अमितेश कुमार ओझा : विगत २६ फरवरी के ५ राज्यों के चुनाव की घोषणा हो चुकी है ,बस अब इंतजार है तो चुनाव के शांति पूर्ण रूप से सफल होने और चुनाव परिणाम की घोषणा पर । एक राज्य में चुनाव करवाने में ना जाने कितने करोड़ रुपए का खर्च आता होगा इसका अंदाजा आम जनता को आज तक नहीं हो सका। लेकिन उससे कई गुना ज्यादा पैसा राजनीतिक दलों द्वारा खर्च किया जाता है । चुनाव आयोग के अनुसार राजनीतिक दल के लिए चुनाव में खर्च करने की कोई सीमा नहीं है जबकि एक कैंडिटेट द्वारा खर्च की सीमा तय की गई है ।
एक लोकसभा सीट पर एक उममीदवार द्वारा 70 लाख रुपए , जबकि एक विधानसभा के विधायक उमीदवार के लिए 28 लाख रुपए की सीमा तय है ,केंद्रशासित प्रदेशों में यह राशि की सीमा कुछ कम है । २०२० में बिहार के विधानसभा सभा चुनाव में यह बात सुर्खियों में रही कि पार्टियों द्वारा खर्च की जाने वाली राशि की सीमा बढ़ाई जाए क्योंकि कॉरोना के कारण जनता की सहायता के लिए अधिक पैसों का खर्च हो रहा है । आखिर जब आम जनता के पास पैसों की किल्लत थी तो नेताओ के पास इतना पैसा कहां से आएगा की ये चुनाव आयोग की सीमा बढ़ाने को कहने लगे । इसे सही तरीके से देखा जाए तो इसका लगभग दुगुना तिगुना रुपए उम्मीवारों द्वारा खर्च किए जाते है।
जबकि चुनाव आयोग को इसकी भनक तक नहीं लगती । लाखों रुपए तो बैनर,पोस्टर और चुनावी प्रचार में ही लग जाते होंगे । एक सीट के लिए करीब करीब ५ से ६ (कहीं कहीं उससे भी ज्यादा) पार्टियों द्वारा नामांकन किया जाता है । तो सोचिए ना जाने कितने रुपए एक चुनाव के लिए खर्च होते होंगे। आखिर ये पैसा कहां से आते होंगे । चुनाव लड़ने से पहले बड़े बड़े वादे होते है, अगर हमारी सरकारें आयी तो हम ये कर देंगे वो कर देंगे जबकि एक चुनाव लड़ने के बाद विधायक लखपति से करोड़पति हो जाता है।
चुनाव के समय जो नेता कभी अपने इलाकों में कहीं नजर नहीं आते थे उनका भी प्यार गरीबों के प्रति ३-४ महीनों के लिए बढ़ जाते है । आखिर चुनाव में खर्च हुए पैसे आम जनता के कल्याण के लिए होते है जिससे बाद में अन्य तरीकों से उपयोग में लाया जाता है । देश में सिर्फ आम जनता की आय का रिकॉर्ड चेक किया जाता है जबकि सही मायनों में देखा जाए तो आम जनता से ज्यादा नेताओ की आय की कड़ाई से निगरानी होनी चाहिए ।