‘दिनकर’ जयंती विशेष : सिंहासन खाली करो कि जनता आती है

श्रीराम पुकार शर्मा, कोलकाता। हिंदी साहित्य के क्षेत्र में बिरले ही ऐसे कवि व्यक्तित्व रहे हैं, जिनमें एक ओर भूषण के वीर रसात्मक कविताई की झंकार सुनाई देती है, तो दूसरी ओर मैथिलीशरण की शांत और करुण रसात्मक कविताई की मधुरता, जो एक ओर सत्ता के अत्यंत करीब रहा हो, तो दूसरी ओर जनता में लोकप्रिय रहा हो, जो एक ओर जनकवि हो और तो दूसरी ओर राष्ट्रकवि भी हो । माँ भारती के आशीर्वाद से राष्ट्रीयता के गम्भीर उद्घोष करने के साथ ही साथ साधारण जन के आँसू पोंछने वाला एक ऐसे ही बिरला कवि रहे हैं, राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी।

ओजस्वी राष्ट्रभक्ति और करुण भाव को स्वर तथा आकार देने वाले जनकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी का जन्म 23 सितंबर 1908 ई. में सिमरिया, वर्तमान में ज़िला बेगुसराय, (बिहार) में एक साधारण किसान परिवार रवि सिंह तथा उनकी पत्नी मनरूपा देवी के पुत्र के रूप में हुआ था। रामधारी के जीवन का पूर्वार्द्ध पितृविहीन मातृ-प्रेम की कोमल छत्र-छाया में, देहाती दुनिया में दूर-दूर तक फैले शस्य-श्यामल खेतों की पगडंडियों पर, बांसों के झुरमुटों में, आम के बगीचों में, गंगा के किनारे रेतों में दूर तक फैले रोयेंदार कांसों में, पक्षियों के मधुर कलरवों आदि के बीच बिता। प्रकृति की यह मधुर सुषमा रुपी विराट शक्ति स्वरूपा रामधारी के तन-मन में कैशोर्य से केवल बस ही नहीं गयी, बल्कि उनके जीवन को आगत कठोर आघातों को सहने के अनुकूल बना दी और बालक रामधारी सिंह को कालांतर में प्रखर, ओजस्वी और विद्रोही कवि ‘दिनकर’ के रूप में प्रतिष्ठित कर दी।
‘स्वतंत्र गर्व उनका जिन पर संकट की घात न चलती है,
तूफानों में जिनकी मशाल कुछ और तेज हो जलती है।’

अपने गाँव के ही एक संस्कृत पंडित जी की सानिध्यता में हिन्दी-संस्कृत में विद्यारंभ कर बालक रामधारी गाँव के ही पाठशाला से प्राथमिक परीक्षा उतीर्ण हुए। बाद में निकटवर्ती ‘बोरो’ ग्राम के ‘राष्ट्रीय मिडिल स्कूल’ में भर्ती हो गए, जहाँ का स्वदेशी वातावरण बालक रामधारी के मन-मस्तिष्क को राष्ट्रीयता की अजस्र भावना से उत्प्रेरित किया। फिर ‘मैट्रिक’ की परीक्षा में राज्य भर में सर्वाधिक अंक प्राप्त कर ‘भूदेव पुरस्कार’ को प्राप्त करने वाले इस प्रतिभाशाली बालक के मन-मस्तिष्क में तत्कालीन बिहार के देहातों की पीड़ित दशा के अनगिनत चित्र ऐसे अक्षुण्ण आसन लगाकर बैठे गए, कि कालांतर में प्रखर शब्दों के रूप में कागजों पर उतर कर कालजयी रचना में परिणत हो गए।
‘जिस पापी को गुण नहीं गोत्र प्यारा है, समझो, उसने ही हमें यहाँ मारा है।’

तत्कालीन अंग्रेजी प्रशासन के तमाम बाधाओं, वैषम्यों, रोध-प्रतिरोधों और संघर्षों को पार करते हुए अपनी विशेष योग्यता के बल पर रामधारी सिंह ‘दिनकर’ तत्कालीन अंग्रेजी प्रशासन के उच्च पद तक जा पहुँचे थे। लेकिन उनकी कलम से निरंतर उद्भूत राष्ट्रीयता की प्रखर गूँज से अंग्रेज प्रशासकों को यह समझते देर न लगी कि वे ‘भारत-प्रेमी’ जैसे एक ग़लत व्यक्ति को अपने तंत्र व्यवस्था का एक प्रमुख अंग बना बैठे हैं। फिर क्या था? ‘दिनकर’ के विरोध में फ़ाइलें तैयार होने लगीं, बात-बात पर उच्च दरबार में उन्हें तलब किया जाने लगा, चेतावनी पर चेतावनी मिलने लगीं और फिर चार वर्षों में ही बाईस बार उनका तबादला किया गया। पर ‘दिनकर’ जी की लेखनी अब प्रशासन के आदेश के अनुचर न थी, बल्कि वह तो अब तक अनगिनत पीड़ित भारतीयों की प्रखर मुख-शस्त्र बन चुकी थी, जो वाणी-रुपी चोटों से अंग्रेजों के मर्म को निरंतर भेदती रहीं। वह तो स्वदेशी रंग में इतनी रंग गयी थी कि अब भला उस पर अंग्रेजी प्रशासनिक रंग कैसे चढ़ सकता था? अंग्रेजों के कठोर कुचक्र और आघातों से वह न विचलित हुई और न मंथर ही हुई, बल्कि वह और प्रखर होकर ‘रेणुका’, ‘हुँकार’, ‘रसवंती’, ‘द्वन्द्वगीत’, कुरुक्षेत्र’ आदि के रूप में हुँकार भरने लगीं –
‘घातक है, जो देवता-सदृश दिखता है, लेकिन, कमरे में गलत हुक्म लिखता है।’

