श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा । भारतीय मिट्टी, जल, वायु, पादप व जीव के साथ ही यहाँ की सभ्यता, संस्कृति, आध्यात्म, दर्शन, भाषा, साहित्य आदि प्राचीन काल से ही विदेशियों को अपनी ओर आकर्षित करते रहे हैं। फलतः अपनी-अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति हेतु समयानुसार अनगिनत विदेशियों का हमारी पवित्र भारत-भूमि पर आगमन होते रहा है। कुछ ने अपनी क्रूरता से भारत-भूमि को आक्रांत किया, तो कुछेक सहृदय विदेशी भारत-भूमि को अपनी माता तुल्य मान कर अपने सत्कर्मों से भारत के कण-कण से अपना अटूट रिश्ता ही जोड़ लिया। ऐसे ही सम्मानित विदेशियों में से एक ‘बेल्जियम’ की धरती पर जन्मे और पालित-पोषित ‘फादर कामिल बुल्के’ रहे थे, जिन्होंने भारतीय सभ्यता, संस्कृति, धर्म, दर्शन, साहित्य और भाषा से प्रभावित होकर श्रीराम-कृष्ण की इस पावन भूमि के रजकण को अपने शीश पर धारण कर इसकी सेवा में ही अपने आप को सदा के लिए समर्पित कर अपने जीवन को सार्थक बनाया।
फादर कामिल बुल्के का जन्म बेल्जियम के फ्लैंडस के ‘रामस्कापले’ नामक गाँव में 1 सितंबर, 1909 को हुआ था, जहाँ ‘फ्लेमिश’ भाषा-भाषी के बहु लोग रहते थे, लेकिन उस दौरान बेल्जियम के शासक वर्ग ‘फ्रेंच’ भाषा का ही प्रयोग करते थे। ऐसे में उन्हें अपनी भाषा और संस्कृति की अस्मिता की रक्षा के लिए बहुत लड़ाइयाँ लड़नी पड़ी थी। कामिल बुलके ‘ल्यूवेन विश्वविद्यालय’ से सिविल इंजीनियरिंग में स्नातक थे, पर बाद में ईश्वरीय संकेत को प्राप्त कर उन्होंने 1930 में यीशु मसीह संबंधित ‘ईसाई’ धर्म समाज को स्वीकार कर लिया था। फिर 1932 में जर्मनी के ‘जेसुईट कॉलेज’ से उन्होंने दर्शनशास्त्र में एम.ए. किया और 1936 में वे ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए वर्तमान पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग में पहुँचे थे। ‘कर्सियोंग कॉलेज’ में उन्होंने ईशशास्त्र का अध्ययन कर पवित्र ‘पुरोहिताभिषेक संस्कार’ को ग्रहण कर वर्तमान झारखंड राज्य के ‘गुमला’ में पाँच वर्षों तक एक मिशनरी विद्यालय में गणित विषय का अध्यापन कार्य भी किया था।
जब फादर कामिल बुल्के भारत आए थे, तब वे ना तो हिन्दी या फिर कोई अन्य स्थानीय भाषा समझ सकते थे और ना ही बोल सकते थे। भारत पहुँचने पर उन्होंने पाया कि यहाँ के अधिकांश शिक्षित लोग अपनी समृद्ध भाषा को साधने के बजाय विदेशी भाषा अंग्रेजी बोलने में अधिक गर्व महसूस करते हैं और अंग्रेजी बोलने वालों को अधिक मान-सम्मान भी देते हैं। अधिकांश भारतीय अपनी ही समृद्ध परंपराओं से अंजान बने हुए हैं। जबकि अपने कुछ शिक्षित भारतीय मित्रों और स्वाध्ययन से वे भारतीय संस्कृति, सभ्यता, आध्यात्म, दर्शन, भाषा, साहित्य आदि की दिव्य गरिमा को समझ चुके थे। निर्धन और अशिक्षित हिंदुओं को छल-बल और लालच से ईसाई बनाने का काम उन्हें निरर्थक प्रतीत हुआ। अतः एक विदेशी होते हुए भी उन्होंने भारतीय भाषाओं और संस्कृति की अस्मिता की रक्षा हेतु अपनी कमर कस ली।
