बंगाल के जमींदार परिवारों में दुर्गा पूजा की परंपराओं को कायम रखने का प्रयास

कोलकाता। कोलकाता के बीचोंबीच जानबाजार इलाके में एस एन बनर्जी मार्ग पर पीले रंग और ऊंची-ऊंची छत वाला एक घर पूरे ब्लॉक में फैला हुआ है जिसमें फ्रेंच स्टाइल की खिड़कियां हैं। दूसरी गली में मुड़ें तो एक महलनुमा इमारत में एक गेटेड, धनुषाकार सुरंग जैसा ड्राइववे आता है, जो एक विशाल प्रांगण में खुलता है। यहां से चौड़ी-चौड़ी सीढ़ियां ‘ठाकुर दलान’ (पूजा के लिए बड़े हॉल) की ओर जाती हैं।

कोरिंथियाई (यूनानी वास्तुशिल्प की एक शैली) के खंभों से घिरे दलान में परंपरागत परिधान में एक ऊंची दुर्गा प्रतिमा है। पूजा के समय यहां ‘ढाकी’ ढोल बजाते हैं और घर की महिलाएं शंखनाद करती हैं। महानगर के सबसे पुराने जमींदार परिवारों में से एक के रानी रासमणि महल स्थित आवास पर यह पूजा होती है।

कोलकाता के महलों में दो सदी से अधिक समय से जमींदारी शैली में दुर्गा पूजा होती चली आ रही है, वहीं पास के दूसरे जिलों में महलों में समारोह और पहले से होते आ रहे हैं। देश की आजादी के बाद कुछ प्रभावशाली परिवारों की बड़ी संपदाएं चली गयीं तो कुछ कई हिस्सों में बंट गये और परंपरागत पूजा में कमी आई लेकिन पूजा के दौरान यहां उत्साह देखते ही बनता है।

रानी रासमणि (राशमोनि) के परिवार के वंशज प्रसून हाजरा ने कहा, ‘‘दुर्गा पूजा की शुरुआत 1792 में हुई थी। अन्य प्रतिमाओं से अलग हमारी दुर्गा ‘तप्त कंचन’ (पिघले हुए सोने) के रंग की हैं। हमारे आंगन में रामकृष्ण परमहंस समेत अनेक महापुरुष आये हैं।’’

रानी रासमणि को बंगाल के मछुआरों पर कर लगाने के प्रयासों के विरोध में ईस्ट इंडिया कंपनी से लोहा लेने और शहर के बाहरी इलाके में विशाल दक्षिणेश्वर काली मंदिर की स्थापना तथा रामकृष्ण परमहंस को इसका संरक्षण देने के लिए जाना जाता है। रामकृष्ण परमहंस के शिष्य स्वामी विवेकानंद ने उनके नाम पर मिशन केंद्र स्थापित किया था।

यहां से करीब 4.4 किलोमीटर दूर शोभाबाजार पैलेस में शहर की दो पुरानी पारिवारिक पूजा होती हैं। ‘चोटो तराफ’ की दुर्गा पूजा महाराजा नभकृष्ण देब के परिवार ने शुरू की थी। महानगर में ऐसी अनेक पूजा होती हैं।

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