श्रीराम पुकार शर्मा का निबंध : गोबर संस्कृति

‘गुड़ गोबर करना’ क्या सचमुच ही किसी विशेष वस्तु को नष्ट करने के अर्थ में सठिक बैठता है? इसी तरह से ‘गोबर गणेश’ क्या सचमुच ही मुर्खता का पर्याय हो सकता है? ‘गोबर’ का नाम सुनते ही कईं लोग अपना बुरा-सा मुँह बना लेते हैं। साहित्य के पूर्व विद्वजनों ने तो ऐसा ही कह कर ‘गोबर’ को साहित्य के लिए त्याज्य या फिर महत्वहीन साबित किया है। फलतः बाद के कवियों की भी नजर में भी यह ‘गोबर’ बदबूदार और त्याज्य पदार्थ ही रहा है।

कुछ अपवादों को छोड़ दीजिए, पत्ता नहीं ‘गोबर’ के प्रति उन विद्वजनों में इतनी वितृष्णा के कारण क्या थे? कहीं ऐसा तो नहीं, कि अपनी लापरवाही से गोबर पर पिछल कर गिर पड़े हों और उनकी धोती गोबर में सन कर खराब हो गयी हो। फिर वे जहाँ गए हों, वहाँ उन्हें कडुए अपमान को ही सहना पड़ा हो। हो भी सकता है, क्योंकि बहुत ज्यादा तो नहीं, लगभग पाँच-छः दशक पूर्व तक तो शायद ही कोई ऐसा भारतीय घर-परिवार रहा हो, जिसके द्वार पर दो-चार गाय या बैल न बंधे रहते थे। द्वार पर खूंटों की गिनती के आधार पर ही उस परिवार की समृद्धि का अंदाजा लगाया जाता था।

दिन का प्रारम्भ ही उन मवेशियों के गोबर-मूत्रों की सफाई कार्य करने से ही हुआ करता था। मवेशियों के बिना वह परिवार ही त्याज्य माना जाता था।
भई, समय भी तो करवटें लेते ही रहता है। खूंटों के स्थान को अब गाड़ियों ने ले रखी हैं। सुखी जीवन कौन नहीं यापन करना चाहता है? उसकी लालसा में बड़ी संख्या में लोग गाँव को छोड़कर नगर की ओर पलायन कर रहे हैं। ऐसे में वे भला अपने मवेशियों को भी नगर में कैसे ले जाएँ? बक्सानुमा कमरे में वे स्वयं रहें या फिर अपने मवेशियों को रखें।

पशु के रूप में कोई जीव को ही पालना है, तो चलो कुत्ते-बिल्लियों को ही पाल लिया जाय। उनके लिए अलग से कोई खास कमरे या बाड़े की आवश्यकता तो न रहेगी। बिस्तर पर ही साथ सो जाया करेंगे। भोजन भी साथ कर ही लिया करेंगे। बाहर ‘मार्केटिंग’ या ‘टूर’ पर निकलने पर भी उनकी रख-रखाव की भी कोई चिंता करने की आवश्यकता नहीं।

वे भी तो गृहस्वामिनी की ममता भरी गोद में बैठकर गाड़ी में सफर कर ही लिया करते हैं। अब आप ही बताइए तो सही, गाय-भैंस-बैल को लेकर आप किस मार्किट में जायेंगे या फिर कहाँ टूर करने निकलेंगे? अपने साथ उन्हें किस होटल में रखेंगे? उन्हें अपने साथ ‘डाइनिंग टेबल’ पर किस तरह से उन्हें खाना खिलाएंगे? संभव ही नहीं है। तो इससे बेहतर तो यही हुआ न, कि उन्हें अपने जीवन और अपने घर-द्वार से ही दुत्कार देवें, सो अलग कर दिया। दूध की जरुरत हो, तो डेयरी फॉर्म वाला बंद प्लास्टिक पैकटों में मिलता है कि नहीं? अब कोई पूजा-पाठ में ही तो गाय के दूध-गोबर-मूत्र की जरूरत होती है।