राष्ट्रीय ओजस्विता के अमर गायक रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी की लेखनी ने सोयी हुई भारतीय पौरूष को ऐसे ललकारा कि वह ‘कुरूक्षेत्र’ के युद्ध रूपी स्वतंत्रता संग्राम में आजादी (धर्म) की स्थापना हेतु असंख्य भारतीय महारथियों को स्वतः प्रवृत्त करने लगी। ‘युद्ध एवं शांति’ की दिशा में कवि ने अपने मौलिक चिन्तन को काव्यात्मक रूप देकर जनमानस को दिशा-निर्देश करने लगे –
‘कब तक पड़ी आग में धरती, इसी तरह अकुलायेगी,
चाहे जो भी करे, दुखों से छूट नहीं वह पायेगी।’

स्वतन्त्रता पूर्व के विद्रोही कवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी ने देश की स्वतंत्रता के मार्ग को प्रशस्त करने के लिए और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद समाज और देश की उन्नति के लिए लोगों में नवजीवन की स्थापना हेतु सनातनी पौराणिक पात्रों को अपने वक्तव्य का आधार बनाया। वीरता और पुरुषार्थ से परिपूर्ण परशुराम, राम, लक्ष्मण, कृष्ण और कर्ण जैसे पौराणिक पराक्रमी पात्रों के माध्यम से लोगों में जोश और ओज भरने लगें-
‘धर्मराज, सन्यास खोजना, कायरता है मन की,
है सच्चा मनुजत्व ग्रंथियाँ, सुलझाना जीवन की।’

लंबे संघर्षों के उपरांत देश स्वतंत्र हुआ। लोगों को उम्मीद रही थी कि अब उनके दिन फिरेंगे, परंतु उनकी स्थिति पूर्वरत ही बनी रही। कवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी का मन व्याकुल हो उठा। ऐसे में निज स्वार्थ की परवाह न कर उन्होंने समसामयिक अव्यवस्था और शोषणवाद के वीभत्स चित्रों को दर्शाते हुए उनके विरूद्ध अपनी आवाज को बुलंद किया और देश के कर्णधार नेताओं तथा शोषकों को ललकारा –
‘श्वानों को मिलता दूध-वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं।
माँ की हड्डी से चिपक ठिठुर जाड़ों की रात बिताते हैं।’

ऐसे में ही रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी का व्यक्तिपरक और सौन्दर्यान्वेषी कवि-मन ‘उर्वशी’ और सामाजिक चेतना ‘हारे को हरिनाम’ के बीच परस्पर संघर्ष करता हुआ दिखाई देता है। परन्तु कवि राष्ट्रीय चेतना से विमुख न हुए, बल्कि आजादी के पूर्व के अपने प्रखर स्वरूप को पुनः अपनाए हुए ही जन-वाणी में अपने राज कर्ताओं को भी दुत्कारने से न चुकते हैं और उनसे पूछते हैं –
‘अटका कहाँ स्वराज ? बोल दिल्ली ! तू क्या कहती है?
तू रानी बन गई वेदना जनता क्यों सहती है?’

कवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी के प्रथम तीन काव्य-संग्रह- ‘रेणुका’, ‘हुंकार’ और ‘रसवन्ती’ उनके आरम्भिक आत्म-मंथन के युग की रचनाएँ रही हैं। इसके बाद के ‘द्वन्द्वगीत’, ‘कुरुक्षेत्र’, ‘सामधेनी’ में देश की आज़ादी की सम्भावना और उसकी तैयारी से सम्बन्धित विचारों का संवहन और गहन चिंतन है, तो उसके उपरांत अर्थात देश की आजादी के बाद की रचनाओं में, यथा- ‘रश्मिरथी’, ‘दिल्ली’, ‘चक्रवाल’, ‘परशुराम की प्रतीक्षा’, ‘रश्मिलोक’ आदि जनता के दायित्वों को वहन करने वाले एक जनकवि के भाव-विचारों को वहन करती दिखती हैं।
‘सब से विराट जनतंत्र जगत का आ पहुँचा, तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तैयार करो।’