वैसे तो फादर कामिल बुल्के भारत में ईसाई धर्म-प्रचार के लिए भेजे गए थे। परंतु उन्होंने निश्चय किया कि भारत ही अब उनकी कर्मभूमि है। अतः भारत तथा भारतीय संस्कृति को और अधिक जानने तथा समझने के लिए उन्हें यहाँ की भाषा सीखनी व समझनी चाहिए। फिर गुमला में ही रहते तथा शिक्षण कर्म करते हुए उन्होंने 1938 में हजारीबाग जिला के सीतागढ़ के पंडित बदरीदत्त शास्त्री की सनिध्यता में संस्कृत, हिंदी, ब्रज व अवधी भाषा संबंधित पर्याप्त ज्ञान को अर्जित कर मात्र पाँच वर्षों में ही हिंदी सहित संस्कृत साहित्य पर अपनी मजबूत पकड़ बना ली थी। भारत की भाषाओं ने, खासकर हिंदी ने फादर कामिल बुल्के के मन को सम्मोहित किया। फिर हिन्दी को वह अपनी मातृ सदृश मानने लगे। तत्पश्चात उन्होंने अपना पूरा जीवन ही अपनी मातृ सदृश हिन्दी की सेवा के लिए समर्पित कर दिया।
फादर कामिल बुल्के “श्रीरामचरितमानस” कृतकार गोस्वामी तुलसीदास के जबरदस्त प्रशंसक थे। अतः समग्र तुलसीदास को पढ़ने और समझने के लिए उन्होंने अवधी और ब्रज भाषा की बारीकियों को आत्मसात किया। रामकव्य व कथा संबंधित विराट अध्ययन के बाद वे अपने आप को श्रीराम काव्य में ही पूर्णतः तल्लीन कर ‘श्रीराम कथावाचक’ भी बन गए। अतः बाद में वे ‘रामायण के प्रकांड पंडित’ भी कहलाने लगे। उन्होंने भगवान राम के विषय में लिखा – ‘राम बाल्मीकि कथा के मिथकीय पात्र नहीं हैं, बल्कि वे इतिहास पुरुष हैं, जिनकी व्याप्ति सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में है। उन्होंने कई उदाहरणों से साबित किया कि रामकथा केवल मात्र भारत तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह अंतर्राष्ट्रीय कथा है, जो वियतनाम से लेकर इंडोनेशिया तक फैली हुई है। ‘रामायण’ सिर्फ एक धार्मिक साहित्य ही नहीं है, बल्कि वह जीवन जीने के तरीके का एक बेहतरीन दस्तावेज भी है।’
वैसे भी फादर कामिल बुल्के अंग्रेजी, फ्रेंच समेत कई विदेशी भाषाओं के भी अच्छे जानकार थे। फिर भी भारत की शास्त्रीय भाषा में अभिरुचि होने के कारण इन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय (1942-44) से संस्कृत में मास्टर डिग्री प्राप्त की। फिर 1950 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अपना शोध प्रबंध ‘हिंदी’ में ही लिखा, जबकि उस समय तक देश के विश्व विद्यालयों में शोध प्रबंध का माध्यम केवल मात्र अंग्रेजी भाषा को ही बनाया जा सकता था। उनके लंबे संघर्ष के बाद विश्वविद्यालय को शोध के भाषागत अपने नियमों में आवश्यक बदलाव करना पड़ा था। 1950 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अपनी ‘पीएचडी’ के लिए उन्होंने अपना शोध प्रबंध अंग्रेजी के बजाय ‘हिंदी’ में ही लिखा था। उनके शोध का शीर्षक था ”राम कथा की उत्पत्ति और विकास”।
फादर कामिल बुल्के के भारतीय समाज और साहित्य संबंधित देशहित कार्यों को देखते हुए 1950 में ही उन्हें भारत की नागरिकता प्रदान की गई थी। इसके बाद से वह स्वयं अपने आप को न सिर्फ ‘भारतीय’, बल्कि ‘बिहारी’ सम्बोधन सुनना पसंद करते थे। उसके बाद राँची आए और वहाँ के ‘सेंट जेवियर्स कॉलेज’ में हिंदी और संस्कृत के विभागाध्यक्ष भी बनाए गए थे। फादर कामिल बुल्के ने ईसाई धर्म से संबंधित हिन्दी में कई ग्रंथों की रचना की थी और ‘बाइबिल’ का हिन्दी में अनुवाद भी किया था। वे अक्सर कहा करते थे कि भारतीयों के पास इतनी अच्छी समृद्ध अपनी भाषा हिंदी है। फिर उन्हें विदेशी भाषा अंग्रेजी पर अभिमान करने की आवश्यकता ही क्या है?
