आशा विनय सिंह बैस की कलम से : ‘कोरा’ से प्राप्त ज्ञान

रायबरेली। ‘कोरा’ से प्राप्त ज्ञान के आधार पर पेड़ों पर चढ़ने के दो तरीके हैं :
1. पहले तरीके को चांगवोड अथवा चिंपैंजी तकनीक के रूप में जाना जाता है। इस तकनीक में आप बारी-बारी से अपने हाथों और पैरों को अपने सामने रखते हुए पेड़ पर चढ़ते हैं। हालाँकि यह तकनीक सीखना कठिन है। हमारी शारीरिक रचना इसे करना कठिन बना देती है क्योंकि आपको अपने द्रव्यमान के केंद्र को करीब लाने के लिए खुद को लगातार पेड़ के करीब खींचना होगा। हमारी भुजाएँ हमारे पैरों से छोटी होने के कारण, इस तकनीक का प्रयोग केवल खुरदरी छाल वाले छोटे पेड़ों में ही किया जा सकता है।

2. दूसरे तरीके को चिनबोडन कहा जाता है। यह तकनीक उसी तरह है जैसे एक भालू पेड़ पर चढ़ता है। पूर्व तकनीक की तरह, आप अपने हाथों को तने पर वैकल्पिक रूप से ऊपर ले जाते हैं, लेकिन आपके पैर एक भालू की तरह पेड़ के किनारे पकड़ते हैं और आप अपने दोनों पैरों को एक साथ त्वरित गति से स्पंदित करते हैं। यह तकनीक आसान है भले ही आपका लचीलापन उतना अच्छा न हो। साथ ही, इस तकनीक से आपके द्रव्यमान का केंद्र स्वाभाविक रूप से पेड़ के बहुत करीब होता है। इसलिए आपके गिरने की संभावना कम होती है। इसके लिए कम ऊर्जा की भी आवश्यकता होती है। यह विशेष तकनीक मोटे पेड़ों के साथ-साथ चिकनी छाल वाले पेंडो पर भी काम करती है।

बचपन में मुझे इन तकनीकों के सैद्धान्तिक पक्ष का ज्ञान तो नहीं था। बस यह पता था कि चप्पल उतारने हैं (अगर पहने हुए हों तो), पेड़ पर चढ़ने से पहले उसके तने का हाथ से स्पर्श कर माथे पर लगाकर पेड़ देवता से सुरक्षित चढ़ाई और उतराई का आशीर्वाद लेना है और फिर सरपट पेड़ पर चढ़ जाना है।

हमारे गांव बरी का शायद ही कोई ऐसा फलदार पेड़ रहा होगा जिस पर मैं अपना 40 किलो का वजन लेकर नहीं चढ़ा होऊंगा। दूसरे किसी के फलदार वृक्ष पर चढ़ते समय स्पीड बढ़ जाती थी और साउंड म्यूट हो जाता था। सफलता की दर 99 प्रतिशत थी। हालांकि इसके चक्कर में पहले चड्ढी और बाद में हाफ पैंट बड़ी जल्दी फट जाती थी। बाबा चिढ़ाते थे कि इसके पीछे कांटे लगे हुए हैं। अगली बार इसके लिए लोहे की चड्ढी/पैंट सिलवाऊंगा।

आज बिटिया को CUET की परीक्षा दिलाने आए थे। परीक्षा केंद्र के बाहर अभिवावकों को बैठने की कोई व्यवस्था नहीं है। अतः मजबूरी में ही सही तीन घंटे के लिए अपना ‘बचपन’ पुनः जी लिया।

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