कोई बात नहीं, किसी के सामने हाथ पसार देंगे वह जो देगा, सहर्ष स्वीकार कर लेंगे। उसके ही विश्वास पर ही उसकी शुद्धता को मान लेंगे या फिर उन्हें भी बंद प्लास्टिक पैकटों में बाजार से खरीद लेंगे। ‘आन लाइन शोपिंग’ में ‘गोइठे’ भी मिल रहे हैं, कि नहीं? गोबर और मूत्र भी मिलेंगे ही। दाम चाहे जो भी लेवें। फिर क्या जरुरत पड़ी है गाय-बैल-भैंस-बकरी की सेवा करने की? गाय-भैंस-बकरी के दूध को पीकर भला किसने इन्द्रासन को हिला दिया?

चार कंधों पर ही तो सवार होकर श्मशान घाट पर ही न गए कि और कहीं? आज कितने बच्चें हैं, जो ‘होर्लिक्स’, बोर्नवीटा’, ‘कॉम्पलान’ आदि के समक्ष दूध पीना पसंद करते हैं? भई, बच्चों की तो बातें ही छोड़िए, बड़ों को भी दूध कहाँ पचता है? उन्हें भी तो दूध से ‘एलर्गी’, ‘गैस’ या फिर ‘एसिडिटी’ हो जाया ही करते ही हैं कि नहीं? भई, बात तो हो रही थी ‘गुड़ गोबर’ और ‘गोबर गणेश’ पर, और जा पहुँचा ‘दूध’ तक। क्या कीजिएगा, मानव स्वभाव ही ऐसा है कि ‘हँसुए के ब्याह में लोग खुरपी के गीत’ गाने ही लगते हैं।

इसमें बुरा मानने की कोई बात नहीं है। आप भी तो अपने दफ्तर, स्कूल, कालेज या कर्मस्थल में कई बार ऐसे गीत गा ही चुके हैं। भले ही कोई मजबूरी ही रही हो। छोड़िए इन बातों को, और अब अपनी मूल बात पर आते हैं। गाय (बैल भी) और गोबर भारतीय ग्रामीण संस्कृति और जीवन के स्वर्णिम भविष्य के आधार रहे हैं। माना गया है कि जो व्यक्ति गाय-बैल और उसके गोबर-मूत्र के सम्पर्क में रहे हैं, उन्हें चेचक जैसा जानलेवा रोग स्पर्श तक न कर सका है। बड़ी अजीब बात है न! पर यह वैज्ञानिक सत्य है।

डॉक्टर एडवर्ड जेनर ने चेचक (cowpox) की रोकथाम के लिए गाय के फोड़े से ही निकले पदार्थ से ‘चेचक का अचूक टीका’ का निर्माण किया और लाखों लोगों को चेचक जैसे जानलेवा महामारी के मुख में जाने से बचा लिया। जिसमें हम सब उसके गोबरपन की बातों को भूल कर ढेरों पैसे देकर खरीदते और उसका सेवन करते हैं। घर-आँगन से लेकर खेत-खलिहान तक की लिपाई-पोताई-चिकनाई के कार्यों के लिए गाय के गोबर को वर्षों से उपयुक्त और धन-धान्य से समृद्धि कारक माना गया है।

गो माता के आदेश को सिरोधार्य कर ही माँ लक्ष्मी उसके गोबर और मूत्र को परम पवित्र स्थान मान कर ही उसमें निरंतर निवास करने की ठानी। अतः गाय को लक्ष्मी रूपिणी सुरभि कामधेनु की सन्तान और ब्रह्मा पुत्री मानी गयी है।

