूलों पर गाँव की नववधुओं सहित ननद-भौजाइयों के शरीर से चिपके उनके आर्द्र पीताभ व हरित वसन, हाथों में मेहँदी और हरी चूड़ियाँ, कानों में झुमके, माथे पर मांग-टीका और उनके गौर तथा श्यामल चहरे से ढुलकते श्रावणी जल बूंद आदि उनके पारंपरिक श्रृंगार को और भी मनमोहक बनाती हैं I उन झूलों पर झूलती वाक् तथा आंगिक छेड़-छाड़ करती ग्रामीण बलाएँ और सुन्दरियाँ अपने सांसारिक संघर्षमय जीवन में भी हँसी-ख़ुशी के आवश्यक अमूल्य श्रावणी मधुररस को प्रकृति से जबरन छीन लेने का प्रयास करती हैं –
‘ओ ननद मोरी, …. सुन, ओ ननद मोरी।
लिखद पाती एक आपन भइया के नाम। ओ ननद मोरी …
इ सवनवा के बदरा बनल जी के जंजाल,
ओ ननद मोरी, ……. सुन ननद मोरी।
लिखद एक पाती आपन भइया के नाम।’

नवविवाहिता पहला सावन अपने मायके में ही अपनी सहेलियों के साथ ही मानना श्रेयकर मानती रही हैं I एक तो ससुराल पक्ष की बंदिशों के पिंजरे से पूर्णतः आजाद परिंदों की तरह ही मायके की स्वछन्दता में रहना और दूसरा अपने वैवाहिक जीवन संगी के साथ अपने लावण्यमय जीवन में आगत कुछ विशेष परिवर्तनों को उन्मुक्त भाव से अपनी सहेलियों के साथ ही साझा करने का विशेष मौका और आनंद जो उन्हें मिल जाते हैं I यहाँ पर भी उन्हें अपनी सहेलियों के मधुर छेड़-छाड़ का हार्दिक आनंद का अवसर प्राप्त होता है I फिर तरह-तरह के खट्टे-मीठे फलों और पकवानों का भी उन्मुक्त आनंद उन्हें अपने मायके में प्राप्त होते हैं I सर्वत्र दुलार ही दुलार, कोई बंदिश नहीं, भला किसका मन न चाहेगा?

फिर संध्या काल से ही देर रात तक गाँव-गाँव में कजरी के मधुर ढोल-थाप पर पुराने पेड़ों और कच्चे मकानों की धरानियों पर झुला लगा कर झूलती सुहागिन स्त्रियों की युगलबंदी के सम्मिलित मधुर स्वर दूर से मन को आंदोलित करने के लिए पर्याप्त होती हैं –
‘इ सावन मनभावन न भावे, पियु बिनु इ अंगनवा में,
कइसे रहल जाई पियु बिनु, ए ननदी इ सवनवा में, हो सवनवा में।’
जो बहन-बेटियाँ किसी करणवश मायके न लौट पायीं, तो उनके मायके से सावन तीज के अवसर पर पाहुर के रूप में ‘खुरमा-ठेकुवा’, ‘गाजा-
खाजा’, ‘कोथली-घेवर’, गुलगुले-मट्ठियाँ आदि उनके ससुराल अवश्य ही पहुँच जाते हैं I

फिर तो नवविवाहिता उन्हीं ‘पाहुर’ से अपने पति की
लम्बी उम्र के लिए ‘मधुश्रावणी’ व्रत का भी पालन करती हैं I और श्रावणी दिन के उजाले में दूर खेतों में घुटने भर पानी में धान की रोपाई करती हुई रोपनियों के कुछ पारम्परिक और कुछ वर्तमान की स्थिति को अपने में लपेटे सम्मिलित लयात्मक गीत भी कोई कम रोचक नहीं होते हैं। राह चलते राहगीरों के पैरों को जकड़ लेते हैं। उन्हें उठने ही नहीं देते हैं –

‘बैरन रेलिया पीया के लिए जाय रे, बैरन रेलिया I
– X –
‘पीया हो, अबकी न जाइब नैहरवा, इ सवनवा में,
संग करब हम रोपाई, खेतवा के धानवा, इ सवनवा में।’
ऐसे ही पारम्परिक सामूहिक गीत सम्पूर्ण ग्रामीण श्रावणी प्रकृति और परिवेश को ही सरगम के सुर-लय से आबद्ध कर कला-सांस्कृतिक के संगम के इन्द्रधनुषी रंगीन मंचीय स्वरुप प्रदान करते प्रतीत होते हैं।
पर वास्तव में ये सब तो श्रावणी पारम्परिक स्थितियाँ हैं। हलाकि मानवीय अप्राकृतिक क्रिया-कलापों का प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रभाव प्रकृति पर अब खूब दिखने लगा है, जिसका सबसे बड़ा दुष्प्रभाव जलवायु परिवर्तन के रूप में दिखाई दे रहा है।

