“हिन्दू संस्कृति में बसंत पंचमी त्योहार का उत्सव और महत्त्व”

कोलकाता । मुख्य रूप से बसंतोत्सव भारत की छह ऋतुओं में से सर्वश्रेष्ठ इसलिए माना जाता है कि आज बसंत पंचमी के ही दिन सृष्टि के सबसे बड़े वैज्ञानिक के रूप में जाने जाने वाले ब्रह्मदेव ने मनुष्य के कल्याण हेतु बुद्धि, ज्ञान, विवेक की जननी माता सरस्वती का प्राकट्य किया। मनुष्य रूप में स्वयं की पूर्णता के परम उद्देश्य का साधन मात्र और एक मात्र भगवती सरस्वती के पूजन का महत्त्वपूर्ण दिन है। इसलिए आज के ही दिन माताएं अपने बच्चों को अक्षर आरंभ भी कराना शुभप्रद समझती हैं। माता सरस्वती के पूजन के लिए उपयोगी कुछ मंत्र एवं पूजन मुहूर्त को जानने से पहले इस ऋतु के वैदिक एवं वैज्ञानिक कारण को भी समझ लेना अत्यंत आवश्यक है।

वैदिक महत्त्व : आज के दिन पृथ्वी की अग्नि, सृजन की तरफ अपनी दिशा करती है। जिसके कारण पृथ्वी पर समस्त पेड़ पौधे फूल मनुष्य आदि गत शरद ऋतु में मंद पड़े अपने आंतरिक अग्नि को प्रज्जवलित कर नये सृजन का मार्ग प्रशस्त करते हैं। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि स्वयं के स्वभाव प्रकृति एवं उद्देश्य के अनुरूप प्रत्येक चराचर अपने सृजन क्षमता का पूर्ण उपयोग करते हुए, जहां संपूर्ण पृथ्वी को हरी चादर में लपेटने का प्रयास करता है, वहीं पौधे रंग—बिरंगे सृजन के मार्ग को अपनाकर संपूर्णता में प्रकृति को वास्तविक स्वरूप प्रदान करते हैं। इस रमणीय, कमनीय एवं रति आदर्श ऋतु में पूर्ण वर्ष शांत रहने वाली कोयल भी अपने मधुर कंठ से प्रकृति का गुणगान करने लगती है। एवं महान संगीतज्ञ बसंत रस के स्वर को प्रकट कर सृजन को प्रोत्साहित करते हैं।

वैज्ञानिक महत्त्व : भारतीय ज्योतिष में प्रकृति में घटने वाली हर घटना को पूर्ण वैज्ञानिक रूप से निरूपित करने की अद्भुत कला है। प्रकृति में प्रत्येक सौंदर्य एवं भोग तथा सृजन के मूल माने जाने वाले भगवान शुक्र देव अपने मित्र के घर की यात्रा के लिए बेचैन होकर इस उद्देश्य से चलना प्रारंभ करते हैं कि उत्तरायण के इस देव काल में वह अपनी उच्च की कक्षा में पहुंच कर संपूर्ण जगत को जीवन जीने की आस व साहस दे सकें।

मूल रूप से शरद ऋतु के ठंड से शीतल हुई पृथ्वी की अग्नि ज्वाला, मनुष्य के अंत:करण की अग्नि एवं सूर्य देव के अग्नि के संतुलन का यह काल होता है। यह मात्र वह समय है (बसंत ऋतु) जहां प्रकृति पूर्ण दो मास तक वातावरण को प्राकृतिक रूप से वातानुकूलित बनाकर संपूर्ण जीवों को जीने का मार्ग प्रदान करती है।

