श्री रामपुकार शर्मा, कोलकाता : ‘अनाथ बच्चों की माँ’ के रूप में विख्यात देश की मशहूर सामाजिक कार्यकर्त्ता पद्मश्री ‘सिंधुताई सपकाल’ अपने जीवन में अनेक समस्याओं का सामना करते हुए अनाथ बच्चों का पालन-पोषण और सम्भालने जैसे ईष्ट कार्य करती हुई सेप्टीसीमिया रोग से पीड़ित गलैक्सी हॉस्पिटल (पुणे) में विगत 4 जनवरी 2022 को अपनी अंतिम साँस लीं। अगले ही दिन 5 जनवरी 2022 को पूरे राजकीय सम्मान के साथ उनका अन्तिम संस्कार किया गया।
महाराष्ट्र के वर्धा जिले के ‘पिंपरी मेघे’ गाँव में अभिमान साठे नामक एक गरीब चरवाहे के घर 14 नवम्बर 1948 को एक कन्या का जन्म हुआ। पर गरीबी में खुशियों के नगाड़े न बजे, न थाली ही बजी। बल्कि कन्या जन्म लेने की बात सुनकर परिजन बहुत दुखी भी हुए थे। लैंगिक भेदभाव के पोषक ‘साठे परिवार’ ने उस नवजात कन्या का नाम उपेक्षित रूप में ही ‘चिंधी’ (चिथड़ा) रखा। उपेक्षित बालिका धीरे-धीरे बड़ी होने लगी। घर के काम काज में निपुण वह बालिका ‘चिंधी’ अपने पिता के प्रति अनायास ही प्रेम प्रदर्शन करती रही। पिता के हृदय को ‘चिंधी’ ने जीत लिया।
स्कूल जाती अन्य बालिकाओं को देखकर पिता के भी अरमान जागे कि उनकी चिंधी भी पढ़-लिख कर एक सभ्य स्त्री बनेगी, पर स्त्री शिक्षा के विरोधी उसकी माँ का मानना था कि पढ़-लिख कर क्या करेगी? घर का चूल्हा-बर्तन ही तो करना है, कोई कलेक्टर थोड़े ही बनाना है। पर पिता का मन न माना और पत्नी की इच्छा के विरूद्ध जाकर चिंधी को पाठशाला भेजने लगे। माँ के विरोध और आर्थिक समस्याओं के साथ ही रुढ़िवादी पारिवरिक विचार के कारण उसकी पढ़ाई में निरंतर ही बाधाएँ आती रही। पर किसी तरह से चिंधी की शिक्षा कर्म भी चौथी कक्षा तक जाते जाते समाप्त हो गई।
पारिवारिक रिवाजों के अनुकूल ही चिंधी भी जब 10 वर्ष की हुई, तब उसका विवाह 30 वर्षीय ‘श्रीहरी सपकाल’ से कर दिया गया। अब वह अबोध चुलबुल चिंधी खेलकूद की उम्र में ही पारिवारिक जिम्मेवार वाली ‘सिंधुताई सपकाल’ बन गई और फिर देखते ही देखते 20 वर्ष की आयु तक तो वह तीन संतानों की माँ बनकर प्रौढ़ता को प्राप्त कर चुकी थी। सिन्धुताई के जीवन में परिवर्तन उस समय आया, जब वह जिला अधिकारी से गरीब गाँववालों को उनकी मजदूरी के पैसे न देनेवाले गाँव के मुखिया की शिकायत कर दी। वह हठी मुखिया ने अपने इस अपमान का बदला लेने के लिए उसके पति श्रीहरी सपकाल पर सिन्धुताई को घर से बाहर निकालने के लिए दवाब बनाया।
बिना पेंदी का लोटा अविवेकी श्रीहरी सपकाल ने 9 महीने की गर्भवती अपनी पत्नी सिंधुताई पर विश्वास न कर उस पर किसी अन्य के साथ अवैध संबंधों का आरोप लगाकर उसे मार-पीटकर घर से निकाल दिया। बेचारी अपने पति से प्रताड़ित होकर उसी रात एक गंदे तबेले में अर्धचेतन अवस्था में एक बेटी को जन्म दी। उस नवजात कन्या की नाल भी वह स्वयं ही काटी। पर दुर्भाग्य अभी भी पीछा न छोड़ा था। ऐसी विपति की घड़ी में उसे अपनी माँ का स्मरण हो आया और कुछ दिनों के लिए आसरा पाने की उम्मीद में वह अपनी माँ के पास पहुँची, पर इस विपति में उसकी माँ ने भी उससे अपना मुँह मोड़ ली और सदय प्रसूति की दशा में भी उसे अपने घर मे स्थान न दी।
