डॉ. अखिल बंसल, जयपुर : 22 अप्रैल को एक ऐसे व्यक्तित्व की जन्मजयंती है जिसने देश ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व में जैनधर्म का परचम लहराया है और विश्वधर्म की अलख जगाई है। ऐसे महान व्यक्तित्व का नाम है श्वेतपिच्छाचार्य मुनि विद्यानंद! दक्षिण भारत के कर्नाटक प्रदेश स्थित शेडवाल ग्राम में 22 अप्रैल 1925 के दिन कलप्पा उपाध्याय के घर माता सरस्वती की कोख से एक ओजस्वी बालक का जन्म हुआ जिसका नाम सुरेन्द्र रखा। बालक सुरेन्द्र उपाध्याय का परिवार ब्राह्मण होते हुए भी अनेक पीढियों से जैनधर्म का पालन करता आ रहा था।
बालक सुरेन्द्र को बचपन में तैरने का बहुत शौक था वे अपने मित्र सातगोंडा पाटिल के साथ वेद गंगा और दूधगंगा नदियों में घंटों जलक्रीड़ा करते। मीलों तक आलती-पालथी मारकर नदी की सतह पर लेटे हुए तैरते जाना उनके अभ्यास में शामिल था। जल्दी ही वे कुशल तैराक बन गये। शेडवाल के दानवाड़ स्थित शांतिसागर आश्रम में बालक सुरेन्द्र की शिक्षा-दीक्षा हुई। वे संकल्प व धुन के बड़े पक्के थे। साहस व स्वाभिमान तो कूट-कूट कर भरा था। चुनौतियों व खतरों से खेलना उन्हें प्रिय था।
नेतृत्व क्षमता तो गजब की थी ही इसलिए साथियों में लोकप्रिय होते देर नहीं लगी। आश्रम में एक दिन उनकी नींद देर से क्या खुली गुरू का यह कहना कि -अगर जल्दी नहीं उठ सकते तो जिंदगी में कुछ नहीं बन सकोगे, गुरु तवण्णा की इस डांट ने उन्हें जल्दी उठना सिखा दिया। संगीत से उन्हें बहुत लगाव था इसलिए तरल गांव जाकर विधिवत संगीत सीखने लगे और उसमें पारंगत हो गये। खाली समय में बागवानी करना भी उन्हें प्रिय था।
एक बार चातुर्मास के समय दिगम्बर जैन मुनि उनके गांव के मंदिर में आकर ठहरे। छह वर्षीय बालक सुरेन्द्र घंटों उनके पास बैठते और सेवा के अवसर की तलाश में रहते। नन्हें से बालक की लगन एवं सेवा भाव देखकर मुनिश्री उन्हें आशीर्वाद देते और स्नेह से पीछी उनके सिर पर रख देते। सुरेन्द्र को पीछी का स्पर्श मंत्र मुग्ध कर देता। वे घंटों उसे निहारते, कभी हाथ में लेते तो कभी उसके पंख से गालों को सहलाते। एक दिन जब वे घर देर से पहुंचे तो मां ने ताना मारते हुए कहा- “दिन भर पीछी में रमा रहता है एक न एक दिन तेरे हाथ में बस पीछी ही रहेगी।” मां के कहे यह वाक्य कितने सटीक थे आगे चलकर बालक सुरेन्द्र क्षुल्लक पार्श्वकीर्ति और फिर मुनि विद्यानंद के नाम से विख्यात हुए।
किशोरवय में उन्हें आजीविका के लिए बहुत पापड बेलना पड़े। कभी लेथ मशीन पर काम किया, कभी प्रभात स्टूडियो में तो कभी साठे बिस्किट की फैक्ट्री में हाथ आजमाया। पर विधि को तो और ही कुछ मंजूर था। वे गांधी जी से बहुत प्रभावित थे। जब स्वाधीनता संग्राम की लपटें उठ रही थीं तो वे कैसे चुप बैठ सकते थे। 1942 के उत्तरार्ध में वे फैक्ट्री को तिलांजलि दे शेडवाल वापस आ गये और भारत छोडो आन्दोलन में कूद पड़े। मित्रों के साथ रातोंरात चौपाल के सामने वृक्ष पर तिरंगा झंडा फहरा दिया।
भारत माता की जय के नारों की गूंज से गांव का पटेल घबरा गया। उसने कहा जिसने भी झंडा लगाया है चुपचाप उतार दे वरना जेल की हवा खाने तैयार रहे। राजकोप से बचने के लिए सुरेन्द्र अपने दोस्तों के साथ अज्ञातवाश पर चले गये। सुरेन्द्र चुपचाप शेडवाल से कित्तूर आ गये और वहां सिक्ख के छद्मवेश में शुगर फैक्ट्री में काम करने लगे। घरवाले खोजबीन करते रहे पर कोई पता नहीं चला। कित्तूर के एक पाटिल परिवार से दोस्ती हो गई और उसके साथ ऐनापुर आ गये।