मन्त्रों की उपयोगिता : देवी भागवत एवं ब्रह्मवैवर्तपुराण में वर्णित आख्यान में पूर्वकाल में श्रीमन्नरायण भगवान ने वाल्मीकि को सरस्वती का मंत्र बतलाया था। जिसके जप से उनमें कवित्व शक्ति उत्पन्न हुई थी। भगवान नारायण द्वारा उपदिष्ट वह अष्टाक्षर मंत्र इस प्रकार है-
‘श्रीं ह्वीं सरस्वत्यै स्वाहा।’
‘अं वाग्वादिनि वद वद स्वाहा।’

यह सबीज दशाक्षर मंत्र सर्वार्थसिद्धिप्रद तथा सर्वविद्याप्रदायक कहा गया है। ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार –
‘ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं सरस्वत्यै बुधजनन्यै स्वाहा।’

ऐसा उल्लेख आता है कि महर्षि व्यास जी की व्रतोपासना से प्रसन्न होकर सरस्वती मां उनसे कहती हैं- व्यास! तुम मेरी प्रेरणा से रचित वाल्मीकि रामायण को पढ़ो, वह मेरी शक्ति के कारण सभी काव्यों का सनातन बीज बन गया है। उसमें श्रीरामचरित के रूप में मैं साक्षात्‌ मूर्तिमति शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित हूं –

पठ रामायणं व्यास काव्यबीजं सनातनम्‌।
यत्र रामचरितं स्यात्‌ तदहं तत्र शक्तिमान॥

भगवती सरस्वती के इस अद्भुत विश्वविजय कवच को धारण करके ही व्यास, ऋष्यश्रृंग, भारद्वाज, देवल तथा जैगीषव्य आदि ऋषियों ने सिद्धि पाई थी। इस कवच को सर्वप्रथम रासरासेश्वर श्रीकृष्ण ने गोलोक धाम के वृंदावन नामक अरण्य में रासोत्सव के समय रासमंडल के वृंदावन नामक अरण्य में रासोत्सव के समय रासमंडल में ब्रह्माजी से कहा था।
तत्पश्चात ब्रह्माजी ने गंधमादन पर्वतपर भृगुमुनि को इसे दिया था। भगवती सरस्वती की उपासना (काली के रूप में) करके ही कवि कुलगुरु कालिदास ने ख्याति पाई। गोस्वामी जी कहते हैं कि देवी गंगा और सरस्वती दोनों एक समान ही पवित्रकारिणी हैं। एक पापहारिणी और एक अविवेक हारिणी हैं-
पुनि बंदउं सारद सुरसरिता।
जुगल पुनीत मनोहर चरिता।।
मज्जन पान पाप हर एका।
कहत सुनत एक हर अबिबेका।।

भगवती सरस्वती विद्या की अधिष्ठात्री देवी हैं और विद्या को सभी धनों में प्रधान धन कहा गया है। विद्या से ही अमृतपान किया जा सकता है। विद्या और बुद्धि की देवी सरस्वती की महिमा अपार है। देवी सरस्वती के द्वादश नाम हैं। जिनकी तीनों संध्याओं में इनका पाठ करने से भगवती सरस्वती उस मनुष्य की जिह्वा पर विराजमान हो जाती हैं।

फाग बसन्त : देखा जाय तो बसंत सारे विश्व में आता है पर भारत का बसंत कुछ विशेष है। भारत में बसंत केवल फागुन में आता है और फागुन केवल भारत में ही आता है। गोकुल और बरसाने में फागुन का फाग, अयोध्या में गुलाल और अबीर के उमड़ते बादल, खेतों में दूर-दूर तक लहलहाते सरसों के पीले-पीले फूल, केसरिया पुष्पों से लदे टेसू की झाड़ियाँ, होली की उमंग भरी मस्ती, जवां दिलों को होले-होले गुदगुदाती फागुन की मस्त बयार, भारत और केवल भारत में ही बहती है। माघ शुक्ल पंचमी को “बसंत पंचमी” उत्सव मनाया जाता है।

