प्रफुल्ल सिंह “बेचैन कलम”, लखनऊ : कामदेव का व्यापार विचित्र है। न जाने कब और कैसे वे दो नितांत अपरिचित व्यक्तियों के मन में कामभाव उत्पन्न कर देते हैं। वररुचि नामक एक विद्वान युवक नगर भ्रमण के लिए निकला तो चलते-चलते किसी गुरुकुल के आगे से गुजरा। वहां गुरुकुल के अध्यक्ष वर्ष के छोटे भाई उपवर्ष की पुत्री उपकोषा अपनी सखियों के साथ हँसी-ठिठोली कर रही थी। उपकोषा अतीव सुंदरी थी। वररुचि वापस घर लौटा पर रात भर उस सुंदरी के स्वप्नों में ही खोया रहा। अगले दिन वह पुनः उसी स्थान पर गया। वह लगभग रोज ही जाने लगा और चोरी-छिपे उस अप्सराओं से भी सुंदर युवती के दर्शन करने लगा। एक दिन उपकोषा की एक सखी उसके सामने आई और बताया कि उपकोषा भी उससे प्रेम करती है। वररुचि ने इसे अपना सौभाग्य माना, पर यह भी कहा कि यह मिलन अभिभावकों की सम्मति से होना चाहिए। वररुचि की ऐसी इच्छा जान उपकोषा ने अपने माता-पिता को सब कुछ बता दिया। अंततः उन दोनों का विवाह हो गया।
कुछ वर्षों बाद गुरु वर्ष के गुरुकुल में एक शिष्य हुआ, पाणिनि। अत्यंत अल्पबुद्धि पाणिनि को गुरुमाता ने परामर्श दिया कि वह शंकर की तपस्या करे और उनसे आशीर्वाद प्राप्त करे। पाणिनि ने तपस्या की और प्रज्ञावान होकर वररुचि को शास्त्रार्थ की चुनौती दी। वररुचि पराजित हुआ और लज्जित होकर हिमालय चला गया, वहां जाकर उसने शंकर की तपस्या आरम्भ कर दी। वररुचि जाते हुए कुछ धन एक वणिक के पास छोड़ गया था, जिससे उसकी पत्नी को कोई समस्या न हो।
इधर उपकोषा ने भी व्रत लिया और नित्य गंगास्नान कर शिव की आराधना करने लगी। वणिक ने उसे कभी कोई धन नहीं दिया। वह विपन्न होती जा रही थी, पर व्रत करती रही। एक बार वह नदी में स्नान कर रही थी। निकट ही कहीं राजसचिव, राजपुरोहित और नगरपाल भी थे, जो उसके यौवन को देख कामदग्ध हो गए। वह सुंदरी जब अपने घर को लौट रही थी, तब पहले राजसचिव ने, फिर अगले मोड़ पर राजपुरोहित ने और अगले मोड़ पर नगरपाल ने उससे अपनी इच्छा व्यक्त की।
पति की अनुपस्थिति में वह अबला कुछ कर नहीं सकती थी, और यदि अधिक भाव दिखाती तो उसपर बलात्कार भी हो सकता था अतः उसने उन तीनों को ही दो दिन बाद अलग-अलग समय पर रात में घर पर आने का निमंत्रण दे दिया। इधर वह वणिक भी बहुत दिनों से उसके फेर में था, अतः उसे भी रात्रि के अंतिम पहर में बुला लिया। तय समय पर राजसचिव आया। उपकोषा ने उसे स्नान कर आने को कहा। स्नानागार में प्रकाश नहीं था, पर दो सखियां थी जिन्होंने राजसचिव को स्नान करवाया और तौलिए से उसे रगड़-रगड़ कर पोछा। तौलिए में अलकतरा लगा था, अतः वह सचिव पूर्णतः काला हो गया।
तभी राजपुरोहित आ गया। राजपुरोहित का भय दिखाकर सखियों ने नग्न राजसचिव को एक बक्से में छुपा दिया। फिर राजपुरोहित को भी उसी भाँति स्नान करवाया गया और नगरपाल के आ जाने पर उसे भी उसी बक्से में बंद कर दिया गया। ठीक समय पर उस वणिक के आ जाने से नगरपाल भी अंततः उसी बक्से में बंद कर दिए गए। बक्से में तीनों पुरुष, पूर्णतः नग्न एक-दूसरे से चिपके हुए पर एक-दूसरे से अनजान, स्वयं का भेद न खुले इसलिए चुपचाप बैठे रहे।
उपकोषा वणिक को उस बक्से के पास ले आई और पूछा कि मैं आपको क्यों स्वीकार करूँ। वणिक ने कहा कि यदि वह भोग हेतु सहमत होती है तो वह उसके पति द्वारा दिये गए समस्त धन को उसे सौंप देगा। उपकोषा ने उसे भी स्नान हेतु भेज दिया। अभी वह स्नान से निपटा ही था कि सुबह हो गई। उसे धक्के मारकर निकाल दिया गया। पूर्णतः काला और पूर्णतः नग्न वह वणिक लोगों के उपहास का पात्र बनते हुए जैसे-तैसे अपने घर पहुँचा।
उधर उपकोषा राजा के समक्ष उपस्थित हुई और वणिक पर धन हड़पने का दोष लगाया। वणिक को बुलाया गया, और उसने उपकोषा को झूठा बताया। उपकोषा ने कहा कि इसने मेरे घर के बक्से के सम्मुख अपने मुख से यह स्वीकार किया था। इस बात का साक्षी वह बक्सा है। उसे यहां लाया जाए और पूछा जाए। बक्से को लाया गया और उससे पूछा गया। अंदर बैठे तीनों जन उपकोषा की धमकी सुन डर गए और सब सच उगल दिया। वणिक को सारा धन वापस करना पड़ा, उसे सजा हुई और तीनों कामदग्ध पुरुषों को राज्य से निष्कासित कर दिया गया।
प्रफुल्ल सिंह “बेचैन कलम”
युवा लेखक/स्तंभकार/साहित्यकार
लखनऊ, उत्तर प्रदेश
ईमेल : prafulsingh90@gmail.com