जयंती विशेष : ‘जनजाति गौरव दिवस’ के प्रणेता भगवान बिरसा मुंडा

श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा। राजनीतिक स्वतंत्रता, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक ऊर्जा के संवाहक थे, भगवान बिरसा मुंडा। कभी-कभी इंसान (सृष्टि) अपने अदम्य साहस, कर्म और मानवता जन्य कार्यों के आधार पर ‘स्रष्टा’ (ईश्वर) के गौरवपूर्ण पद को प्राप्त कर अमरत्व को प्राप्त कर लेता है। सदियों से प्रकृति से अविच्छिन्न अपने रिश्ते को जोड़े हुए अपनी आदिवासी जनजातियों में व्याप्त कुरीतियों को दूर कर उनके सर्वांगीण विकास की लालसा और अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता हेतु जन-जन में नव-चेतना का संचार करने वाला आजीवन संघर्षरत काल-कोठरी की अमानुषिक यातनाओं को सहते हुए अंततः क्रूर प्रशासनिक ‘काल गरल’ को पान करने वाला आदिवासी जनजाति के गौरव शिरोमणि ‘बिरसा मुंडा’ हैं। अपने आदिवासी जनजातियों के उत्थान वर्द्धक कृतित्व के आधार पर वह महामानव उनके लिए ‘देव’ सदृश पूजनीय बन गए हैं। लोगों ने उन्हें ‘जय जोहार’ अर्थात, ‘सबका कल्याण करने वाली प्रकृति’ स्वरूप के साथ ही स्थापित कर ‘अमरत्व’ को प्रदान किया है।

आज से लगभग दो शताब्दी पूर्व वर्तमान झारखंड राज्य की राजधानी राँची के पास ही ‘चुटिया’ नामक गाँव (आज राँची का एक प्रसिद्ध मुहल्ला) के ‘पूर्ती निषाद गोत्र’ के आदिवासी प्रमुख चुटू मुंडा और नागू मुंडा रहा करते थे, जिन्होंने तत्कालीन आदिवासियों का नेतृत्व किया था। कहा जाता है कि इन दोनों मुंडा-भाईयों के नाम पर ही उस विराट वनांचल क्षेत्र का नाम ‘चुटूनागू’ जो कालांतर में ‘छोटा नागपुर’ के नाम से परिचित हो गया है। बाद में अपने परिजनों के जीविकोपार्जन के लिए उन्होंने वर्तमान ‘अड़की’ प्रखंड के पास ही पूर्णतः वनस्थली हरीतिमा और वन-चराचरों से परिपूर्ण दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र में के एक छोटे से ग्राम ‘उलीहातु’ को बसाया था।

इसी गाँव में ‘मुंडा-भाइयों’ के वंशज लकारी मुंडा हुए, जिनके कानू मुंडा, सुगना मुंडा और पसना मुंडा तीन पुत्र हुए थे। इनमें से ही सुगना मुंडा और उनकी पत्नी करमी मुंडा के विपन्न आँगन में ही 15 नवंबर 1875 को एक तेजस्वी बालक का जन्म हुआ। मुंडा परिजनों ने उस तेजस्वी शिशु के कर्मठ शरीर, सुख-सम्पन्न जीवन और उज्ज्वल भविष्य की कामना करते हुए उसका नाम ‘बिरसा’, अर्थात ‘हर तरह से सक्षम’ रखा, जो कालांतर में प्रकृति और वन-पशुओं की सनिध्यता में उपयुक्त शारीरिक शक्ति को अर्जित कर अपने नाम की सार्थकता को सिद्ध भी कर दिखाया।