‘नमो गोभ्यः श्रीमतीभ्यः सौरभेयीभ्यः एव च।
नमो ब्रह्मसुताभ्यश्च पवित्राभ्यो नमो नमःII’
गोबर की रक्षा-कवच में प्राचीन घर-द्वार कीटाणुओं से पूर्णतः सुरक्षित रहे हैं I सूर्य की खतरनाक पैराबैंगनी किरणों को शोख लेने की अद्भूत क्षमता इस बेकार और बदबूदार समझे जाने वाले गोबर में ही मौजूद है। आयुर्वेद के एक जानकार बैद्य ने बताया कि शारीरिक स्वस्थता की दृष्टि से भी गोबर का कोई कम महत्व नहीं है। मुख रोग ‘पायरिया’ सम्बन्धित उपचार के लिए गोबर से निर्मित दंत मंजन और गो-अर्क का विशेष महत्व है। इसी तरह गोमूत्र से पेट के विकार, शारीरिक दुर्बलता, मूत्राशय, मलावरोध आदि जनित बीमारियों के नाशक औषधियाँ बनाई जाती हैं।

पर लोग हैं कि सत्य की कठोरता से दूर भागने की कोशिश तो करते ही हैं। नतीजन ‘मुख प्रिय स्वादम’ और ‘चक्षु प्रिय दर्शनम’ की लालसा में स्वयं को छलते हुए विभिन्न शारीरिक विकारों के आधीन करते ही जा रहे हैं। ऐसे महत्वपूर्ण औषधि पदार्थ गोबर को हम चूल्हों में जलाकर नष्ट कर दे रहे हैं। अब तो किसान के बेटों को भी ग्रामीण पुरातन गोबर और कृषि-कर्म संस्कृति से उबाऊ होने लगा है और वे भी शहर में मजदूरी करके संतुष्ट दिखने लगे हैं।

‘प्रेमचंद बाबा’ ने तो बहुत पहले ही कहा भी है कि ‘जब किसान के बेटे को गोबर में बदबू आने लग जाए, तो समझ लो कि देश में अकाल पड़ने वाला है।’ ऐसी बात उन्होंने कोई हँसी-खेल में न कही है, बल्कि अपने चतुर्दिक परिवेश से प्राप्त अनुभव के आधार पर कही है। इस बात में बहुत बड़ा रहस्य छिपा हुआ है। आधुनिक खेती में अतिशय उपज की चाहत में निरंतर तथाकथित उर्वरक रसायनिक खादों और दवाओं के बेहिसाब प्रयोग से हमारी अन्नपूर्णा वसुंधरा क्रमशः बांझ होती ही जा रही है। अतिशय घातक रासायनिक खादों के प्रयोग से घायल व क्षत-विक्षत हमारी माता अन्नपूर्णा वसुंधरा आज अपने लिए गोबर सदृश शक्तिवर्द्धक औषधि के लिए आतुर कराह रही है। पर उसकी करुण पुकार को सुन पाने में हमारे श्रवण-द्वार असमर्थ हो गए हैं, क्योंकि हमारी स्वार्थजन्य लिप्सा ने हमारे कानों की श्रवण-शक्ति को ही निष्क्रिय कर दी I

ऐसे में आज तो हम सब बहरे बने हुए हैं, हो सकता है कल शायद गूंगे और अंधे भी बन जायेंगे। जबकि गोबर बहुत ही कम लागत में खेती को लाभ का व्यवसाय बनाने और ग्रामीण जीवन को प्रदूषण मुक्त जीवनवर्द्धक वातावरण प्रदान करने के क्षेत्र में बहुत बड़ी भूमिका निभाता है। गोबर से बनी प्राकृतिक खाद में नमी अवशोषण करने की शक्ति अधिक रहती है, जिसके प्रयोग से धरती की नमी बनी रहती है और उससे धरती का क्षरण भी रुकता है।