ये घटनाएँ सिंधुताई के हृदय तक को बहुत ही झकझोर दी। कई बार तो वह आत्महत्या करने की भी विचार की, पर नन्हीं बच्ची की चिंता उस ओर बढ़ते उसके हर कदम को रोक लेती थी। सिन्धुताई बेचारी क्या करती? वह बेचारी अपनी नवजात बेटी के साथ पास के ही एक रेलवे स्टेशन पर जाकर रहने लगी। पेट भरने और अपनी बेटी की परवरिश के लिए वह भीख माँगती थी। रात में खुद को और अपनी बेटी को सुरक्षित रखने हेतु पास के ही एक शमशान मे जाकर रहती थी और वहाँ की जलती चिता पर रोटी बना कर पेट पूजा कर लेती थी।
लेकिन संघर्षशीलता जीवन को नये आयाम प्रदान करती है। ऐसे संघर्ष काल मे ही सिंधुताई ने स्वयं की मुसीबतों को तुच्छ मान कर अनुभव की कि देश मे कितने सारे अनाथ बच्चे हैं, जिनको एक स्नेही माँ की जरुरत है। तब उन्होने निर्णय लिया कि जो भी अनाथ उसके पास आयेंगे, वह उन सबकी माँ बनेंगी। इसके लिए उन्होने अपनी खुद की बेटी को ‘श्री दगडुशेठ हलवाई ट्रस्ट (पुणे) की गोद में सौंप दी, ताकि वह अनाथ बच्चों की सही माँ बन सकें। एक दिन रेलवे स्टेशन पर सिंधुताई को एक लावारिश बच्चा मिला। वह उस बच्चे को अपनी गोद में शरण दी। स्टेशन पर भीख माँग कर उस बच्चे की परवरिश करने लगीं। फिर तो यह सिलसिला ही बन गई। देखते-देखते कई लावारिश बच्चे उसकी गोद में आ मिलें। अब वह उन अनाथ बच्चों की माँ बन कर सबको पालने लगी।
सिंधुताई ने अपनी इच्छाशक्ति से विषम परिस्थितियों पर विजय प्राप्त कर अनाथों के लिए काम करना शुरू कर दिया। उन्होंने अनाथ बच्चों के लिए संस्थानों की स्थापना की। इस प्रकार सिंधुताई के जीवन में अब एक अंतहीन नया अध्याय प्रारम्भ हुआ, जो पीछे मुड़कर देखने या कुछ सोचने का मौका न दिया। वह विपरीत परिस्थितियों का सामना करते हुए स्वयं का जीवन उन लोगों को समर्पित कर दिया, जिन्हें समाज ने खारिज कर दिया था। उन्होंने 40 वर्षों में एक हजार से अधिक अनाथ बच्चों को गोद लिया।
उनका सेवाकार्य इस गति से आगे बढ़ा कि आज महाराष्ट्र में 6 बड़ी समाज सेवी संस्थाओं के रूप में बदल कर अनवरत सेवाकार्य कर रही है। इन संस्थाओं में 1500 से भी अधिक अनाथ बच्चे एक वृहद परिवार की तरह रहते हैं। बच्चे उन्हें ‘ताई’ (माँ) कह कर बुलाते थे। उनके आश्रम में केवल बच्चे ही नहीं, बल्कि विधवा महिलाओं को भी आसरा मिलता है। सिंधुताई स्वयं खाना बनाने से लेकर बच्चों की देखभाल का काम किया करती थी। सिन्धुताई ने अपना सम्पूर्ण जीवन को ही अनाथ बच्चों के लिए समर्पित कर दिया। उनके आश्रम परिवार मे आज 207 दामाद, 36 बहुएँ और 1000 से भी ज्यादा पोते-पोतियाँ है। उनके गोद लिए बहुत सारे बच्चे आज डॉक्टर, अभियन्ता, वकील बन कर समाज और देश की सेवा में रत्त हैं और उनमे से बहुत सारे खुद का अनाथाश्रम भी चलाते हैं।
समय भी क्या खेल दिखता है? सिन्धुताई के पति श्रीहरी सपकाल जब 80 साल के हो गये, तब वे भी असहाय अवस्था में सिंधुताई के पास ही उनके आश्रम में रहने के लिए आए। पर सिन्धुताई तो अब सबकी ‘माँ’ थी, अतः उन्होंने यह कहते हुए कि अब तो वह एक माँ हैं और अपने पति को भी एक बेटे के रूप मे स्वीकार कर लिया और बड़े ही गर्व के साथ सबको बताती कि ‘वो (उनके पति) उनका सबसे बड़ा बेटा है।’ यहाँ तक कि वह अपनी माँ द्वारा किये गए विगत व्यवहार से कतिपय दुखी नहीं रही थीं, बल्कि वह तो अपनी माँ के प्रति भी आभार प्रकट करती हुई अक्सर कहा करती थी कि ‘अगर उनकी माँ ने उनको पति के घर से निकालने के बाद घर मे सहारा दिया होता तो आज वह इतने सारे बच्चों की माँ नहीं बन पाती।’