बिरसा मुंडा के जन्म के बहुत दिन पहले ही उनके परिजन कुछ सुखी पारिवारिक जीवन जीने की लालसा में ‘ईसाई’ बन चुके थे। अतः ईसाइयत के अनुकूल बिरसा मुंडा का भी नाम ‘दाऊद मुंडा’ रखा गया, जिसे ‘दाऊद बिरसा’ भी कहा जाता था। आर्थिक स्थिति बिगड़ने के कारण लाचारी में खेतों में काम करने वाले ‘रैयतदार’ के रूप में काम की तलाश में बिरसा के पिता सुगना मुंडा, माँ करमी मुंडा और चाचा पसना मुंडा उलीहातू छोड़कर कूडुम्बदा और फिर चलकद गाँव में जा बसे थे।

कुछ बड़े होने पर बिरसा अपने मामा का गाँव ‘अयुबहातु’ जा पहुँचे। वहीं पर रहते हुए उनकी ‘ईसाई मिशन स्कूल’ से आरंभिक शिक्षा प्रारंभ हुई। पर वहाँ की ईसाइयत उन्हें रास न आई। ‘मुंडा’ संस्कृति से संबंधित होने के कारण उन्हें अक्सर जाति के नाम पर अपमानित किया जाता था। अतः कुछ ही दिनों के बाद वे अपनी छोटी मौसी जौनी के साथ उसके ससुराल ‘खटंगा’ में जाकर रहने लगे। लेकिन वहाँ पर भी मुंडा-धर्म-संस्कृति की आलोचना और नफरत करने वाले ईसाई धर्म-प्रचारकों से बिरसा का सामना हुआ। उनके साथ कुछ अनबन हो जाने के कारण उन्हें ‘खटंगा’ भी छोड़ना पड़ा। बाद में उन्होंने ‘बुड़जो’ और फिर चाइबासा के ‘गोस्नर एवंजिलकल लुथार चर्च स्कूल’ से शिक्षा प्राप्त की। परंतु अध्ययन काल के दौरान सर्वत्र ही उन्हें अपनी धर्म-संस्कृति संबंधित कटु आलोचनाएँ सुननी ही पड़ती रहती थी।

बिरसा मुंडा को चाइबसा के ‘गोस्नर एवं जिलकल लुथार चर्च स्कूल’ के ही ईसाई धर्म प्रचारक शिक्षक ‘नोट्रोट’ की आलोचना करने के परिणाम स्वरूप वहाँ से उन्हें निकाल दिया गया। इस घटना के बाद तो उनमें ईसाई मिशीनरी और ईसाई धर्म प्रचारकों के प्रति सुलगती घृणा तीव्र विरोध की भावना में परिणत हो गई। नतिजन मौका पाते ही बिरसा मुंडा ने उनके विरूद्ध अपनी आवाज बुलंद की – “साहब-साहब एक टोपी है” अर्थात ‘गोरे अंग्रेज और मिशनरी एक जैसे ही हैं।’ बिरसा मुंडा ने 1890 में चाईबासा को छोड़ दिया। ईसाई मिशीनरी और ईसाई धर्म प्रचारकों के प्रति विरोधजन्य कार्य में उनके कई सहपाठियों ने भी भरपूर साथ दिया।

चाईबासा से लौटने के बाद बिरसा मुंडा करीब एक वर्ष तक अपनी बड़ी बहन दसकीर के यहाँ ‘कांडेर’ गाँव में बिताया। वहीं पर उनका परिचय ‘स्वांसी जाति’ का एक प्रबल धार्मिक व्यक्ति ‘आनंद पाण्ड’ के साथ हुआ, जिनकी सानिध्यता में उन्होंने वैष्णव धर्म के सिद्धांतों, रामायण-महाभारत आदि की कथाओं को ध्यानपूर्वक श्रवण किया। फिर एक वैष्णव साधू के संपर्क में आकर उन्होंने मांस-मदिरा का सेवन भी बंद कर पूर्णतः सात्विक आहारी बन गए और अपने आदिवासी जनजाति समाज में बलि प्रथा में प्रचलित गौ-वध को भी बंद करवाया।

