आशा विनय सिंह बैस, नई दिल्ली। बाजार, घर या ऑफिस जाते हुए रास्ते में बारिश की कुछ बूंदे अनायास ही शरीर पर पड़ जाने में वो आनंद कतई नहीं है जो सावन के महीने में मूसलाधार बारिश में अपनी मर्जी से आनंद लेकर शरीर का रोम-रोम, पोर-पोर भिगोने में है।
इसी प्रकार गानों का चलताऊ अर्थ समझने के लिए उनको अन्मयस्क भाव से सुनना भर ही पर्याप्त है जबकि गीतों का ठीक अर्थ समझने के लिए उन्हें एकाग्रचित्त होकर सुनना पड़ता है। उसी गीत के गहन भावों का अर्थ समझने के लिए श्रोता की मनोदशा भी वैसी ही होनी चाहिए। उदाहरण के लिए –
“थोड़ी सी जो पी ली है,
चोरी तो नहीं की है,
डाका तो नहीं डाला।”
गजल सुनने में वैसे भी ठीक ही लगती है। लेकिन इसी गजल को जरा आराम से, शांतचित्त होकर सुनने का अलग ही मजा है। इसको आप शाम के अंधेरे में, मद्धम लाइट जला कर और एक पैग पीने के बाद सुनें तो इस गजल का, इसके भावों का असल सुरूर चढ़ता है। तब यह गजल उस श्रोता के लिए आम से बिल्कुल खास हो जाती है।
इसी तरह-
“तुझे न देखूं तो चैन,
मुझे आता नहीं है।
एक तेरे सिवा कोई और
मुझे भाता नहीं है,
कहीं मुझे प्यार हुआ तो नहीं है? ”
सुनने में कर्णप्रिय है। पर इसका गहन अर्थ प्यार में आकंठ डूबा हुआ प्रेमी ही समझ सकता है।
एक और कालजयी गजल
“चिट्ठी न कोई संदेश ,
जाने वह कौन सा देश,
जहां तुम चले गए।”
जितनी बार सुनो अच्छी लगती है। पर इसका भावार्थ समझने के लिए, गजल की आत्मा तक पहुंचने के लिए श्रोता का अपने प्रियतम से बहुत दूर, विरह की स्थिति में होना चाहिए।
1974 में रिलीज हुई हिंदी फिल्म “रोटी कपड़ा और मकान” का एक बेहद खूबसूरत गीत है जिसे मशहूर संगीतकार लक्ष्मीकांत- प्यारेलाल ने संगीतबद्ध किया और सुर कोकिला लता मंगेशकर ने आवाज दी है । गीत का मुखड़ा कुछ इस प्रकार है-
“हाय हाय रे मजबूरी,
यह मौसम और यह दूरी।”
वैसे तो यह गाना कभी भी बजने पर मनभावन लगता है लेकिन अगर श्रोता अपनी प्रेमिका से बहुत दिनों से और बहुत दूर कहीं नौकरी, व्यवसाय आदि कर रहा हो और तिस पर महीना भी सावन का हो, तो इस गीत का भाव और दर्द दिल की गहराई तक उतर जाता है।
तो हुआ यूं कि एक युवा वायुसैनिक और उसके कुछ साथी तेजपुर में रहने वाले अपने परिवार से कई सप्ताह से बहुत दूर चेन्नई में क्रॉस ट्रेनिंग कोर्स कर रहे थे। तभी किसी साथी ने अपने बड़े से रंगीन स्मार्ट फोन पर खूबसूरत जीनत अमान पर फिल्माए गए इस गीत को बजा दिया-
“हाय हाय रे मजबूरी,
यह मौसम और यह दूरी।
मुझे पल-पल है तड़पाए।।
तेरी दो टकिया की नौकरी में,
मेरा लाखों का सावन जाए।”
विरह अग्नि में जल रहे अधिकांश वायुवीरों ने इस गाने को न सिर्फ ध्यान से सुना बल्कि बहुत गहराई तक महसूस किया। इस गीत को पूरा सुनने के पश्चात युवा वायुसैनिकों के वियोग की अग्नि कुछ और प्रखर तथा तीव्र हो गई। तेजपुर और चेन्नई की दूरी कुछ अधिक प्रतीत होने लगी तथा दो महीने का कोर्स अचानक से दो साल का लगने लगा।
हालांकि कुछ संयत होने के बाद एक तर्कशील युवा को इस बात पर सख्त आपत्ति थी कि सावन तो खैर लाखों नहीं करोड़ों बल्कि अरबों का भी हो सकता है।
पर
वायुसेना की नौकरी “दो टकिया” की तो बिल्कुल नहीं है।
आशा विनय सिंह बैस
नई दिल्ली
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