“भरी दोपहरी में
जब गहराता है आलस का अंधियारा
दोस्त! तुम्हीं तो ले आते हो
थोड़ी रोशनी – थोड़ा उजास”
आशा विनय सिंह बैस, रायबरेली। अमलतास को संस्कृत में व्याधिघात, मराठी में कर्णिकार, गुजराती में गरमाष्ठो, बँगला में सोनालू तथा लैटिन में कैसिया फ़िस्चुला कहते हैं। अमलतास शब्द संस्कृत अम्ल (खट्टा) से निकला है। भारत में इसके वृक्ष प्राय: सब प्रदेशों में मिलते हैं। तने की परिधि तीन से पाँच कदम तक होती है, किंतु वृक्ष बहुत ऊँचे नहीं होते। धूपकाल (अप्रैल, मई, जून) में पूरा पेड़ पीले फूलों के लंबे लंबे गुच्छों से भर जाता है और ऐसा माना जाता है कि फूल खिलने के बाद 45 दिन में बारिश होती हैं। इस कारण इसे गोल्डन शॉवर ट्री और इंडियन रेन इंडिकेटर ट्री भी कहा जाता हैं।
अमलतास के उच्छ्वसित सौन्दर्य की प्रशंसा उत्तरी हिमालय के यात्रियों ने भी मुक्त कंठ से की है। यह हिमालय के चार हजार फुट ऊँचे प्रदेशों में भी पुष्पित होता दृष्ट हुआ है। मूलतः है तो यह दक्षिण एशिया का वृक्ष, पर पूरे विश्व तक इसका विस्तार है। अमलतास सूर्य-प्रिय है और अकाल की भीषण स्थिति का भी सामना सहज ही खिलते हुए करता है। रूखा मौसम अमलतास को अत्यन्त प्रिय है और यह जरा-सी भी सर्दी बर्दाश्त नहीं करता। शीतकाल में इसमें लगने वाली, हाथ सवा हाथ लंबी, बेलनाकार काले रंग की फलियाँ पकती हैं। इन फलियों के अंदर कई कक्ष होते हैं जिनमें काला, लसदार, पदार्थ भरा रहता है। वृक्ष की शाखाओं को छीलने से उनमें से भी लाल रस निकलता है जो जमकर गोंद के समान हो जाता है। फलियों से मधुर, गंधयुक्त, पीले कलझवें रंग का उड़नशील तेल मिलता है।
आयुर्वेद में बताया गया है कि इस वृक्ष के सभी भाग औषधि के काम में आते हैं। कहा गया है, इसके पत्ते मल को ढीला और कफ को दूर करते हैं। फूल, कफ और पित्त को नष्ट करते हैं। फली और उसमें का गूदा पित्तनिवारक, कफनाशक, विरेचक तथा वातनाशक है। फली के गूदे का आमाशय के ऊपर मृदु प्रभाव ही होता है, इसलिए दुर्बल मनुष्यों तथा गर्भवती स्त्रियों को भी विरेचक औषधि के रूप में यह दिया जा सकता है। अपने स्वर्णिम पुष्पों, अपनी कमनीय प्रकृति, अपने औषधीय गुण-धर्म एवं साज-सज्जा में अपने चारु उपयोग के लिये यह वृक्ष सर्व-प्रिय व सर्व-प्रशंसित है।
महाकवि कालिदास ने भी अपने काव्य में अनगिन स्थानों पर अमलतास (कर्णिकार) का उल्लेख किया है । प्रसिद्धि है कि यदि कर्णिकार वृक्ष के आगे स्त्रियाँ नृत्य करें तो प्रमुदित होकर वह पुष्पित हो उठता है। कालिदास के रम्य काव्य में एकाधिक स्थानों पर इस तथ्य का उल्लेख है कि स्त्रियों से अत्यन्त निकट है यह वृक्ष। अमलतास सुन्दरियों के कानों में और केशों मॆं झूलता है, कुमार संभव में पार्वती की नील अलकों में यह नवकर्णिकार पुष्प सुशोभित है –
उमाsपि नीलाsलकमध्यशोभि विसंसयन्ती नवकर्णिकारम्
चकार कर्णच्युतपल्लवेन् मूर्ध्ना प्रणामं वृषभध्वजाय।
यूँ तो यह फूलता है वैशाख- जेठ की ग्रीष्मावधि में, पर साहित्य में कवि प्रसिद्धि है कि अमलतास वसंत में पुष्पित होता है। रामायण में वसंत-वर्णन के अवसर पर कर्णिकार के सुनहले पुष्पों का वर्णन मिलता है, वैज्ञानिक इस पुष्प के फलों को तीखी गंध वाला बताता है और कवि कहते हैं यह पुष्प निर्गंध होता है –
“वर्णप्रकर्षे सति कर्णिकारं दुनोति निर्गंधतया स्म चेतः।
प्रायेण सामग्र्यविधौ गुणाना परांगमुखी विश्वसृजः प्रवृत्ति॥”
(कर्णिकार नामक पुष्प देखने में अत्यन्त सुन्दर होते हुए भी उनमें गंध के न होने से सहृदय पुरुषों के हृदय में उनपर तरस आती थी। ब्रह्मदेव की यह एक बुरी आदत है कि वह सकल पदार्थों में कुछ न कुछ गुण की कमी कर, किसी को सम्पूर्ण गुणसम्पन्न नहीं रहने देता।)
आधुनिक काल के किसी कवि ने अमलतास की सुंदरता से वशीभूत होकर लिखा-
“जैसे-जैसे
बढ़ता जाता है धूप का ताप
और मौसम को लग जाता है
कोई अनदेखा – अनचिन्हा पाप
वैसे-वैसे
तुम्हारी हर कलिका से उभरता है अनोखा उल्लास
देखा है – सुना है
तरावट के बिना
पत्रहीन होकर नग्न हो जाते हैं गाछ
तब तुम्हारे ये दिव्य वस्त्राभरण
बताओ तो किस करघे पर काता गया
यह मखमली रेशम – जादुई कपास”
इस भीषण गर्मी में आप भी अपने आसपास स्थित अमलतास के अलौकिक वृक्ष को ढूंढिए और उसके नयनाभिराम सौंदर्य में डूब जाइये।