इसे “श्री पंचमी”, ऋषि पंचमी, मदनोत्सव, वागीश्वरी जयंती और “सरस्वती पूजा उत्सव” भी कहा जाता है। इस दिन से बसंत ऋतु प्रारंभ होती है और होली उत्सव की शुरुआत होती है। बसंत पंचमी के दिन ही होलिका दहन स्थान का पूजन किया जाता है और होली में जलाने के लिए लकड़ी और गोबर के कंडे आदि एकत्र करना शुरू करते हैं। इस दिन से होली तक ४० दिन फाग गायन यानि होली के गीत गाये जाते हैं। होली के इन गीतों में मादकता, एन्द्रिकता, मस्ती और उल्लास की पराकाष्ठा होती है और कभी-कभी तो समाज व् पारिवारिक संबंधों की अनेक वर्जनाएं तक टूट जाती हैं।

प्राकृतिक बसन्त : “बसंत पंचमी” प्रकृति के अदभुद सौन्दर्य, श्रृंगार और संगीत की मनमोहक ऋतु यानी ऋतुराज के आगमन की सन्देश वाहक है। बसंत पंचमी के दिन से शरद ऋतु की विदाई के साथ पेड़-पौधो और प्राणियों में नवजीवन का संचार होने लगता है। प्रकृति नवयौवना की भाँती श्रृंगार करके इठलाने लगती है। पेड़ों पर नई कोपलें, रंग-बिरंगे फूलों से भरी बागों की क्यारियाँ, पक्षियों के कलरव और पुष्पों पर भंवरों की गुंजार से वातावरण में मादकता छाने लगती है। कोयलें कूक-कूक के बावरी होने लगती हैं।

बसंत ऋतु में श्रृंगार रस की प्रधानता है और रति इसका स्थाई भाव है, इसीलिए बसंत के गीतों में छलकती है मादकता, यौवन की मस्ती और प्रेम का माधुर्य। भगवान् श्री कृष्ण बसंत पंचमी उत्सव के अधि-देवता हैं अतः ब्रज में यह उत्सव विशेष उल्लास और बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता है| सभी मंदिरों में उत्सव और भगवान् के विशेष श्रृंगार होते हैं। वृन्दावन के श्री बांकेबिहारी और शाह जी के मंदिरों के बसंती कक्ष खुलते हैं। बसंती भोग लगाए जाते है और बसंत राग गाये जाते हैं। महिलायें और बच्चे बसंती-पीले वस्त्र पहनते हैं। वैसे भारतीय इतिहास में बसंती चोला त्याग और शौर्य का भी प्रतीक माना जाता है जो राजपूती जौहर के अकल्पनीय बलिदानों की स्मृतियों को मानस पटल पर उकेर देता है।

माँ शारदे का प्राकट्योत्सव : बसंत पंचमी ज्ञान, कला और संगीत की देवी माँ सरस्वती का आविर्भाव दिवस है। सृष्टि के प्रारंभिक काल में ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की पर वे अपनी सृजना से संतुष्ट नहीं थे, क्योंकि चारों ओर मौन छाया था। विष्णु से अनुमति लेकर ब्रह्मा ने अपने कमण्डल से जल छिड़का, पृथ्वी पर जलकण बिखरते ही उसमें कंपन होने लगा। इसके बाद वृक्षों के बीच से एक अद्भुत शक्ति का प्राकट्य हुआ। यह प्राकट्य एक चतुर्भुजी सुंदर देवी का था जिसके एक हाथ में वीणा थी तथा दूसरा हाथ वर मुद्रा में था। अन्य दोनों हाथों में पुस्तक एवं माला थी। ब्रह्मा ने देवी से वीणा बजाने का अनुरोध किया। जैसे ही देवी ने वीणा का मधुरनाद किया, संसार के समस्त जीव-जन्तुओं को वाणी प्राप्त हो गई। जलधारा में कोलाहल व्याप्त हो गया। पवन चलने से सरसराहट होने लगी। तब ब्रह्मा ने उस देवी को वाणी की देवी सरस्वती कहा। सरस्वती को बागीश्वरी, भगवती, शारदा, वीणावादनी और वाग्देवी सहित अनेक नामों से पूजा जाता है। ये विद्या और बुद्धि प्रदाता हैं। संगीत की उत्पत्ति करने के कारण ये संगीत की देवी भी हैं। ऋग्वेद में भगवती सरस्वती का वर्णन करते हुए कहा गया है-