सिंधुताई कहा करती थी, ‘मुझे ऐसा लगता है कि आज मेरा जीवन अपने अंतिम पड़ाव में पहुँच गया है। मेरे बच्चे बहुत खुश हैं। लेकिन अतीत को भुलाया नहीं जा सकता है। मैं अतीत को पीछे छोड़, अब बच्चों के वर्तमान को संवारने का काम कर रही हूँ। मेरी प्रेरणा मेरी भूख और मेरी रोटी है। मैं इस रोटी को धन्यवाद करती हूँ क्योंकि इसी के लिए लोगों ने मेरा उस समय साथ दिया, जब मेरे पास खाने की रोटी नहीं थीं। मेरे ये सभी पुरस्कार मेरे उन बच्चों के लिए हैं, जिन्होंने मुझे जीने की ताकत दी।’
सिंधुताई सपकाल के सामाजिक कार्यों को सम्मानित करने के लिए सन 2021 में भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्मश्री’ पुरस्कार से सम्मानित किया। सिन्धुताई सपकाल को उनके जीवन काल में कुल 273 राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुए हैं, जिनमें – अहिल्याबाई होऴकर पुरस्कार, आयकौनिक मदर, सह्याद्रि हिरकणी पुरस्कार्, राजाई पुरस्कार, शिवलीला महिला गौरव पुरस्कार, दत्तक माता पुरस्कार, रियल हिरोज पुरस्कार, गौरव पुरस्कार, बाबासाहेब आंबेडकर समाज भूषण पुरस्कार, मूर्तिमंत माँ राष्ट्रीय पुरस्कार, आयटी प्रॉफिट ऑर्गनायझेशनचा दत्तक माता पुरस्कार, राजाई पुरस्कार, शिवलीला महिला गौरव पुरस्कार, सामाजिक सहयोगी पुरस्कार, रिअल हीरो पुरस्कार, सह्याद्री की हिरकणी पुरस्कार, प्राचार्य शिवाजीराव भोसले स्मृति पुरस्कार, डॉ. राम मनोहर त्रिपाठी पुरस्कार आदि राष्ट्रीय पुरस्कार हैं। जबकि सैकड़ों की संख्या में अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों को भी प्राप्त कर चुकी थीं। 2010 साल मे सिन्धुताई के जीवन पर आधारित मराठी चित्रपट “मी सिन्धुताई सपकाळ” बनाया गया, जो 54 वें लंडन चित्रपट महोत्सव के लिए चुना भी गया था।
सिंधुताई सपकाल के अनाथाश्रम पुणे, वर्धा, सासवड (महाराष्ट्र) में स्थित है। उनके द्वारा स्थापित संस्थाएँ – बाल निकेतन हडपसर (पुणे), सावित्रीबाई फुले लडकियों का वसतिगृह (चिखलदरा), अभिमान बाल भवन (वर्धा), गोपिका गाईरक्षण (गोपालन) केंद्र (वर्धा), ममता बाल सदन (सासवड), सप्तसिंधु महिला आधार बालसंगोपन व शिक्षण संस्था (पुणे), मदर ग्लोबल फाउंडेशन संस्था आदि हैं।
विभिन्न पुरस्कारों से प्राप्त धन को पद्मश्री सिंधुताई अपने अनाथाश्रम के लिए खर्च किया करती थीं। सिन्धुताई कविता भी लिखती थीं, जिसमें उनके जीवन का पूरा सार होता है। पद्मश्री सिंधुताई सपकाल का 73 साल की उम्र में पुणे में 4 जनवरी, 2022 को निधन हो गया। वह अपने कार्यों के द्वारा सिखा गईं कि मुसीबतों से हार मत मानो और अपने तन-मन-धन का सदुपयोग मानवताजन्य कार्यों में करो। शायद यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। सबकी ‘माँ’ दिव्यात्मा ‘सिंधुताई सपकाल’ को सादर हार्दिक नमन व भावभीनी श्रद्धांजलि।
श्रीराम पुकार शर्मा
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