कोलकाता। अगस्त के महीने में पूरे देश में स्वतंत्रता दिवस के जश्न की तैयारियां जोरों पर हैं और राष्ट्रवाद की लहरें उठ रही हैं। ऐसे में गुमनाम क्रांतिकारियों की दास्तान पाठकों के समक्ष लाने की हम अपनी प्रतिबद्धता के तहत आज बात करेंगे पश्चिम बंगाल की वीरांगना 72 साल की मातंगिनी हाजरा के बारे में। उनके लिए काले अक्षर भैंस बराबर थे लेकिन महात्मा गांधी के आह्वान पर आजादी की लड़ाई में कूद पड़ीं और 72 साल की उम्र में हाथों में तिरंगा लहराते हुए बर्बर गोरी फौज की अंधाधुंध फायरिंग को सीने पर झेला लेकिन हाथ से तिरंगा नहीं छूटा। इसलिए इन्हें “बूढ़ी गांधी” के नाम से जाना जाता है।
मातंगिनी हाजरा ने जीवन भर जो दर्द सहा वह सोचकर भी रूह कांप जाती है। इतिहासकार नागेंद्र सिन्हा अगस्त क्रांति के बलिदानियों के बारे में लिखी अपनी किताब में बताते हैं कि तत्कालीन बंगाल प्रांत के मेदिनीपुर जिले के होगला ग्राम में अत्यंत निर्धन परिवार में 19 अक्टूबर 1870 को मातंगिनी हाजरा का जन्म हुआ था। गरीबी की वजह से पिता ने महज 12 साल की उम्र में 62 वर्षीय विधुर त्रिलोचन हाजरा से उनका विवाह कर दिया। सौतेले बच्चों ने कभी भी मातंगिनी को स्वीकार नहीं किया।
इस बीच महज 18 साल की उम्र में वह नि:संतान ही बाल विधवा हो गईं। सौतेले बच्चों ने जब उन्हें घर से निकला तब नजदीक के ही शहर तमलुक में एक झोपड़ी बनाकर रहने लगीं और मजदूरी कर जीवन यापन कर रही थीं। इसी तरह से अकेले रहते हुए उनके जीवन के 44 साल गुजर गए। तब के समय में जब महिलाओं को घर से बाहर जाने की अनुमति नहीं थी।
तब उनकी भी जिंदगी उसी झोपड़ी के अंदर सीमित हो गई थी। 62 साल की उम्र तक उन्हें स्वाधीनता आंदोलन के बारे में कोई जानकारी ही नहीं थी। यह क्या है क्यों हो रहा है कुछ नहीं जानती थीं। लेकिन अब अपने क्षेत्र में उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के अत्याचार देखा और आसपास के लोगों से महात्मा गांधी के आंदोलन के बारे में जानकारी मिली तो उन्हें अपने बाकी जीवन का मकसद मिल गया।
वतन के प्रति इस बूढ़ी साबला का क्या जुनून था इसका अंदाजा इसी बात से लगाइए की 1932 में एक दिन जब वंदे मातरम का उद्घोष करता हुआ सविनय अवज्ञा आंदोलन का एक जुलूस उनके घर के पास से निकला तो 62 साल की मातंगिनी हाजरा ने बंगाली परंपरा के अनुसार शंख ध्वनि से उसका स्वागत किया और उसके बाद जुलूस के साथ चल पड़ीं। यहां तमलुक के कृष्णगंज बाजार में हुई एक सभा में मातंगिनी ने सब के साथ स्वाधीनता संग्राम में तन मन धन से देश सेवा की शपथ ली।
नमक कानून तोड़कर जेल की सजा भी काटी
महात्मा गांधी के आह्वान पर बाकी क्रांतिकारियों के साथ उन्होंने भी नमक बनाकर नमक विरोधी कानून तोड़ा और गिरफ्तार हुईं। उन्हें कई किलोमीटर तक नंगे पैर चलने की सजा दी गई और उसे बूढ़ी उम्र में भी उन्होंने सजा काटी भी। अनपढ़ मातंगिनी पर देश भक्ति का रंग ऐसा चढ़ा कि अपना परिवार नहीं होने की वजह से आसपास की जिस किसी भी महिला को मदद की जरूरत पड़ती वह कूद पड़ती थीम।