प्रणो देवी सरस्वती…
वाजेभिर्वजिनीवती धीनामणित्रयवतु।

अर्थात ये परम चेतना हैं। सरस्वती के रूप में ये हमारी बुद्धि, प्रज्ञा तथा मनोवृत्तियों की संरक्षिका हैं।

हममें जो आचार और मेधा है उसका आधार भगवती सरस्वती ही हैं। इनकी समृद्धि और स्वरूप का वैभव अद्भुत है। वास्तव में सरस्वती का विस्तार ही बसंत है, उन्ही का स्वरुप है – बसंत अतः बसन्त पंचमी को सरस्वती के जन्मोत्सव के रूप में मनाया जाता हैं और इस दिन ज्ञान, कला और संगीत की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती की पूजा की जाती है। यह दिन विद्या आरम्भ के लिए शुभ है अतः हिन्दू रीति के अनुसार बच्चों को उनका पहला अक्षर लिखना सिखाया जाता है।

बीएचयू स्थापना दिवस : महामना पंडित मदन मोहन मालवीय जी ने वर्ष 1916 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय का शुभारम्भ भी बसंत पंचमी के दिन ही किया था। हिन्दी साहित्य की अमर विभूति और कालजयी रचना।

निराला जयंती : “वर दे, वीणावादिनि वर दे!
प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नव,
भारत में भर दे!” के रचियता महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का जन्मदिवस (28 फरवरी 1899) भी बसंत पंचमी ही था।

शास्त्रीय संगीत, खालसा पन्थ की स्थापना : भारत के शास्त्रीय संगीत के छः रागों में एक राग है “बसंत राग”। अमृतसर के हरमंदिर साहिब में बसंत पंचमी के दिन से बसंत राग क़ा गायन शुरू होता है जो वैसाखी के दिन (१३ अप्रैल) तक चलता है। वैसाखी के दिन ही सिखों के दशम गुरु गोविन्द सिंह ने खालसा पंथ की स्थापना की थी।

ज्योतिष में : भारतीय ज्योतिष में बसंत पंचमी को अत्यंत शुभ दिन माना गया है। गृह-प्रवेश या विवाह आदि मांगलिक कार्यों के लिये, नये उद्योग प्रारंभ करने और विद्या आरम्भ के लिए इसे अबूझ मंगलकारी दिन कहा गया है।

पौराणिक महत्व : इस पर्व के साथ अतीत की अनेक प्रेरक घटनाओं भी याद आती हैं। त्रेता युग की घटना है- रावण द्वारा सीता के हरण के बाद श्रीराम उसकी खोज में दक्षिण की ओर बढ़ते हुए दंडकारण्य में शबरी नामक भीलनी के आश्रम पर बसंत पंचमी के दिन ही पहुचे थे। गुजरात के डांग जिले में वह स्थान है जहां शबरी मां का आश्रम था। उस क्षेत्र के वनवासी आज भी एक शिला को पूजते हैं, जिसके बारे में उनकी श्रद्धा है कि श्रीराम आकर यहीं बैठे थे। वहां शबरी माता का मंदिर भी है।

