आशा विनय सिंह बैस की कलम से : रामानंद सागर कृत धारावाहिक रामायण

रायबरेली। हालांकि भगवान श्री राम का रामत्व और रामायण की महिमा तो सर्वकालिक है। लेकिन चिर निद्रा में सोये और अपने महान इतिहास को लगभग विस्मृत कर चुके हम सनातनियों को जब कोई जामवंत आकर याद दिलाता है कि तुम तो मर्यादा पुरुषोत्तम के वंशज हो! तुम्हारी रगों में रघुकुलनंदन का लहू दौड़ रहा है!!
दशरथनंदन सच्चिदानंद तुम्हारे पूर्वज हैं!!!
तो हम सहसा जाग उठते हैं।

इसीलिए जब 80 के दशक में रामायण का दूरदर्शन पर प्रसारण शुरू हुआ तो पूरे भारतवर्ष में जैसे एक सुनामी सी आ गई थी। उत्तर-दक्षिण, पूरब-पश्चिम, सवर्ण-दलित, अगड़ा-पिछड़ा का भेद मिट गया था और भावनाओं का ज्वार उमड़ पड़ा था। ऐसा लगा मानो समस्त भारतवंशी भगवान राम को साक्षात अपने सामने निहार रहे हों, उनकी जीवन यात्रा के साक्षी बन रहे हों। आज वर्षों बाद यह सोचकर खुद आश्चर्यचकित हो जाती हूँ कि टेलीविजन पर प्रसारित रामायण धारावाहिक की असाधारण लोकप्रियता का कारण क्या था?

आखिर रामानंद सागर कृत रामायण में ऐसा कौन सा मोहपाश था जो लोगों को बरबस ही अपनी ओर खींच लेता था??
इस धारावाहिक में ऐसा क्या जादू था कि 80 के दशक में कर्फ्यू जैसे हालात पैदा हो जाते थे???
अभी कोरोना काल में जब इसका पुनः प्रसारण हुआ, तब भी यह धारावाहिक ब्लॉकबस्टर क्यों साबित हुआ????

आलोचक की दृष्टि से देखा जाए तो रामायण में अत्यंत साधारण तकनीक का प्रयोग किया गया है। वीएफएक्स, आधुनिक मिक्सिंग जैसी तकनीक उस समय नहीं थी। सेट भी साधारण लगाए गए थे और कलाकारों के कॉस्ट्यूम भी कोई महंगे न थे। मेकअप भी साधारण ही किया गया था। कई बार कलाकारों के बाल और मूछें स्पष्ट रूप से बाहर से लगाई हुई दिखती थी।

अगर पात्रों के बारे में बात करें तो भगवान राम के बाल्यकाल की भूमिका अदा करने वाला बालक, मर्यादा पुरुषोत्तम के सुदर्शन, अलौकिक व्यक्तित्व के साथ बिल्कुल भी न्याय नहीं कर पाता है। अरुण गोविल कभी भी किशोर और नव-युवा राम जैसे नहीं दिखे। बल्कि वह हमेशा ही प्रौढ़ और परिपक्व लगे। शुरुआत के कुछ एपिसोड में वे भावहीन दिखते हैं। वे बिल्कुल भावशून्य से रहते हैं। हालांकि बाद में वे अपने रोल के साथ पूरा न्याय करते हैं तथा हमारे स्मृतिपटल पर भगवान राम की छवि के रूप में सदैव के लिए अंकित हो जाते हैं।

महाराज दशरथ, कौशल्या, सुमित्रा, कैकेयी, सुमंत्र आदि भगवान राम के जन्म से लेकर उनके वनगमन तक एक ही वय के लगते हैं। निर्माता ने दाढ़ी/बाल अधपका या सफेद करने जितना भी श्रम नहीं किया। दशरथ का facial expression अत्यंत साधारण है और शत्रुघ्न का किरदार तो बहुत ही कमजोर बन पड़ा था।

अच्छा, अगर सिर्फ कथा की ही महिमा होती तो इसके बाद भी रामायण पर आधारित कई धारावाहिक बने। लेकिन वे तमाम शुद्ध व्यावसायिक धारावाहिक रामानंद सागर कृत रामायण के पासंग भी नहीं रहे। तो फिर अत्यंत कम बजट और सीमित संसाधनों में रामानंद जी ऐसा क्या जादू कर गए जो पुनः कोई दोहरा नहीं पाया??

मुझे तो इस प्रश्न का एक ही उत्तर सूझ और जान पड़ता है और वह यह कि बाकी सभी निर्माताओं ने दिमाग लगाकर रामायण का व्यावसायिक निर्माण किया। पैसा कमाने के लिए धारावाहिक बनाया। जबकि रामानंद सागर जी स्वयं एक समर्पित रामभक्त थे, उन्होंने रामायण दिल से, मन से, भाव से बनाई। स्वर्गीय रवींद्र जैन का पारलौकिक, आत्मा को बेध देने वाला संगीत भी एक बड़ा कारक रहा। पूरी रामायण में कॉस्ट्यूम, सेट, डिज़ाइन, पात्र गौण रहे। बस भाव सर्वोपरि रहा।इसीलिए रामानंद सागर कृत रामायण सीधे लोगों के दिलों में उतर गई और रिकॉर्ड तोड़ सफलता अर्जित की। आखिर, भावविह्वल भक्त की मर्यादा तो भगवान को रखनी ही पड़ती है। जय श्री राम।

आशा विनय सिंह बैस, लेखिका

(आशा विनय सिंह बैस)
रामभक्त

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