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रायबरेली। हमारे मित्र गुप्ता जी बहुत ही समझदार और कोमल प्रकृति के व्यक्ति हैं। वह किसी भी कार्य मे महिला-पुरुष का भेदभाव नहीं करते हैं। इसलिए गुप्ताजी सर्दियों के मौसम में लहसुन, मटर आदि भाभी की सहायता के लिए छील दिया करते थे। गर्मियों में प्याज, खीरा छीलने में भी उन्होंने कभी ना-नुकर नहीं की। गुप्ता जी और गुप्ताइन भाभी का जीवन लड़-झगड़ कर हंसी-खुशी बीत रहा था। लेकिन पिछले साल की एक अप्रैल की रात को गुप्ता जी ने सोते समय मास्क उतारा तो ‘महिला सशक्तीकरण’ के सुलेमानी कीड़े ने उन्हें जोर से काट लिया। सुबह उठते ही भाभी से बोले- “तुम दिन भर कितना काम करती हो। मेरा और बच्चों का ध्यान रखती हो। इसलिए आज से अपने कपड़े मैं खुद धुला करूंगा। तुम बस अपने और बच्चों के कपड़े धुल लिया करो।”
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भाभी ने बहुत मना किया। एकदम ऊपर -ऊपर से बोली- “आप ऑफिस के काम और ग्वालियर के दमघोंटू ट्रैफिक से ही इतना थक जाते हो। आप खुद कपड़े धुलोगे तो लोग क्या कहेंगे ?? पिछली बार जब आपने मेरे बीमार होने पर कपड़े धुले थे, तो दो सफेद रंग की शर्ट लगभग नीली हो गई थी। बेटा तो यह भी कह रहा था कि पापा ने जिस साबुन से कपड़े धुले थे, उसी से नहा भी लिए थे।” भाभी जी ने और भी बहुत सारे तर्क दिए। लेकिन गुप्ता जी उस स्टेज में पहुंच चुके थे, जिसमें कोई दवा और सलाह काम नहीं करती। उन पर महिला सशक्तीकरण का भूत पूरी तरह सवार हो चुका था। उन्हें न मानना था और न वे माने।
खैर अगले रोज से गुप्ता जी अपने कपड़े खुद ही धुलने लगे। ऐसा कुछ हफ्तों तक चला। फिर गुप्ताजी देखते हैं कि बाल्टी में कपड़ों की संख्या कुछ बढ़ गई है। उनके खुद के कपड़ों के साथ ही कुछ छोटे कपड़े भी दिखने लगे हैं। गुप्ता जी ने शिकायत की तो भाभी बोली- “अरे जी! वह बच्चों के कपड़े गलती से चले गए होंगे। अब चले गए हैं तो धुल लो। काहे इतना नखरा कर रहे हो??”
गुप्ता जी मान गए। लेकिन छोटे कपड़े वाली गलती अब रोज होने लगी थी। गुप्ता जी कुछ कहते भी तो भाभी कभी प्यार से तो कभी धमकाकर चुप करा देती। लेकिन एक दिन तो हद ही हो गई। जब गुप्ताजी कपड़े धोने के लिए बैठे तो देखते हैं कि उनके और बच्चों के कपड़ों के साथ कुछ ‘लेडीज वस्त्र’ भी नजर आ रहे हैं। अब गुप्ताजी से नहीं रहा गया। वह गुस्से में भाभी के पास भड़कते हुए पहुंचे और दहाड़े- “यह क्या हो रहा है?? मैंने सिर्फ अपने कपड़े धोने की बात कही थी। तुमने पहले होशियारी से बच्चों के कपड़े घुसाये, अब चालाकी से अपने कपड़े भी बकेट में डाल दे रही हो?? ऐसा बिल्कुल नहीं चलेगा, मैं सिर्फ अपने कपड़े धोऊंगा और ज्यादा से ज्यादा बच्चों के कपड़े। तुम्हारे कपड़े बिल्कुल नहीं धोऊंगा?? आखिर मैं भी मर्द हूँ” गुप्ता जी के अंदर का आदमी जाग उठा था और वह गुस्से से लाल हो रहे थे।
गुप्ताइन भाभी सरकारी क्वार्टर में रहते-रहते अब तक जान चुकी थी कि कपड़े धोने से नेल पॉलिश उतर जाती है और हाथ की स्किन का रंग ‘डल’ हो जाता है। अतः उन्होंने भी तुरंत जवाब दिया -“तो आज से मैं भी अपना और ज्यादा से ज्यादा बच्चों का खाना बना लिया करूंगी। तुम अपना खुद बना लेना।”
सुना है गुप्ता जी मार्च की सैलरी जो कि 03 अप्रैल को मिलेगी, के मिलते ही ऑटोमेटिक वाशिंग मशीन खरीदने की सोच रहे हैं।
#अप्रैल फूल
(आशा विनय सिंह, रायबरेली वाले)