उज्जैन। ज्ञानार्जन सही अर्थों में मानव व्यक्तित्व के निर्माण में और उसके उद्विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यही ज्ञान न केवल परिवार या समाज में प्रतिबिम्बित होता है, वरन् वह राष्ट्र और विश्व जीवन में भी प्रतिफलित होता है। आदर्श शिक्षक वही है जो मनुष्य को अंतर्बाह्य बंधनों से मुक्त करे। ऐसे शिक्षक जब जीवन में आते हैं तब हमारा सब कुछ बदल जाता है। ऐसे ही तीन गुरुवर सदैव मेरे स्मृति पटल पर रहते हैं। प्रथम हैं भारतीय साहित्य एवं संस्कृति चिंतन के धुरीण विद्वान आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी, जिन्होंने मुझे विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन की हिंदी अध्ययनशाला में पढ़ाया और शोध निर्देशन भी किया।
दूसरे हैं दार्शनिक- काव्यशास्त्री आचार्य बच्चूलाल अवस्थी ज्ञान जिनसे कालिदास संस्कृत अकादमी के आचार्यकुल में ज्ञानार्जन किया और तीसरे हैं नाट्य चिंतक और प्रयोक्ता आचार्य कमलेशदत्त त्रिपाठी, जो कालिदास अकादमी के दो बार निदेशक रहे। इन तीनों ने मेरे मन- मस्तिष्क में अपने ज्ञान के प्रसार के साथ वह दृष्टि विकसित की जो जीवन और समाज को देखने का सही नजरिया देती है। हमारे यहाँ माना गया है- सा विद्या या विमुक्तये। सही अर्थों में विद्या वही है जो हमें मुक्ति प्रदान करती है और विद्या प्राप्त करने के बाद व्यक्ति का जो सीमित दृष्टिकोण है, वह समाप्त हो जाता है, उसका दायरा निरंतर बढ़ने लगता है। सारा संसार उसे एकरूप, एक परिवार की तरह दिखाई देने लगता है। तीनों ही गुरुवरों ने इसी गहरी विश्वदृष्टि के साथ मेरा पथ प्रदर्शन किया।
शिक्षक सही अर्थों में हमारे जीवन के लिए नायक हैं और नियामक भी हैं। मेरा सौभाग्य है कि मुझे इस तरह के शिक्षक मिले। उन्होंने आजीवन ऐसे नायकत्व का निर्वाह किया, जिसमें स्वयं वे अपने आपको दूसरे के व्यक्तित्व में रूपांतरित कर जाते हैं। साथ ही उन्होंने ज्ञान और विचार में शिष्यों की प्रवृत्ति का नियमन भी किया।
भारतीय ज्ञान परम्परा में यह माना गया है कि शिक्षा एक अविराम प्रक्रिया है जिसकी शुरूआत तो होती है, लेकिन जिसका समापन नहीं होता। यह अबाध गति से चलने वाली क्रिया है और इस तात्पर्य में शिक्षक की महनीय भूमिका को अनेकानेक माध्यमों और अभिव्यक्तियों से प्रस्तुत भी किया गया है। तीनों ही गुरुवरों ने अपनी भूमिका को बड़ी सहजता से निभाया, जिसका प्रभाव आज भी अक्षुण्ण बना हुआ है।
आदर्श शिक्षक केवल विषयबद्ध ज्ञान को ही नहीं सिखाते हैं, वे हमें तमाम विषयों के बीच के परस्परावलम्बन, एक-दूसरे के साथ के उनके रिश्ते को भी हमें समझाते हैं। यह कार्य मेरे तीनों गुरुवरों ने निरन्तर किया। शिक्षक या गुरु की रूपान्तरकारी भूमिका भारतीय चिंतन के केंद्र में है। शिक्षा का सम्बन्ध केवल साक्षर बनाने से नहीं, बल्कि व्यक्ति को सर्वांगीण, आत्मनिर्भर, भावनात्मक एवं प्रज्ञाशील बनाने से है। सन्त कबीर इसी अर्थ में कोरे आखर ज्ञान के विरुद्ध हैं। गुरुओं से प्राप्त यह शिक्षा-धन आज भी मेरी अक्षय पूँजी है।
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