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वाराणसी। आशादशमी व्रत की विधि : श्रद्धालु आज आशा दशमी का व्रत रखेंगे। इस व्रत के प्रभाव से राजपुत्र अपना राज्य, किसान खेती, वणिक व्यापार में लाभ, सन्तानहीन को सन्तान, कन्या श्रेष्ठ वर प्राप्त करती हैं। और पति के चिर प्रवास हो जाने पर स्त्री उसे शीघ्र प्राप्त कर लेती हैं।
आशादशमी व्रत किसी भी मास की शुक्ल पक्ष की दशमी को किया जाता हैं। इस दिन प्रात:काल स्नान करके देवताओं की पूजा कर रात्रि में पुष्प रोली चन्दन आदि से दस आशादेवियों की पूजा करनी चाहिये। दसों दिशाओं में घी के दीपक जलाकर धुप, दीप, नैवैद्य, फल आदि समर्पित करना चाहिये। अपने कार्य की सिद्धि के लिये इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये।
आशाश्रचशा: सदा सन्तु सिद्धय्नताम मे मनोरथा:।
भवतिनाम प्रसादेन सदा कल्याणमसित्व्ती।।
‘हे आशा देवियों! मेरी आशाएं सदा सफल हों, मेरे मनोरथ पूर्ण हो, आपके अनुग्रह से मेरा सदा कल्याण हो।’
इस प्रकार विधिवत पूजा कर ब्राह्मण को दक्षिणा प्रदान कर प्रसाद ग्रहण करना चाहिये। इसी कर्म से प्रत्येक मास में इस व्रत को करना चाहिये। जब तक मनोकामना पूर्ण न हो इस व्रत को विधिवत करते रहे। मनोकामना पूर्ण होने पर उद्यापन करनी चाहिये।
आशादशमी व्रत के उद्यापन विधि : उद्यापन में आशादेवियों की सोने, चांदी अथवा पिष्टातक से प्रतिमा बनाकर घर के आगन में उनकी पूजा करके ऐन्द्री, आग्रेयी, याम्या, नैऋति, वारुणी, वाल्व्या, सौम्या, ऐशनी, अध्: तथा ब्राह्मी इन दश आशा देवियो से अभीष्ट कामनाओं की सिद्धि के लिये प्रार्थना करनी चाहिये। साथ ही नक्षत्रो, ग्रहों, ताराग्रहो, नक्षत्रों मातृकाओ, भूत-प्रेत, विनायकों से भी अभीष्ट सिद्धि के लिए प्रार्थना करनी चाहिये।
पुष्प, फल, धुप, गंध, वस्त्र आदि से उनकी पूजा करने चाहिये। सुहागिन स्त्रियो को नृत्य, गीत आदि के द्वारा रात्रि जागरण करना चाहिये। प्रात: काल विद्वान् ब्राह्मणों को सब कुछ पूजित पदार्थ निवेदित करना चाहिये। बन्धु – बांधवों एवं मित्रों के साथ प्रसन्न मन से भोजन करना चाहिये।
व्रत कथा : प्राचीन काल में निषद देश में नल नाम के एक राजा थे। उनके भाई जुए में जब उन्हें पराजित के दिया, तब नल अपनी भार्या दमयन्ती के साथ राज्य से बाहर चले गये। वे प्रतिदिन एक वन से दुसरे वन में भ्रमण करते रहते थे, केवल जल मात्र से ही अपना जीवन निर्वाह करते थे और जनशून्य भयंकर वनों में घूमते रहते थे। एक बार राजा ने वन में स्वर्ण सी क्रांति वाले कुछ पक्षियों को देखा। उन्हें पकड़ने की इच्छा से राजा ने उनके ऊपर वस्त्र फैलाया, परन्तु वे सभी उस वस्त्र को लेकर आकाश में उड़ गये। इससे राजा बहुत दुखी हो गये। वे दमयन्ती को गहरी निद्रा में देखकर उसे छोड़ कर चले गये।
दमयन्ती ने निद्रा से उठकर देखा तो नल को न पाकर वह उस घोर वन में हाहाकार करते हुये रोने लगी। महान दुःख और शोक से संतप्त होकर वह नल के दर्शन की इच्छा से इधर-उधर भटकते हुए वह चेती देश पहुंची। वहा वह उन्मत सी रहने लगी। छोटे-छोटे शिशु उसे कौतुहल वश घेरे रहते थे। किसी दिन मनुष्यों से घिरी हुई उसे चेती देश की राज माता ने देखा। उस समय दमयन्ती चन्द्रमा की रेखा के समान भूमि पे पड़ी हुई थी। उसका मुख मण्डल प्रकाशित था। राजमाता ने उसे अपने राजमहल में बुलाकर पूछा वरानने! तुम कौन हो?
इस पर दमयन्ती ने लज्जित होकर कहा- मैं सैर्न्ध्री हूँ। मैं न किसी के चरण धोती हूँ और न किसी का जूठा खाती हूँ। यहाँ रहते हुए आपको मेरी रक्षा करनी होगी। देवी इस प्रतिज्ञा के साथ में यहा रह सकती हूँ। राजमाता ने कहा ‘ठीक हैं ऐसा ही होगा।’ तब दमयन्ती ने वहाँ रहना स्वीकार किया और इसी प्रकार कुछ समय व्यतीत हुआ और फिर एक ब्राह्मण दमयन्ती को उसके माता पिता के घर ले आया। पर माता पिता तथा भाइयों का स्नेह पाने पर भी वह पति के बिना बहुत दुखी रहती थी।
एक बार दमयन्ती ने श्रेष्ठ ब्राह्मण को बुलवाकर उससे पूछा- हे ब्राह्मण देवता! आप कोई ऐसा दान एवं व्रत बतलाये, जिससे मेरे पति मुझे प्राप्त हो जाये।’ इस पर ब्राह्मण ने कहा- भद्रे! तुम मनोवांछित सिद्धि प्रदान करने वाले आशादशमी व्रत को करो।’ तब दमयन्ती ने पुराणवेता उस ब्राह्मण के कहे जाने पर आशादशमी व्रत का अनुष्ठान किया। उस व्रत के प्रभाव से दमयन्ती ने अपने पति को पुन: प्राप्त किया। जो इस आशादशमी व्रत को श्रद्धा पूर्वक करता हैं, उनके सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं। यह व्रत स्त्रियो के लिये विशेष श्रेयकर है।
ज्योतिर्विद रत्न वास्तु दैवज्ञ
पंडित मनोज कृष्ण शास्त्री
मो. 99938 74848
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