इसके साथ ही बिरसा मुंडा के जीवन पर अब धार्मिकता का प्रबल रंग भी चढ़ने लगा। कहा जाता है कि सन् 1895 में बरसात के एक दिन उन्हें बिजली की कड़क के साथ सर्वोच्च सत्ता का दिव्य दर्शन प्राप्त हुआ, जिससे उन्हें साधारण जनता को शोषण से मुक्त कराने का दिव्य संदेश प्राप्त हुआ। अब वह निःस्वार्थ उन्मुक्त भाव से चेचक और उससे संबंधित महामारी से पीड़ित जनों की सेवा में पूर्णतः लग गए। उनके स्पर्श मात्र से ही रोगी अच्छे होने लगे। अब तो उनके चमत्कारिक कार्यों को देखकर लोगों को विश्वास हो गया कि बिरसा कोई साधारण मानव नहीं, बल्कि अब कोई परोपकारी ‘देवदूत’ बन गए हैं।

बिरसा मुंडा ने अपने समाज और जनजातियों में जादू-टोना, बलि-प्रथा, शराब-सेवन, बहु-पत्नीवाद आदि का प्रबल विरोध किया। उन्होंने व्यक्तिगत और सामूहिक प्रार्थना पर जोर देते हुए एक नये धर्म या पंथ का सृजन किया, जिसे ‘बिरसाइत धर्म’ कहा जाता है। इस प्रकार बिरसा मुंडा आदिवासियों के लिए भगवान हो गए और उन्हें ‘धरती आबा’ कहा जाने लगा। उनके अनुयायी आज भी वनांचल प्रदेश में बहुसंख्यक पाए जाते हैं। लेकिन ‘धरती आबा’ बिरसा मुंडा, अंग्रेजों के साथ-साथ अब मिशनरियों की आँखों की किरकिरी बन गए थे। अंग्रेजों एवं मिशनरियों को उनके मकसद के मार्ग में ‘धरती आबा’ अब एक सबसे बड़े बाधक के रूप में खड़े हो गए थे।

ऐसे ही समय छोटा नागपुर पठार क्षेत्र में कृषि और वाणिज्य में अंग्रेज व्यापारियों और उनके साथ ही अंग्रेज अधिकारियों का आधिपत्य बढ़ने लगा। जो अक्सर जनजातियों की जमीन से लेकर माल-मवेशी और घर पर भी जबरन कब्जा कर लिया करते थे। उनके अत्याचार और शोषण के विरूद्ध वहाँ के ग्रामीण सरदारों ने अपनी सामाजिक-आर्थिक अस्मिता की रक्षा के लिए ‘सरदारी आंदोलन’ प्रारंभ कर दिया, जिसकी रूपरेखा से प्रभावित होकर बिरसा मुंडा ने भी वन और भूमि संबंधित अधिकारों की माँग को लेकर ‘सरदारी आन्दोलन’ का अपना पूर्ण समर्थन प्रदान किया। उन्होंने 1 अक्टूबर 1894 को सभी मुंडाओं को एक स्थान पर एकत्र कर अंग्रेजो को लगान न देने के लिए प्रेरित करते हुए आन्दोलन प्रारंभ किया। 1895 में अंग्रेज बिरसा मुंडा को गिरफ़्तार कर हजारीबाग के केन्द्रीय कारागार में दो साल के लिए कठोर कारावास की सजा सुनाते हुए डाल दिया।

लेकिन बिरसा मुंडा का आन्दोलन मूलतः सुधारवादी सिद्धांतों पर आधारित ‘सरदारी आंदोलन’ के अनुरूप ही चल रहा था, जिसके अन्तः में ईसाई मिशनरियों, जमींदारों तथा अंग्रेजों के शोषण के विरूद्ध स्वर भी गुंजित होने लगे थे। बिरसा आन्दोलन का आर्थिक उद्देश्य दिकू जमींदारों (गैर-आदिवासी जमींदार) द्वारा हथियाए गए भूमि की वापसी करवाना था। इस के लिए बिरसा मुंडा ने ‘उलगुलान’ (महान हलचल) आंदोलन का आयोजन किया था। उनके समर्थकों ने ‘बिरसा राज’ के प्रतीक स्वरूप सफेद रंग के झंडे को अपनाया था। 1897 में बिरसा और उनके चार सौ साथियों ने तीर कमानों से खूंटी थाने पर धावा बोल दिया।