ऐनापुर आचार्य कुंथुसागर जी की जन्मस्थली थी वहां रहकर वे आचार्य श्री के ग्रंथों का अध्ययन करने लगे। यहीं से उनकी अध्यात्म मार्ग की यात्रा शुरु हुई। यहां उन्हें मोतीझरा ने घेर लिया, शरीर सूखकर कांटा हो गया। मित्र घबरा गया और उन्हें उनके गांव शेडवाल छोड आया। एक ओर घरवालों से मिलन की खुशी थी तो दूसरी ओर शरीर की रुग्णता की पीड़ा। णमोकार मंत्र की आराधना ने उन्हें नया रास्ता दिखाया। उन्होंने प्रण ले लिया कि यदि स्वस्थ्य हो गया तो आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करूंगा। गांधी जी जैसा मेरा वेश होगा और राष्ट्र सेवा मेरा व्रत।
संकल्प शक्ति से वे शीघ्र स्वस्थ्य हो गये। 1946 में मुनिश्री महावीर कीर्ति जी के सम्पर्क में आए। उनके प्रवचनों ने ऐसा जादू किया कि वे अब उनके होकर रह गये। सन् 1946 फाल्गुन सुदी तेरस के दिन दीक्षा लेकर सुरेन्द्र अब क्षुल्लक पार्श्वकीर्ति बन गये और साधना पथ पर अग्रसर हो गये। क्षुल्लक पार्श्वकीर्ति के रूप में विभिन्न स्थानों पर आपके 17 चातुर्मास हुए। इसी अवधि में आपने 7 वर्ष तक शेडवाल के शांतिसागर आश्रम में अधिष्ठाता पद पर रहकर विकास की गंगा बहाई। राजस्थान के सुजानगढ़ चातुर्मास काल में आपने संस्कृत के माध्यम से हिन्दी का विशेष अध्ययन कर महारत हासिल की।
अध्ययन, मनन और चिंतन से आपकी प्रतिभा निखर उठी। अनेक कृतियों का प्रणयन और प्रवचन ने समाज को आपका दीवाना बना दिया। आप जहां भी विहार करते जनमानस आपकी ओर खिंचा चला जाता। 25 जुलाई 1963 को दिल्ली के लालकिला स्थित सुभाष मैदान में आचार्य देशभूषण जी से आपने मुनिदीक्षा ग्रहण की और मुनि विद्यानंद बन गये। दिल्ली से आ. देशभूषण जी के साथ विहार करते हुए आप गुलाबी नगरी जयपुर आ गये और यहां प्रथम चातुर्मास स्थापित किया। जयपुर में आपके प्रवचन आशातीत सफल रहे।
राजस्थान के राज्यपाल डॉ. सम्पूर्णानन्द और विद्वत् शिरोमणि पं. चैनसुख दास जी न्यायतीर्थ आपके नियमित श्रोता थे। करिश्माई व्यक्तित्व के धनी मुनि विद्यानंद जी उपाध्याय, ऐलाचार्य और आचार्य पद पर शनैः-शनैः पदासीन रह देश भर में अध्यात्म का अलख जगाते रहे। आपने देश के एक कोने से दूसरे कोने तक अनेक बार पद विहार किया और जैनधर्म को विश्वधर्म के रूप में प्रतिष्ठापित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। आपने सभी को कैंची नहीं सुई-धागा बनने की प्रेरणा दी। पचास से अधिक पुस्तकों का प्रणयन किया और सामाजिक एकता को अक्षुण्य बनाए रखने हेतु- मत ठुकराओ, गले लगाओ, धर्म सिखाओ की प्रेरणा दी।”
आचार्य कुंदकुंद कृत समयसार आपके रोम-रोम में बसा था। भ. बाहुबली सहस्त्राब्दी समारोह, जन मंगल कलश प्रवर्तन, भ. महावीर 25 सौ वां निर्वाण महोत्सव, आ.कुंदकुंद द्विसहस्त्राब्दी समारोह, गोम्मटगिरि का निर्माण, हिमालय यात्रा, बाबनगजा समारोह, महावीर जी सहस्त्राब्दी समारोह, खारवेल उत्सव, भ. महावीर की जन्मभूमि वैशाली में भव्य मंदिर का निर्माण आदि ऐतिहासिक कार्यों के लिए आपकी सूझबूझ तथा तत्परता के लिए आपका नाम जैन इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा। आपकी प्रेरणा से अनेक विद्वान विभिन्न पुरस्कारों से पुरस्कृत हुए। 22 सितम्बर 2019 को दिल्ली स्थित कुंदकुंद भारती में आपकी समाधि हो गयी। ऐसे विरल व्यक्तित्व के धनी संत को युगों-युगों तक याद किया जाएगा।