आशा विनय सिंह बैस, नई दिल्ली। जातक के जीवन में विदेश यात्रा के प्रबल योग हैं। अगर किसी कारणवश ऐसा न हो पाए, तब भी जीविकोपार्जन जन्मस्थान से दूर रहकर ही होगा। ऐसा मेरी कुंडली में लिखा है। विदेश वाली बात तो अभी तक सच साबित नहीं हुई है लेकिन जन्मस्थान से दूर रहने वाली बात दो सौ प्रतिशत खरी सिद्ध हुई। दो सौ प्रतिशत इसलिए कि कुंडली मे तो सिर्फ जीविकोपार्जन के बारे में लिखा था, मेरी तो ज्यादातर पढ़ाई भी जन्मस्थान से दूर ही हुई।
इंटर मीडिएट उत्तीर्ण करते ही घर से मेरा दाना-पानी उठ गया था। बीएससी की पढ़ाई के लिए बीएनडी कॉलेज, कानपुर में मेरा एडमिशन हुआ। अब मुझे कानपुर जाना था। मेरी किसी भी छोटी या बड़ी यात्रा से पूर्व पापा और अम्मा की अलग-अलग चेक लिस्ट हुआ करती थी।
पापा पूछते,”1. घर और मुहल्ले में सबके पैर छूकर आशीर्वाद ले लिया?2. सारा सामान बैग में ठीक से रख लिया??
3. बड़े नोट पैंट की अंदर वाली जेब मे और किराए के पैसे बाहर की जेब में रख लिए?? आदि आदि”
अम्मा की चेक लिस्ट कुछ ऐसी होती- “1. यात्रा के दिन दिशाशूल तो नहीं है। अगर है तो कपड़े एक दिन पहले किसी पड़ोसी के घर रखे गए कि नहीं?2. यात्रा से पहले दही खाया??
3. सूखी धनिया जेब मे रखी ??? 4.सबसे अंत मे कन्या के पैर छुए ???? और
5. यात्रा करने से पहले भोजन किया या नहीं?????
क्योंकि दो जून की रोटी सबको नसीब नहीं होती।
दूर की यात्रा के लिए तो यह फिर भी ठीक, लेकिन आधा-एक घंटे की यात्रा होती तो भी अम्मा बिना भोजन किये घर से न निकलने देती। मैं झुंझलाता कि अम्मा क्यों इतने ‘ढोंग’ करती हो। भोजन करने के चक्कर मे बस/ट्रेन में कई बार सीट नहीं मिलती। मिल जाती है तब भी गर्मी में पकना पड़ता है। ट्रैफिक अधिक होता है, इसलिए समय अधिक लगता है। सुबह जल्दी जाओ तो इन झंझटों से छुट्टी मिल जाती हैं।
लेकिन मेरे तर्क अपनी जगह और अम्मा का दृढ़ विश्वास अपनी जगह कि “घर से भोजन करके निकलो तो सब जगह खाना मिलता है। खाली पेट जाओ, तो दिन भर भूखे रहना पड़ सकता है।”
छोटा था तो अम्मा की बात मुझे माननी ही पड़ती। लेकिन अब मैं कॉलेज में पढ़ने जा रहा था, वो भी कानपुर जैसे बड़े शहर में। इसलिए अम्मा के टोटके मुझे चुभने लगे थे। ‘वैसे भी उमर के उस दौर में हर नौजवान थोड़ा वामपंथी हो ही जाता है’ इसलिए अम्मा ही क्या, मुझे तो सारा समाज और देश ही दकियानूसी, पाखंडी लगता था।
चूंकि मेरे सबसे छोटे चाचा, मुझसे पहले बीएससी की अग्निपरीक्षा से गुजर चुके थे और उनकी सारी किताबें घर मे ही रखी हुई थी। अतः मुझे सारी किताबें लेकर कानपुर जाना था। बाकी सब तैयारी तो पापा-अम्मा की चेकलिस्ट के अनुसार ही हुई, बस भोजन करके जाने वाली बात पर मैं अड़ गया कि भयंकर गर्मी का मौसम है, मैं तो सुबह जल्दी निकलूंगा, सिर्फ चाय पीकर। अम्मा ने समझाने की कोशिश की लेकिन मैंने “छोटी यात्रा और चाचा के घर ही जा रहा हूँ” का हवाला देकर तथा अपने अन्य वामपंथी तर्को से अम्मा को परास्त कर दिया।
खैर, मैंने अगले दिन सुबह छह बजे ही कानपुर की बस पकड़ ली। बस में सीट तो आसानी से मिल गई लेकिन किताबों वाली बोरी कहीं सेट न हो रही थी, तो कंडक्टर ने बस के पीछे डिग्गी में रखवा दिया। सुबह ट्रैफिक कम रहता है, अतः मात्र दो घंटे में घंटाघर बस स्टेशन पहुंच गया। वहां से मैंने गणेश (टेम्पो) पकड़ा और चाचा के घर यशोदा नगर पहुंच गया। पैर छूकर घर मे प्रवेश ही किया ही था कि चाची पूछ पड़ी, “बच्चा तुम बोल रहे थे कि सारी किताबें भी लेकर आओगे, लाये नहीं???”