कहा जाता है कि गोबर में प्राप्त द्रव पदार्थ कीटाणुनाशक होता है। गोबर में अनगिनत खनिज पदार्थ मौजूद होते हैं, जो खाद के रूप में मिट्टी को उपजाऊ बनाते हैं। गोबर के तत्व कण मिट्टी के विभिन्न तत्व कणों को आवश्यकतानुसार करीब और दूर करते हैं, जिससे मिट्टी में पर्याप्त हवा-नमी-खनिज का प्रवेश सम्भव हो पाता है, फिर मिट्टी की क्षीण होती उर्वरा शक्ति पुनर्जीवित हो जाती है। पौधों की जड़ें सरलता से उसमें साँस और अपने भोज्य-पदार्थों को ग्रहण कर पाती हैं। नतीजन हमारी माता वसुंधरा आशातीत फसलों को पैदा करती है।

कहा जाता है कि प्राचीन काल में भारत सोने की चिड़िया था। भारत विश्व भर में सर्वाधिक गोबर पैदा करने वाला देश है। वास्तव वह सोना हमारे खेत में यत्र-तत्र बिखेरे गए गोबर-धन ही तो था। जिससे हमारी धरती सर्वत्र ही सुनहरी स्वर्णिम फसल को पैदा करती थी। सभी धन-धान्य से परिपूर्ण थे। फलतः समाज में आपसी घृणा-द्वेष, छल-कपट, छिना-झपटी आदि की भावना नगण्य थी। सर्वत्र परस्पर प्रेम, सद्भावना और परोपकारता की भावना ही परिलक्षित होते थे।

कुछ वर्ष पहले हालैंड की एक खाद कंपनी ने भारतीय गोबर के रूप में स्वर्ण-धन को पहचाना और भारत से नियमित गोबर निर्यात करने की योजना बनाई थी और हम हैं कि उस स्वर्ण धन को चूल्हों में ही जलाकर तथा अपने खेतों में जानलेवा रासायनिक खादों को बिखेर कर ही स्वयं को गौरान्वित महसूस कर रहे हैं। हम अपने घरों में कुत्ते-बिल्ली तो अवश्य ही पलेंगे, पर स्वर्ण-धन गोबर और अमृत तुल्य दूध देने वाले अपने मवेशियों को कटने के लिए बुचड़खाने ही भेजने के लिए तत्पर होते रहे हैं।

दुर्भाग्य यह है कि आधुनिकता के नाम पर घर-द्वार से लेकर खेत-खलिहान तक बड़े-बड़े कृषि यंत्र ही शोभा बढ़ाने लगें हैं। गोबर के स्थान पर दम घोटू हानिकारक रासायनिक खाद और स्वच्छता के स्थान पर दम घोटू प्रदूषित हवा ही प्राप्त कर रहे हैं। नतीजन बाढ़, सुखा और रोग हमारी वार्षिक नियति बन गई है। इससे सिर्फ भारतीय कृषि ही हताहत नहीं हो रही है, बल्कि नैराश्य के वातावरण में सैकड़ों भारतीय किसान प्रतिवर्ष आत्महत्या करने लगे हैं। गोबर का अपने खेतों में अतिशय उपयोग ही हमारे देश भारत को पुनः ‘सोने की चिड़िया’ बना सकता है।

तो अब आप ही बताइए कि क्या गोबर धरती के लिए उर्वरा शक्तिवर्द्धक औषधि नहीं है? इसे पा कर ही थकी-हारी हमारी अन्नपूर्णा धरती अपने नवजीवन को प्राप्त करती है। इस अन्नपूर्णा वसुंधरा को पर्याप्त उर्वरा शक्ति देने के लिए हमें फिर से उस गोबर-संस्कृति को ही अपनाना अनिवार्य होगा, जिससे हम, हमारा परिवार, हमारे पशु-पक्षी और फिर हमारी धरती माता सभी स्वस्थ और दीर्घ जीवन को प्राप्त कर सकें। अतः गोबर को देख अपना मुँह-नाक न विकृत न बनाइए, बल्कि उसे अपने घर-परिवार का विशेष अंग बनाइए। सभी स्वस्थ और समृद्ध रहेंगें। अब आपकी मर्जी पर है कि ‘गोबर में गुड़’ को ढूंढे या फिर ‘गोबर को गणेश’ का स्वरूप प्रदान करें।

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