अभी सावन का महीना प्रारम्भ ही हुआ है और कई क्षेत्र के लोग तथा पशु-पक्षी पानी के लिए तरस रहे हैं, जबकि कई क्षेत्र अतिवृष्टि के कारण जलप्लावन से अस्त-व्यस्त हो रहे हैं। समस्त प्राणी ही अपने प्राणों के रक्षार्थ त्राहिमाम-त्राहिमाम कर रहे हैं। इन प्राकृतिक जानलेवा विपदा में ‘मदन’ के काम-बाणों से कितने लोग और कितने प्राणी विदीर्ण हो सकते हैं? प्राकृतिक विपदाओं ने ‘मदन’ के काम-बाणों को भी भोथरा दिया है I
कृत्रिमता के आधार पर वर्ष भर लगभग एक-से ही प्रतीत होने वाले शहरी वातावरण की तो बात ही छोड़ दीजिए। आज ग्रामीण परिवेश में भी अब कितनों के पास पशु-सम्पदा है, जिसे कोई गोप चराने के लिए दूर खेतों या ‘मधुवनों’ में ले जाएगा?

गोप बेचारे तो अब रोजी-रोटी की तलाश में मुम्बई, कोलकता, दिल्ली, सूरत आदि जैसे शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं और फिर शहरों में वे ठिका-मजदूर बनते जा रहे हैं। पेट की ज्वाला के समक्ष श्रावणी मधुमास का भला क्या चल पायेगा? रोपनियों के गीतों की जगह खेतों में अब काले विषैले धुँआ छोड़ते असुरी ट्रैक्टर शक्तियों की ‘ठक-ठक-ठक’ की आवाज ही मोर, दादुर, पपीहों के साज बन रहे हैं।

सावन में भी गाँव के पेड़ों पर नववधुओं के झूलने के लिए अब कितने झूले लगते हैं? उन पर झूलने वाली नववधुएँ भी तो ससुराल आते ही मुँह दिखावन के बाद पिया संग शहर गमन कर रही हैं। ननद बेचारी जो ससुराल गईं कि उन्हें नैहर बुलाने वाले भाई-भइया तो खुद ही प्रवासी बने हुए हैं और नई गृह-स्वामिनी की इच्छा से और अनावश्यक अतिरिक्त खर्च के डर से अपने मुख को मोड़े हुए हैं।

फिर ननद-भौजाई के मध्य आत्मीयता भी कहाँ रह गई है? अगर ननद बड़ी है, तो उसे अपने सांसारिक जीवन की स्वतंत्रता में बाधक मान कर उससे दूरी कायम रखना ही नितांत आवश्यक है। और अगर ननद छोटी है, तो फिर वह तो घर की नौकरानी ‘लौड़ी’ मात्र ही है। स्नेह और आत्मीयता तो बस किसी और को ही सुनाने मात्र की कथा रह गई है I बहनें – बेटियाँ तो उस स्नेह और आत्मीयता के लिए निरंतर तरसते ही रहते हैं-
हे भउजी भईया से कहिह, हमर भईया से कहिह,
इ सवनवा में नइहरवा हमके बुलइहें, हे भउजी ।।

लेकिन कुछ रीति-रिवाज या परम्परा की ही बातें हो जाए, तो आज भी बचपन में छिप-छिप कर सुने स्त्रियों के वे सम्मिलित श्रावणी गीत कम से कम श्रावण माह में तो अवश्य ही मनस-पटल में स्मरण हो ही जाते हैं और कानों में गूँज उठते हैं I मन-मयूर को उसी बचपन की अबोधता के वातावरण में जबरन खिंच ले जाते हैं I

पर आज उसी को हम अपने बंद कमरे में टेलीविजन के सम्मुख या फिर स्नानघर में अपनी कमर तक गमछे को लपेटे पानी के फुहार के नीचे बैठ गुनगुना कर इस सावन मनभावन की उपस्थिति को आत्मसात् कर लेने का प्रयास मात्र ही कर पाते हैं –
‘इहे सवनवा में हो, इहे सवनवा में,
पहिला पहिल सुहागिन झुला लागल हे सखी अबकी मोरे नैहरवा में,
नन्हीं नन्हीं बरसा के बुन्दवा छेदेला करेजवा हे सखी इहे सवनवा में।’

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