अशोक वर्मा “हमदर्द”, कोलकाता। सुशीला देवी का जीवन सास के अधिकारों और दहेज की अपेक्षाओं में उलझा हुआ था। उनके बेटे रवि की शादी के बाद घर में बहू प्रांजल आई। प्रांजल सुंदर, संस्कारी और सहनशील थी, लेकिन सुशीला देवी की दृष्टि में उसकी सबसे बड़ी कमी यह थी कि वह दहेज के साथ अधिक धन नहीं लाई थी।
प्रांजल का जीवन एक संघर्ष बन गया। सुशीला हर बात पर उसे ताने देती, “आजकल की बहुएं कुछ भी लेकर नहीं आतीं, बस आराम चाहती हैं।” रवि, मां के आगे कमजोर पड़ जाता और अपनी पत्नी का साथ नहीं दे पाता। प्रांजल यह सब चुपचाप सहती रही, क्योंकि उसने अपने संस्कारों में यही सीखा था कि परिवार की एकता सबसे महत्वपूर्ण होती है।
वक्त गुजरता गया। सुशीला देवी की बेटी श्वेता अपनी शादीशुदा जिंदगी में व्यस्त हो गई। मां से उसका लगाव सीमित हो गया और वह केवल जरूरत पड़ने पर फोन कर लेती। कुछ वर्षों बाद सुशीला देवी बीमार रहने लगीं। उम्र बढ़ने के साथ उनका शरीर कमजोर हो गया। धीरे-धीरे वह बिस्तर से लग गई। अब उन्हें हर काम के लिए किसी सहारे की जरूरत थी। यह वह समय था जब श्वेता ने खुलकर कह दिया, “मां, मैं नहीं आ सकती। बच्चों को स्कूल छोड़ना होता है, घर संभालना होता है, और मेरे पति भी अनुमति नहीं देंगे। आप तो जानती हैं, नौकरी के साथ सब मैनेज करना मुश्किल है।”
सुशीला देवी का दिल टूट गया। उनकी वही बेटी, जिसे उन्होंने हमेशा सर आंखों पर रखा था, अब दूर खड़ी थी। लेकिन उनके पास प्रांजल थी। वही प्रांजल, जिसे उन्होंने कभी अपना नहीं माना था, आज बिना शिकायत उनके हर दर्द का सहारा बन गई। सुशीला देवी को हर सुबह प्रांजल उठाती, उन्हें नहलाती, खाना खिलाती, और हर वक्त उनके पास रहती। प्रांजल के हाथों की मालिश से सुशीला को आराम मिलता। एक दिन प्रांजल के माथे पर पसीना देखकर सुशीला देवी की आंखों में आंसू आ गए। उन्होंने धीमे स्वर में कहा, “बहू, तुझे मेरी सेवा करने की जरूरत नहीं है। मैं जानती हूं, मैंने तुझ पर बहुत अत्याचार किए हैं। मुझसे जो हुआ, उसके लिए मुझे माफ कर दे।”
प्रांजल ने उनकी ओर देखकर मुस्कुराते हुए कहा, “मां, यह सेवा नहीं, मेरा कर्तव्य है। आपने अपने बेटे को मुझे सौंपा है। मेरे लिए इससे बड़ा सौभाग्य क्या होगा? आप मेरी मां समान हैं। मैं यह सब बदले में नहीं कर रही, बल्कि अपने दिल से कर रही हूं।” सुशीला देवी फूट-फूटकर रोने लगीं। उन्हें अपनी गलतियां साफ दिखाई देने लगीं। उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी बेटी को प्राथमिकता दी, लेकिन आज वही बहू उनके अंतिम सहारे के रूप में खड़ी थी।
समय के साथ सुशीला देवी का स्वास्थ्य और बिगड़ता गया। लेकिन प्रांजल ने उनके साथ कभी अपने कर्तव्यों में कमी नहीं आने दी। सुशीला देवी के दिल में अब प्रांजल के लिए केवल कृतज्ञता और ममता थी।
अपने आखिरी दिनों में सुशीला देवी ने प्रांजल का हाथ पकड़कर कहा, “बेटी, आज समझ में आया कि ममता खून के रिश्तों से नहीं, दिल के रिश्तों से होती है। तूने मुझे मेरी गलती का एहसास कराया। मैं तुझसे हर ताने और हर अपमान के लिए माफी मांगती हूं।”
प्रांजल की आंखों में आंसू थे। उसने कहा, “मां, माफी मत मांगिए। आप मेरी मां हैं। आपसे तो मैंने जीना और सहना सीखा है। आपका आशीर्वाद ही मेरी असली दौलत है।” इस रिश्ते की यह नई परिभाषा देखकर सुशीला देवी ने अपनी आखिरी सांस भरी। उनके चेहरे पर संतोष का भाव था, और उनके दिल में प्रांजल के लिए असीम प्यार।
यह कहानी यह सिखाती है कि सच्चे रिश्ते खून से नहीं, बल्कि त्याग, कर्तव्य और प्रेम से बनते हैं। प्रांजल ने यह साबित कर दिया कि सास-बहू का रिश्ता भी मां-बेटी जैसा हो सकता है, अगर इसमें ममता और समझ हो।
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