आन्दोलन को फैलाने और अंग्रेजी राज के आर्थिक तथा प्रशासनिक नुकसान पहुँचाने के जुर्म में बिरसा मुंडा को अंग्रेजों ने ‘चलकद’ गाँव से गिरफ्तार कर लिया गया । बिरसा और उनके साथियों को 19 नवम्बर 1895 को दोषी करार देकर उन्हें दो वर्षों के सश्रम कारावास और 50 रूपया जुर्माने की सजा सुनाई गई। बिरसा मुंडा को हजारीबाग जेल भेज दिया गया। दो वर्षों की सजा के उपरांत बिरसा को किसी भी आंदोलन में न भाग लेने के शर्त पर 30 नवंबर 1897 को हजारीबाग के जेल से रिहा किया गया।

परंतु बिरसा मुंडा जेल से निकलते ही अंग्रेजों के हिदायत के विपरीत अपने वनांचल क्षेत्र से अंग्रेज दुश्मनों को मार भगाने और अपनी जनजातियों तथा आदिवासियों के खोए हुए अधिकारों की प्राप्ति हेतु अपने संगठन को और मजबूत करने पर विशेष बल दिया। फिर बड़ा दिन (क्रिसमस) के एक दिन पूर्व अर्थात, 24 दिसम्बर 1899 को चक्रधरपुर थाने और राँची जिले के खूँटी, कर्रा, तोरपा, तमाड़, पोडाहाट और बसिया थानों के अंतर्गत विद्रोह की भयानक आग दहक उठी।

बिरसा के अनुयायी जोर-शोर से नारे लगाते, – ‘हेन्दे राम्बड़ा रे केच्चे, केच्चे, पूंडी राम्बड़ा रे केच्चे-केच्चे।’ अर्थात ‘काले ईसाइयों और गोर ईसाईयों का सर काट दो।’ परंतु इस विद्रोह का स्वरूप ऐसा रखा गया कि उस हमले में कोई भी ईसाई न मारा गया, क्योंकि रक्तपात करना उनका उद्देश्य ही न था। हाँ, कुछ ईसाई घायल अवश्य हुए थे।

‘बिरसा आंदोलन’ को कुचलने के लिए अंग्रेज अधिकारियों ने बड़ा कठोर कदम उठाया। आदिवासी और जन जातियों से संबंधित युवकों को जबरन गिरफ्तार कर जेल में डालने लगे । ऐसे ही समय बिरसा मुंडा के नेतृत्व में बड़ी संख्या में विद्रोही मुंडा तीर-धनुष से लैस मशाल लिए पहाड़ी गाँव साईलरकब-डोम्बरी में इकट्ठा हो रहे थे। इसकी सूचना पाकर बड़ी संख्या में पुलिस वहाँ पहुँच गई। देखते ही देखते पुलिस अधिकारी स्ट्रीट फील्ड के नेतृत्व में पुलिस दल ने गोलीबारी शुरू कर दी।

इसका जवाब विद्रोहियों ने भी पत्थरों और तीरों से दिया। भला बंदूकों और गोलियों का मुकाबला पत्थर और तीरों से कब तक किया जा सकता था। महिलाएँ तथा बच्चों समेत अनगिनत लोग मारे गये। अंतत: 3 फरवरी 1900 को जमकोपाई जंगल में बिरसा मुंडा को फिर से गिरफ्तार कर लिया गया और कई अपराधों के लिए उन्हें दोषी साबित कर राँची के जेल में डाल दिया गया।

