आशा विनय सिंह बैस की कलम से : मृत्यु भोज!!

रायबरेली। बाबा की पीढ़ी के समय हमारे परिवार में लगभग 50 लोग एक साथ बरी गांव के कच्चे घर में रहा करते थे। पापा की पीढ़ी के लोग पढ़ लिखकर बाहर निकल गए। जिसको जहां रोजगार मिला, वह वहीं सेटल हो गया। इसी कारण से हमारे परिवार के लोग आज लालगंज बैसवारा, ऊंचाहार, कानपुर, दिल्ली, रायपुर (छत्तीसगढ़) जैसे तमाम शहरों में रहते हैं। परिवार के सदस्यों के गांव से बाहर निकलने का फायदा यह हुआ कि सब लोग ठीक-ठाक कमाने लगे। परिवार की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ हुई लेकिन नुकसान यह हुआ कि गांव का कच्चा घर लगभग वीरान हो गया। वह घर जिसका हर कोना कभी परिवार के लोगों से ठसाठस भरा रहता था, लगभग निर्जन हो गया। गांव वाले घर में पुरुषों में केवल सबसे छोटे बाबा के सबसे छोटे पुत्र कृष्ण कुमार सिंह (मौनी), उनकी पत्नी, बिटिया और मां ही रह गए। मतलब जिस घर में पहले 50 लोग रहा करते थे उसी घर में केवल तीन वयस्क सदस्य रहते थे।

कुछ समय बाद मौनी भी रोजगार के लिए पहले रायपुर और फिर काशीपुर, उत्तराखंड चले गए। केवल मौनी की पत्नी, उनकी छोटी बिटिया और मां गांव में रह गए। गांव का कच्चा घर रखरखाव के अभाव में धीरे-धीरे ढहने लगा। मौनी से यह देखा न गया। उन्होंने परिवार के सभी सदस्यों की अनुमति और सहमति से कच्चे घर को गिराकर एक तरफ से पक्का करवाना शुरू किया। पहले पक्के घर की नींव पड़ी, फिर दीवारें खड़ी हुईं। वर्ष 2020 की दीपावली में मौनी को घर की छत डलवानी थी। इसके लिए उन्होंने कुछ बोरी सीमेंट, सरिया, ईटों आदि का भी इंतजाम कर रखा था। लेकिन ईश्वर को शायद कुछ और ही मंजूर था। 27 अक्टूबर 2020 को मौनी का काशीपुर में हृदयाघात से असमय देहांत हो गया।

परिवार के लगभग सभी सदस्य इस भीषण दु:ख की घड़ी में गांव पहुंचे। दाह संस्कार के बाद ज्यादातर लोग वापस तेरहीं में आने के लिए लौट गए। चूंकि मौनी से मेरा विशेष लगाव था, इसलिए मैं गांव में ही रुक गया। मैंने घर के सदस्यों, मोहल्ले और गांव के लोगों के समक्ष प्रस्ताव रखा कि हमें मृत्यु भोज अत्यंत साधारण तरीक़े से निपटाकर मौनी की इच्छा का सम्मान करते हुए गृह निर्माण का शेष कार्य पूरा करना चाहिए। घर की छत और बाकी कार्य पूरे करना ही उनको सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

मेरे इस प्रस्ताव पर कुछ लोग भड़क गए। वह कहने लगे- “किसी जवान व्यक्ति की मृत्यु होने पर घर कौन बनवाता है?? पहले तेरहीं, बरखी ठीक से कर लो, फिर चाहे महल खड़ा कर देना।” कुछ लोग दबी जुबान में कहने लगे कि अब तक सुना ही था, आज देख भी लिया कि फौजियों की बुद्धि सचमुच घुटनों में होती है। बताओ यहां दु:ख की घड़ी है और इनको घर बनवाने की पड़ी है।

हालांकि मैंने निर्णय कर लिया था फिर भी समझाने के लिए कहा – “अभी सब लोग हैं तो घर बनवाने का कार्य आसानी से हो जाएगा। बाद में कौन यहां शहर से आकर घर बनवाएगा। सीमेंट, सरिया, मौरंग सभी बिखरी पड़ी है। अगर इनका उपयोग अभी नहीं किया गया तो आधा सामान खराब हो जाएगा और आधा गायब हो जाएगा। मैं खुद भी इस कार्य मे सब तरह से सहयोग करने को तैयार हूं। परिवार के बाकी लोगों से भी सहयोग करने का आग्रह करूंगा।”

लेकिन कुछ लोग परंपरा, नियमों का हवाला देकर मुझे रोकने का प्रयास करते रहे। किसी ने तो यहां तक कह दिया कि – “पूरे गांव, जंवार, क्षेत्र में कहीं किसी ने पहले सुना या देखा है कि किसी जवान व्यक्ति की मृत्यु हो जाने पर तेरहीं से पहले उसके घर का निर्माण कार्य किया गया हो? दुःख के समय पीढ़ियों से कोई भी शुभ कार्य कभी नहीं होता है।”

इस पर मैंने पूछा-“क्या आप लोग तेरहीं के बाद घर बनवाने की जिम्मेदारी लेने को तैयार हो? या फिर मौनी के बीवी-बच्चे ऐसे ही खुली छत के नीचे रहेंगे??”
इस पर कोई जवाब नहीं आया। सब एक दूसरे को देखते रहे। तब मैंने मौनी के बड़े भाई, भतीजे और अपने छोटे भाई तथा परिवार के अन्य लोगों के सहयोग से अगले ही दिन गृह निर्माण का कार्य शुरू करवा दिया। तेरहीं से पहले लगभग पूरा घर बनकर तैयार हो गया। आज मौनी का परिवार उसी घर में रह रहा है।

हमारे पूर्वजों ने मृत्यु भोज शायद इसी उद्देश्य के लिए शुरू किया होगा ताकि परिवार के लोगों और इष्टमित्रों द्वारा शोकाकुल परिवार की हरसंभव मदद की जा सके। कालांतर में इसमें काफी विकृतियां आ गईं और मृत्यु भोज के नाम पर कर्मकांड, पाखंड और दिखावा अधिक होने लगा। कई गरीब परिवारों को उधार लेकर, गहने गिरवी रखकर भी यह परंपरा मजबूरन निभानी पड़ी। जबकि वास्तव में मृत्यु भोज, भोजन करके झूंठी सांत्वना देने का नहीं, बल्कि शोकाकुल परिवार की यथासंभव सहायता करने का अवसर है।

asha
आशा विनय सिंह बैस, लेखिका

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

18 − 3 =