मनीषा झा : हिंदी विश्व की तीसरी सबसे बड़ी भाषा होने के बावजूद हिंदी को अपने देश में ही सौतेले व्यवहार का सामना करना पड़ता है। जबकि स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भी देश को एक सूत्र में पिरोने में हिंदी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। इसी कारण नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने कहा था कि देश के बड़े भू-भाग में बोली जाने वाली हिंदी राष्ट्रभाषा की अधिकारिणी है। लेकिन आजादी के 75 साल बाद भी हिंदी राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं प्राप्त कर पायी।
सन् 1970 में देश के सर्वोच्च न्यायालय ने राजनेता राज नारायण की याचिका पर सुनवाई करने से इनकार कर दिया था क्योंकि वह बहस हिंदी में करना चाहते थे। तब से आज तक हिंदी के हक के लिए अनेक याचिकाएं दाखिल हुई, लेकिन सभी खारिज कर दी गई। अंग्रेजी की तरफदारी के प्रति सर्वोच्च न्यायालय संविधान के अनुच्छेद 348 का हवाला देता है, जिसमें न्यायालय की कार्यवाही की भाषा अंग्रेजी कही गयी है। यह कानून सर्वोच्च न्यायालय को अच्छे से रटा है, लेकिन राजभाषा अधिनियम 1976 उनकी समझ में नहीं आता है, जिसमें संहिताएं, नियमावलियां आदि अंग्रेजी और हिंदी दोनों भाषा में तैयार करने का प्रावधान है।
भारतेन्दु हरिशचंद्र के शब्दों मेः-
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को शूल।।
कहने का तात्पर्य यह है कि अपनी भाषा की उन्नति के बिना समाज की उन्नति संभव नहीं है। अपनी भाषा का ज्ञान न होने पर मन की पीड़ा भी दूर करना संभव नहीं है।
हमारे देश के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद ने कहा था कि जिस देश को अपनी भाषा और अपने साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता।
आचार्य बिनोबा भावे ने कहा था कि हिंदी को गंगा नहीं, समुद्र बनना होगा।
जापान और जर्मनी जैसे विकसित देश की उन्नति में उनकी राष्ट्रभाषा को योगदान अभूतपूर्व है। हमें उनसे सीख लेने की आवश्यकता है। फिर भी पिछले पांच- सात सालों में भारत के लोगों में हिंदी के प्रति बदलाव आया है, क्योंकि हमारे देश के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भी हिंदी में अपने विचार रखते हैं। जर्मनी, इंग्लैंड और अमेरिका जैसे देशों में संस्कृत और हिंदी भाषा की पढ़ाई विश्वविद्य़ालयों में कराती है। गूगल जैसे सर्च इंजिन भी हिंदी की महत्ता को समझ रहा है। खेल जगत भी हिंदी की कमेण्टरी आदि लगातार जोर दे रहा है। लेकिन दुविधा यह है कि हमारे देश के कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी हिंदी के साथ सौतेला व्यवहार करते हैं।जो नायक-नायिका हिंदी फिल्मों के कारण तरक्की की सीढ़ियां चढ़ते है वे भी अपना इंटरव्यू अंग्रेजी में देने लगते हैं, भले ही उनकी अंग्रेजी टूटी-फूटी क्यों न हो।
यदि हम सच में हिंदी को विश्व के सिंहासन पर विराजमान देखना चाहते हैं तो हिंदी के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार छोड़ना होगा। अपने बच्चों को हिंदी की महत्ता समझानी होगी, तभी आने वाली पीढ़ी भी हिंदी के महत्व को समझेगी। इसके लिए हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री से भी सीख लेने की आवश्यकता है जो राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर हिंदी में संवाद करते हैं और हिंदी की महत्ता पर जोर देते हैं।