ऐतिहासिक महत्त्व : बसंत पंचमी का दिन हमें वर्ष 1192 में पृथ्वीराज चौहान के बलिदान को भी याद दिलाता है। उन्होंने मोहम्मद गोरी को तराइन के युद्ध में पराजित किया और उदारता दिखाते हुए जीवित छोड़ दिया, पर जब दूसरी बार वे पराजित हुए, तो मोहम्मद गोरी ने उन्हें नहीं छोड़ा। वह उन्हें अपने साथ अफगानिस्तान ले गया और उनकी आंखें फोड़ दीं। गोरी ने मृत्युदंड देने से पूर्व उनके शब्दभेदी बाण का कमाल देखना चाहा। पृथ्वीराज के साथी कवि चंदबरदाई के परामर्श पर गोरी ने ऊंचे स्थान पर बैठकर तवे पर चोट करने का संकेत किया। तभी चंदबरदाई ने पृथ्वीराज को संकेत दिया।
चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण।
ता ऊपर सुल्तान है, मत चूको चौहान॥
पृथ्वीराज चौहान ने इस बार भूल नहीं की। उन्होंने तवे पर हुई चोट और चंदबरदाई के संकेत से अनुमान लगाकर जो बाण मारा, वह गोरी के सीने में जा धंसा। इसके बाद चंदबरदाई और पृथ्वीराज ने भी एक दूसरे के पेट में छुरा भोंककर आत्मबलिदान दे दिया।

वीर हकीकत राय का बलिदान : मात्र 13 वर्ष की अल्प आयु में अपने धर्म की रक्षार्थ बसंत पंचमी के दिन अपने प्राणों की आहुति देने वाले लाहौर निवासी वीर हकीकत राय के बलिदान को कैसे भूल सकते हैं। एक दिन जब मुल्ला जी मदरसे में नहीं थे, तो सब बच्चे खेलने लगे, पर वह पढ़ता रहा। मुस्लिम बच्चों ने उसे छेड़ा, तो उसने माता दुर्गा की सौगंध दी। मुस्लिम बालकों ने दुर्गा माता को गाली दी। हकीकत ने कहा कि यदि में तुम्हारी बीबी फातिमा के बारे में कुछ कहूं, तो तुम्हें कैसा लगेगा? बस फिर क्या था, मुल्ला जी के आते ही उसकी शिकायत कर दी कि इसने बीबी फातिमा को गाली दी है। बात शहर-काजी तक पहुंची।

हुक्म हो गया कि या तो हकीकत राय मुसलमान बन जाये, वरना तलवार से उसका सर काट दिया जाए। हकीकत ने मुसलमान बनना स्वीकार नहीं किया। कहते हैं – उसके भोले मुख को देखकर जल्लाद के हाथ से तलवार गिर गयी। हकीकत राय ने तलवार उसके हाथ में दी और कहा कि जब मैं बच्चा होकर अपने धर्म का पालन कर रहा हूं, तो तुम बड़े होकर अपने धर्म से क्यों पीछे हट रहे हो? इस पर जल्लाद ने दिल मजबूत कर तलवार चला दी। कहते हैं कि उस वीर का शीश धरती पर नहीं गिरा बल्कि आकाशमार्ग से सीधा स्वर्ग चला गया। यह घटना बसंत पंचमी (23/2/1734) को ही हुई थी।

वीरों का बलिदान : इस दिन हमें माँ भारती के दो अन्य महान सपूतों गुरु गोविन्द सिंह के शिष्य वीर बन्दा बैरागी और छत्रपति शिवाजी महाराज के सेनापति तन्हाजी मालसुरे को भी श्रद्धांजलि अर्पित करनी चाहिए जिनका बलिदान भी बसंत पंचमी को ही हुआ था।