फादर कामिल बुल्के हिन्दी में छोटी-बड़ी कुल मिलाकर करीब 29 पुस्तकों की रचना की, जो उन्हें साहित्य के क्षेत्र में भी अमरत्व को प्रदान करती हैं। यथा – ‘रामकथा: उत्पत्ति और विकास’, ‘हिन्दी-अंग्रेजी लघुकोश’, ‘अंग्रेजी-हिंदी शब्दकोश’, ‘मुक्तिदाता’, ‘नया विधान’, ‘नीलपक्षी’ आदि हैं। साहित्य-शिक्षा तथा सामाजिक क्षेत्र में उनके योगदान को देखते हुए भारत सरकार द्वारा उन्हें सन् 1974 में ‘पद्म भूषण’ से सम्मानित किया गया था।
गैंगरीन रोग के की इलाज के लिए फादर कामिल बुल्के को दिल्ली के ‘एम्स’ अस्पताल में भर्ती किया गया, जहाँ 18 अगस्त, 1982 को इलाज के दौरान ही उनकी मृत्यु हो गयी। दिल्ली के ‘निकोल्सन कब्रिस्थान’ में ही उन्हें दफनाया गया था। परंतु 36 वर्ष बाद उनके पवित्र अवशेष को दिल्ली से 13 मार्च, 2018 को लाकर पहले राँची के ‘मनरेसा हॉउस’ में श्रद्धा-सम्मान के लिए रखा गया और अगले दिन ही 14 मार्च, 2018 को एक भव्य समारोह में उनकी कर्मभूमि ‘संत जेवियर कॉलेज’ (राँची) के सामने बने पुण्य-स्थल में श्रद्धापूर्वक स्थापित कर दिया गया। इस प्रकार बेल्जियम के फ्लैंडस के रामस्कापले गाँव में जन्मे फादर कामिल बुल्के अपनी कर्म-भूमि राँची में चिर निद्रित हुए, जो उनकी आखरी इच्छा भी थी। शायद देवों की इसी पावन भारत-भूमि में पुनर्जन्म हो और इस पावन भूमि तथा हिन्दी की सेवा करने का एक बार पुनराय सौभाग्य प्राप्त हो सके।
फादर कामिल बुल्के झारखंड की राजधानी राँची के अल्बर्ट चौक के पास में ही स्थित तीन कमरों वाला ‘मनरेसा हाऊस’ (अब फादर कामिल बुल्के हॉउस) में रहा करते थे। अध्ययन के प्रति उनका आजीवन गहरा लगाव रहा था। अक्सर वे अपनी पुरानी बेंत की बनी कुर्सी पर बैठकर पठन-पाठन किया करते थे। उनके चहरे से उनकी सफ़ेद लटकती दाढ़ी में भारतीय साधू-संतों, मनीषियों और दार्शनिकों की दिव्य आभा व ओज झलकते थे। वे हमेशा दार्शनिकों के समान ही सफेद चोंगा पहनते थे। सबके साथ मिलनसार, मधुर सम्बन्ध, मंथर चाल, शांत और गम्भीर स्वभाव, मृदु बातचीत उनके स्वभाव की विशेषताएँ थीं, जो आगन्तुक को भी अनायास ही अपनी ओर आकर्षित कर लिया करती थीं।
अपनी मातृ व मातृभूमि से हजारों मील दूर श्रीराम-कृष्ण जैसे देवों की पावन भारत-भूमि के रजकण को शिरोधार्य कर सर्वदा के लिए उसी में विलीन हो जाने वाले देशज भाषाओं के महत्व को स्थापित करने के लिए आजीवन कृत संकल्पित हिन्दी के पुजारी ‘फादर कामिल बुल्के’ को उनकी 113 वी जयंती पर हम सादर स्मरण करते हुए हार्दिक नमन करते हैं।
(फादर कामिले बुल्के जयंती, 1 सितम्बर, 2022)
श्रीराम पुकार शर्मा
अध्यापक,
श्री जैन विद्यालय, (हावड़ा)
ई-मेल सम्पर्क – rampukar17@gmail.com