9 जून 1900 की सुबह 9 बजे के आस-पास राँची जेल से बिरसा मुंडा की हैजा से मृत्यु की खबर फैल गई । जबकि एक दिन पूर्व ही हैजे संबंधित कोई सूचना न थी। इसीलिए संभावनाएँ व्यक्त की जाती रही है कि जेल में बिरसा मुंडा को जहर देकर मार दिया गया था। इस तरह से छोटा नागपुर की धरती के इस वीर सपूत को मात्र 25 वर्ष की आयु में अकाल मृत्यु की शैय्या पर सुला दिया गया।

परंतु बिरसा मुंडा अपनी अकाल मृत्यु को प्राप्त कर अपने आदिवासी और जनजाति समाज में चीर ‘देवत्व’ को प्राप्त कर गए। फिर तो लोग उनको ‘धरती आबा’ अर्थात, ‘पृथ्वी के पिता’ तथा ‘भगवान बिरसा मुंडा’ के नाम से प्रतिध्वनित करने और पूजने लगे। कालांतर में भी उनका वह आंदोलन अंग्रेजी शासन के विरूद्ध भारत में तामार, संथाल, खासी, भील, मिज़ो, कोल आदि आदिवासी व जनजातीय आंदोलनों के रूप में गतिशील बनी रही। इस प्रकार ‘बिरसा आंदोलन’ की अनुगूंज स्वतंत्रता के पूर्व के इतिहास से गूंजती हुई स्वतंत्रता आंदोलन को गति देती रही। ‘बिरसा आन्दोलन’ की सफलता के संदर्भ में देखा जाए, तो 1908 में ‘छोटा नागपुर काश्त-कारी अधिनियम’ बनाया गया। इसके आधार पर एक शताब्दी से चली आ रही भूमि उपद्रवों की काली तांडव वाली रात समाप्त हुई।

‘भगवान बिरसा मुंडा’ की जयंती को स्मरण कर देश भर में प्रतिवर्ष 15 नवंबर को अपनी सांस्कृतिक विरासत व प्रकृति के संरक्षण, राष्ट्रीय गौरव, वीरता, त्याग आदि जनित भारतीय मूल्यों को बढ़ावा देने तथा आदिवासियों के प्रयासों को नमन करने हेतु ‘जनजातीय गौरव दिवस’ के रूप में मनाने की वृहद परंपरा चल पड़ी है। इस विशेष अवसर पर बहादुर आदिवासी, स्वतंत्रता सेनानियों तथा आदिवासी जनजातियों के उत्थान कार्य में कार्यरत व्यक्तियों को सम्मानित करने की भी योजना रहती है।

‘भगवान बिरसा मुंडा’ जी के विविध कार्य प्रकृति और पर्यावरण की सदैव रक्षा करते हुए शोषण का विरोध और अपने अधिकारों की रक्षा करने का मार्ग प्रशस्त करते रहा है, जो प्रकृति और पर्यावरण के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए आज भी प्रासांगिक है। फलतः उसी के अनुरूप बिरसा मुंडा आज देश के जनजाति और आदिवासियों के ‘भगवान बिरसा मुंडा’ के रूप में आदरणीय और पूजनीय हैं।

बिरसा मुंडा के स्मरण में उनकी समाधि राँची में कोकर के पास स्थित है। उनकी स्मृति में राँची में ‘बिरसा मुंडा केंद्रीय कारागार’ तथा ‘बिरसा मुंडा अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र’ भी है । 2021 को भारत सरकार ने प्रतिवर्ष 15 नवंबर यानी ‘बिरसा मुंडा की जयंती’ को ‘जनजातीय गौरव दिवस’ के रूप में मनाने की घोषणा की उन्हें राष्ट्र-सम्मान प्रदान किया है।

श्रीराम पुकार शर्मा, लेखक 

ई -मेल सम्पर्क – rampukar17@gmail.com

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