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1932-33 के दौरान इलाके में चेचक और हैजा जैसी बीमारियां फैल गईं। नि: संतान मातंगिनी बच्चों और महिलाओं के लिए मां बन गई थीं और सब की सेवा करती रहीं। धीरे-धीरे उनकी देखा देखी अन्य महिलाएं भी सविनय अवज्ञा आंदोलन में कूद पड़ीं। जनवरी 1933 में कर बंदी आंदोलन को दबाने के लिए बंगाल के तत्कालीन गवर्नर एंडरसन तमलुक आए तो उनके विरोध में जबरदस्त प्रदर्शन हुआ।
वीरांगना मातंगिनी हाजरा उस विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व कर रही थीं और काला झंडा लिए डटी थीं। इस पर पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और उस बूढ़ी उम्र में उन्हें छह महीने की सश्रम कारावास की सजा देकर मुर्शिदाबाद जेल में बंद कर दिया गया। वहां अन्य गांधी वादियों के संपर्क में वह आईं और रिहा होने पर एक चरखा लेकर खादी के कपड़े बनाने लगीं।
खुद भी खादी पहनती थीं और दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करती थीं। इसीलिए लोगों ने उन्हें बूढ़ी गांधी नाम दे दिया और उसी नाम से पुकारने लगे। जब उनकी उम्र 72 साल थी तब सितंबर 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन की कमान तमलुक में उन्होंने संभाली। मेदिनीपुर जिले में जब सभी सरकारी कार्यालयों और थाने पर तिरंगा लहराकर अंग्रेजी राज खत्म करने का सांकेतिक आंदोलन शुरू हुआ तब वह उसमें सबसे आगे थीं।
29 सितंबर 1942 को एक निहत्था विशाल जुलूस तमलुक की कचहरी और पुलिस लाइन पर कब्जा करने के लिए आगे बढ़ रहा था। मातंगिनी इसमें सबसे आगे थीं। करीब 6000 स्वयंसेवकों के इस जुलूस का नेतृत्व मातंगिनी ने किया जिसमें अधिकतर महिला स्वयंसेवक थीं। जैसे ही जुलूस तमलूक से आगे बढ़ा, पुलिस ने घेर कर बंदूकें तान दी। प्रदर्शनकारियों को रुकने का आदेश दिया गया।
इससे जुलूस में खलबली मच गई और लोग बिखरने लगे लेकिन तभी 72 साल की बूढ़ी मातंगिनी तिरंगा लहराते हुए आगे आईं। उनके हौसले को देख जुलूस का उत्साह सातवें आसमान पर था। अंग्रेजी फौज के सामने मातंगिनी ने नारा लगाया, “मैं फहराउंगी तिरंगा, मुझे कोई रोक नहीं सकता।” इसके बाद वंदे मातरम का उद्घोष करते हुए आगे बढ़ चलीं। लोगों ने उनकी ललकार का साथ दिया और आगे बढ़ने लगे।
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इसके बाद अंग्रेज कप्तान ने फायरिंग का आदेश दिया और गोलियों से छलनी होकर 72 साल की वह वीरांगना लहूलुहान होकर मां भारती पर गिर पड़ीं। लेकिन उनके हाथों से लहराता हुआ तिरंगा नहीं छूटा। अंग्रेजी हुकूमत की बर्बरता कैसी थी की बूढ़ी गांधी के सीने पर गोली मारी। उनकी याद में तमलुक शहर में बाद में विशाल स्मारक बनाया गया जहां तिरंगा लिए हुए मातंगिनी हाजरा की विशाल प्रतिमा है।
बाद में कोलकाता के मशहूर धर्मतल्ला इलाके में भी मातंगिनी हाजरा की एक विशालकाय प्रतिमा लगाई गई जो महानगर में लगने वाले किसी महिला की पहली प्रतिमा है। उनके सम्मान में दक्षिण कोलकाता की एक सड़क का नाम मातंगिनी हजरा रोड और एक मोड़ का नाम भी मातंगिनी हाजरा (अब उसे हाजरा) मोड़ दिया गया है।