किताबें? वह तो बोरी में थी और बोरी बस की डिग्गी में?? और मैं डिग्गी से बोरी निकालना ही भूल गया था।
हे भगवान!! ये तो गजब हो गया!!! मैं उल्टे पांव घंटाघर भागा। चाचा-चाची रोकते रह गए कि कुछ चाय-नाश्ता कर लो तब जाना। लेकिन मुझे डर था कि बीएससी की महंगी किताबों वाली बोरी कोई उतार न ले। फिर तो मेरे लिए सारी किताबें एक साथ खरीदना भी मुश्किल हो जाएगा। जल्दी जाऊंगा तो किताबें मिलने के चांस ज्यादा रहेंगे।
इसलिए मैं तुरंत ही गणेश जी पर सवार होकर पुनः घंटाघर पहुंचा। जिस बस से मैं आया था, उस बस के रंग-रूप की बीसों बसें वहां खड़ी थी। मुझे बस का नंबर भी याद नहीं था। टिकट तो था लेकिन अव्वल तो यह कि उत्तर प्रदेश परिवहन निगम के कंडक्टर टिकट पर बस का नम्बर लिखते नहीं, और गलती से कोई लिख भी दे तो मजाल है कि उनकी डॉक्टर जैसी लिखावट को कोई दूसरा पढ़ ले। अब क्या किया जाए?? वहाँ पर मौजूद एक- दो ड्राइवर, कंडक्टर से पूछा भी तो बोले, लालगंज से तो कई बसें आई हैं, बिना नम्बर के कैसे पता चलेगा??
मैं परिवहन निगम के ऑफिस गया, उनका भी वही प्रश्न कि बस का नम्बर बताओ, वरना तो सारी बसें एक जैसी ही होती हैं। मुझे और ज्यादा तो नहीं, बस यह याद आया कि वह बस उन्नाव डिपो की थी। इस पर वहां बैठे बाबू बोले, उन्नाव डिपों की तो सुबह से एक ही बस आई है। उसका नंबर मिल जायेगा।
मेरी जान में कुछ जान आई। बाबू जी ने लंबा सा चिट्ठा निकाला। मैंने दोनों हाथ प्रार्थना की मुद्रा में छुपाकर जोड़ रखे थे। खैर भगवान ने मेरी सुन ली और बाबू जी बोले बस का रजिस्ट्रेशन नंबर ##$%%@@ है। अब मेरा अगला प्रश्न यह कि बस है कहाँ? तो बाबू जी ने बड़ी शिद्दत से चेक करने के बाद बताया कि उक्त बस तो आधा घंटा पहले उन्नाव निकल गई।
मैंने बिना समय गवाएं उन्नाव के लिए जाने वाली बस पकड़ी। उन्नाव डिपो पहुंचकर बस के बारे में पूछताछ की तो पता चला कि बस आई तो थी लेकिन अभी कुछ देर पहले धुलाई के लिए यार्ड जा चुकी है। यार्ड वहाँ से लगभग एक किलोमीटर दूर था। मै पैदल चलकर वहाँ पहुंचा तो देखता हूँ कि बस की धुलाई चल रही है। मैंने अपनी सारी राम कहानी क्लीनिंग स्टाफ को बताई तो उन्होंने दया दिखाते हुए डिग्गी खोल दी।
मेरी खुशकिस्मती थी कि बोरी सुरक्षित रखी हुई थी। फिर भी अपने दिल को तसल्ली देने के लिए बोरी को खोलकर देखा तो सारी किताबें उसमे थी और भीगी भी नहीं थी। उन लोगों को धन्यवाद देकर (क्योंकि पैसे वगैरा देने की स्थिति में तो मै था नहीं) और अपनी बोरी लेकर उन्नाव डिपो आया, वहाँ से फिर बस पकड़कर रामादेवी (कानपुर) पहुंचा। रामादेवी से टेम्पो पकड़कर चाचा के घर गया।
दूध का जला कोल्डड्रिंक भी फूँक-फूँक कर पीता है इसलिए पूरी यात्रा के दौरान एक सेकेंड के लिए भी मैंने बोरी को अपने से अलग नहीं किया। लेकिन इस भागादौड़ी में सुबह के छह से शाम के पाँच बज चुके थे। एक जून गुजर चुका था, दूसरा जून भी समाप्त होने को था और भोजन की छोड़िए, मुझे दिन भर ढंग से पानी भी नसीब न हुआ था। उस दिन मुझे समझ आया कि दुनिया के सारे तर्क, विज्ञान अपनी जगह और मां का अनुभव, विश्वास अपनी जगह। वह सच ही कहती हैं कि : “दो जून की रोटी कई बार सब कुछ होते हुए भी नसीब नहीं होती।“
#02जून
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