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी का केवल काव्य-साहित्य ही नहीं, बल्कि गद्य-साहित्य भी ओजपूर्ण और प्रेरणादायक हैं। उनमें ओज और उत्साह के साथ गहन चिंतन की भी झलक हैं। उन्होंने अपने गद्य साहित्य में सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक विषयों पर पर्याप्त निबंध, संस्मरण, यात्रा वृत्तांत, आलोचना, नाटक, बाल-साहित्य आदि लिखा है, जो अपने आप में अद्वितीय हैं। जिनमें मिट्टी की ओर, अर्धनारीश्वर, काव्य की भूमिका, शुद्ध कविता की खोज, साहित्यमुखी, आधुनिक बोध, संस्मरण और श्रद्धांजलियाँ, मेरी यात्राएँ, चित्तौड़ का साका, नीम के पत्ते, उजली आग आदि का नाम विशेष उल्लेखनीय है।

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी की जनमानस को आंदोलित करने वाली साहित्यिक सेवाओं के लिए भारतीय प्रशासन और साहित्य समाज ने समयानुसार उन्हें उचित सम्मान प्रदान किया। वे ‘बिहार विश्वविद्यालय’ में हिन्दी के प्राध्यापक तथा विभागाध्यक्ष नियुक्त हुए। सन् 1952 में जब भारत की प्रथम संसद का निर्माण हुआ, तो उसमें वे राज्यसभा के एक निर्विरोध सदस्य चुने गए । बाद में उन्हें सन् 1964 से लेकर 1965 ई. तक ‘भागलपुर विश्वविद्यालय’ का उप कुलपति नियुक्त किया गया । सन् 1959 में उन्हें ‘पद्म भूषण’ से सम्मानित किया। इनकी ‘उर्वशी’ रचना पर सन् 1972 में इन्हें ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ प्रदान किया गया। भागलपुर विश्वविद्यालय ने अपने पूर्व के उप कुलपति ‘दिनकर’ जी को ‘डीलिट्’ की मानद उपाधि प्रदान कर सम्मानित किया । फिर भारत सरकार ने उन्हें अपना विशेष ‘हिन्दी सलाहकार’ बना लिया ।

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की ओजस्विता का मिसाल 70 के दशक में ‘संपूर्ण क्रांति’ के दौरान भी दिखाई दी। जब दिल्ली के रामलीला मैदान में लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने ‘दिनकर’ जी की ही पंक्ति को उद्घोषित कर तत्कालीन सरकार के खिलाफ विद्रोह का शंखनाद किया था। फिर तो उसके बाद से ही वह ‘काव्य उक्ति’ अराजक सरकार के खिलाफ जनता की विद्रोही वाणी ही बन गई हैं –
‘दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।’

यह ज्ञातव्य है कि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी को आजीवन आंतरिक-बाह्य दोनों ही स्तरों पर अनवरत संघर्षों को झेलना पड़ा, जो उन्हें भीतर ही भीतर लगातार कुरेद-कुरेद कर दुर्बल और क्षीण करते रहा। सन् 1973 से ही उनके शरीर पर क्षीणता के लक्षण दिखाई देने लगे थे, जो क्रमशः अधिकाधिक और गंभीर होते ही गए। परिणामतः 24 अप्रैल, 1974 को हिंदी साहित्य का वह प्रखर ऊर्जस्वित ‘दिनकर’ इस जीवन को पूर्ण कर अनजान पीड़ित-जनों को दुःख से त्राण दिलाने के लिए किन्हीं गंभीर मौन कुहासों के पीछे सर्वदा के लिए महाप्रस्थान कर गया।

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी वास्तविक अर्थ में ‘दिनकर’ ही थे, जिन्होंने अपनी रचनाओं की दिव्य किरणों से भारतीय जनसमाज को नवीन वातावरण प्रदान किया है। ‘दिनकर’ जी एक जनकवि रहे हैं, इसीलिए उन्हें ‘राष्ट्रकवि’ भी कहा गया। उन्होंने हिंदी साहित्य को अपनी दिव्य रचनाओं से समृद्ध किया है। उनकी रचनाएँ आज भी हिन्दी पाठकों के कंठ के हार ही हैं।
‘झूलो गगन-हिन्डोले पर, किरणों के तार बढाओ री !
यह रात रुपहली आई।।’

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी युगों-युगों की राष्ट्रीयता और संस्कृति का गान करने वाले मात्र ‘युग चारण’ न होकर ‘युगों-युगों के चारण’ हैं, युगों-युगों के ‘सांस्कृतिक राष्ट्र कवि हैं, मानवता के महान गायक हैं। आज हम उस ‘सांस्कृतिक राष्ट्रकवि’ को उनके पावन जयंती पर सादर हार्दिक नमन करते हैं।

श्रीराम पुकार शर्मा
अध्यापक व लेखक
24, बन बिहारी बोस रोड,
हावड़ा – 1
ई-मेल सम्पर्क – rampukar17@gmail.com

श्रीराम पुकार शर्मा, लेखक

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