बसंत पंचमी हमें गुरू रामसिंह कूका की भी याद दिलाती है। उनका जन्म 1816 ई. में बसंत पंचमी के दिन लुधियाना के भैणी ग्राम में हुआ था। गुरू रामसिंह गोरक्षा, स्वदेशी, नारी उद्धार, अंतर्जातीय विवाह, सामूहिक विवाह आदि पर बहुत जोर देते थे। उन्होंने ही सर्वप्रथम अंग्रेजी शासन का बहिष्कार कर अपनी स्वतंत्र डाक और प्रशासन व्यवस्था चलायी थी। प्रतिवर्ष मकर संक्रांति पर भैणी गांव में मेला लगता था। 1872 में मेले से आते समय उनके एक शिष्य को मुसलमानों ने घेर लिया। उसे पीटा और मुंह में गोमांस ठूंस दिया। यह सुनकर गुरू रामसिंह के शिष्य भड़क गये। उन्होंने उस गांव पर हमला बोल दिया, पर दूसरी ओर से अंग्रेज सेना आ गयी। इस संघर्ष में अनेक कूका वीर शहीद हुए और 68 पकड़ लिये गये। इनमें से 50 को 17 जनवरी 1872 को मलेर कोटला में तोप के मुह पर बाँध कर उड़ा दिया गया। शेष 18 को अगले दिन फांसी दी गयी। दो दिन बाद गुरू रामसिंह को भी पकड़कर बर्मा की मांडले जेल में भेज दिया गया। 14 साल तक वहां कठोर यातनायें सहते हुए 1885 ई. में उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया।

सूफी संत बसन्त : एक किंवदंती भी है कि 12वीं सदी के सूफी संत चिश्ती निजामुद्दीन औलिया अपने जवान भतीजे की मृत्यु से अत्यंत दुखी रहने लगे थे। मशहूर शायर अमीर खुसरो ने बसंत पंचमी के दिन कुछ औरतों को पीले कपडे पहन कर पीले फूल ले जाते देखा तो खुद भी पीले कपडे पहन कर पीले फूल लेकर चिश्ती साहब के पास पहुँचे। उन्हें देख कर चिश्ती साहब के चहरे पर हँसी आ गयी। तभी से दिल्ली में निजामुद्दीन औलिया की दरगाह और चिश्ती समूह की अन्य सभी दरगाहों पर बसंत मनाया जाने लगा।

प्रकृति बसन्त : भारत उत्सवों का देश है और यहाँ हर उत्सव अलग प्रकार का है। बसंत पंचमी उत्सव है बसंत ऋतु का, जिसके आते ही प्रकृति का कण-कण खिल उठता है। मानव तो क्या पशु-पक्षी तक उल्लास से भर जाते हैं। शिक्षाविद इस दिन माँ शारदे की पूजा कर उनसे और अधिक ज्ञानवान होने की प्रार्थना करते हैं, तो कलाकार, चाहे वे कवि हों या लेखक, गायक हों या वादक, नाटककार हों या नृत्यकार, वे सब इस दिन का प्रारम्भ अपने उपकरणों की पूजा और माँ सरस्वती की वंदना से करते हैं। साहित्यकारों के लिए बसंत प्रकृति के सौन्दर्य और प्रणय के भावों की अभिव्यक्ति का अवसर है तो वीरों के लिए शौर्य के उत्कर्ष की प्रेरणा है।

याद रहे कि माँ शारदा का प्राचीनतम मंदिर पाकिस्तान अधीकृत कश्मीर में मुज़्ज़फ़राबाद के निकट पवित्र कृष्ण-गंगा नदी के तट पर स्थित है। पौराणिक मान्यता है कि स्वयं ब्रह्मा जी ने इस मंदिर का निर्माण कर माँ शारदा को वहां स्थापित किया था इसीलिए उस मंदिर को ही माँ शारदा का प्राकट्य स्थल माना जाता है। आद्य शंकराचार्य ने इसी शारदा पीठ में माँ शारदा के दर्शन किये थे। कश्मीर पर माँ शारदा की ऐसी महती कृपा हुई कि शिवपुराण, कल्हण की राजतरंगणी, चरक-संहिता, पतंजलि का अष्टांग-योग और अभिनव गुप्त का नाट्यशास्त्र जैसे महान ग्रंथों की रचना कश्मीर में हुई थी।
इसलिए आज का दिन अत्यंत महत्व का दिन है, ऐतिहासिक और पौराणिक गाथाओं के कारण भारतीय सँस्कृति में बसन्त पंचमी अपना विशेष स्थान रखती है।

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