अनुराधा वर्मा”अनु”, कानपुर। कुछ लोगों का मानना है कि ईश्वर चित्र में नहीं चरित्र में बसता है। किंतु मेरा मानना है कि ईश्वर की अवधारणा मनुष्य के जीवन में अनादिकाल से ही महत्वपूर्ण रही है। विभिन्न धर्मों, संस्कृतियों और विचारधाराओं में ईश्वर को अलग-अलग रूपों में माना जाता है, लेकिन एक बात समान है- ईश्वर केवल चित्रों में ही नहीं, बल्कि उसके चरित्र में भी बसता है। यह आलेख ईश्वर के इस द्वैत-चित्र और चरित्र- के महत्त्व पर प्रकाश डालने का प्रयास करेगा।
ईश्वर के चित्र पर अगर ध्यान दे तो, मानव समाज ने अपनी कल्पना शक्ति के आधार पर ईश्वर को विभिन्न रूपों में देखा और चित्रित किया है। कुछ ईश्वर को एक मूर्ति, चित्र या प्रतिमा के रूप में पूजते हैं, जबकि अन्य उसे प्राकृतिक घटनाओं, आकाश, धरती, या सूर्य में देखते हैं। ईश्वर का चित्र मनुष्य की सीमित बुद्धि और इंद्रियों के लिए एक ठोस रूप प्रदान करता है, जिसके माध्यम से वह ईश्वर के साथ जुड़ाव महसूस करता है।
चित्र रूप में ईश्वर का ध्यान करना और उसकी उपासना करना अधिक सरल होता है। चित्र हमें ईश्वर की महानता और दिव्यता का बोध कराता है। यह धार्मिक स्थलों पर, घरों में और ध्यान के समय भक्त को मानसिक और भावनात्मक शांति प्रदान करता है।
ईश्वर का चरित्र और चित्र एक दूसरे के पूरक है, परंतु केवल चित्र ही ईश्वर का संपूर्ण रूप नहीं है। ईश्वर का असली स्वरूप उसके चरित्र में है। ईश्वर का चरित्र उसकी अनंत दया, करुणा, सत्य, प्रेम और न्याय में निहित होता है। यह वह गुण हैं जो ईश्वर को सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी और सर्वज्ञानी बनाते हैं।
ईश्वर का चरित्र हमें सिखाता है कि हम अपने जीवन में कैसे आचरण करें। उसकी करुणा हमें दूसरों की सेवा और मदद करने की प्रेरणा देती है, उसका प्रेम हमें अपने शत्रुओं तक से प्रेम करने की शक्ति देता है और उसकी न्यायप्रियता हमें सही और गलत का भेद समझने में मदद करती है। ईश्वर के चरित्र के अनुसार आचरण करना, उसे सच्चे अर्थों में जीवन में उतारना है।
चित्र और चरित्र का समन्वय विशेष रूप में देखने को मिलता है, जहां मन में शुद्धता हो। ईश्वर का चित्र और चरित्र दोनों मिलकर हमें ईश्वर के संपूर्ण अनुभव की ओर ले जाते हैं। चित्र हमें ईश्वर की उपस्थिति का भान कराता है, लेकिन चरित्र हमें सिखाता है कि उस उपस्थिति को कैसे जिया जाए। चित्र स्थूल है, जबकि चरित्र सूक्ष्म। जहाँ चित्र हमें ईश्वर के रूप की ओर आकर्षित करता है, चरित्र हमें उसके आदर्शों और शिक्षाओं के साथ जोड़े रखता है।
कई बार मनुष्य ईश्वर के चित्र में खो जाता है और चरित्र की ओर ध्यान नहीं देता। यह हमें केवल बाहरी उपासना तक सीमित कर देता है, जबकि सच्ची ईश्वर भक्ति उसके गुणों को अपने जीवन में धारण करने में है। इसलिए, दोनों का संतुलन महत्वपूर्ण है। चित्र हमें ध्यान और आस्था की दिशा दिखाता है, जबकि चरित्र उस आस्था को जीने का मार्ग प्रदान करता है।
अंततः ईश्वर केवल मूर्तियों या चित्रों तक सीमित नहीं है। वह हर उस स्थान में बसता है जहाँ उसका चरित्र प्रकट होता है- चाहे वह प्रेम, करुणा, या सत्य के रूप में हो। मनुष्य को ईश्वर के चित्र और चरित्र दोनों के माध्यम से उसकी खोज करनी चाहिए, ताकि वह उसे पूरी तरह समझ सके और जीवन में उसे उतार सके।
(स्पष्टीकरण : इस आलेख में दिए गए विचार लेखक के हैं और इसे ज्यों का त्यों प्रस्तुत किया गया है।)
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