क्या हम स्वतंत्र सोच के साथ नेता चुन रहे है? डॉ. विक्रम चौरसिया

डॉ. विक्रम चौरसिया, नई दिल्ली। किसी भी राष्ट्र में मज़बूत लोकतंत्र के लिए वहां के लोगो का केवल पढ़े लिखे होना काफ़ी नहीं होता बल्कि राजनीति रूप से भी जागरूक होना ज़रूरी है। अपने अधिकारों के साथ ही अपने कर्तव्यों को लेकर भी उत्साहित होने की जरूरत है। अब यहां आपसे बातें महान नेता अब्राहम लिंकन के इस कोटेशन से करूंगा “लोकतंत्र ‘जनता की, जनता के द्वारा, जनता के लिए शासन है’। राष्ट्र की तरक्की, सुकुन व लोगो के चैन से जीने के लिए, चाहे आप हम उच्च से उच्च शिक्षा बड़े-बड़े विश्वविद्यालय से ही क्यों न हासिल किए हो लेकिन जब हम थोड़े से व्यक्तिगत लालच के कारण गलत को गलत व सही को सही नही बोल सकते तो ऐसी बड़ी-बड़ी डिग्रियों की कोई अहमियत नही रह जाती है।

ये तो हम सभी जानते ही है की किसी भी मुल्क की तरक्की में वहां के लोगो का ही बहुत बड़ा रोल होता है, आज के वक्त में ज़्यादातर देशों में लोकतंत्र है जिसके कारण राजशाही बहुत कम ही बची हुई है। हम सभी ये तो जानते ही है कि लोकतंत्र में अपना नेता चुनाव में वोट देकर ही चुना जाता है, वहीं, राजशाही में लोगो को अपना नेता चुनने की आज़ादी नहीं रहती। लेकिन यहां एक बात ईमानदारी से बोलना आप की क्या हम अपनी स्वतंत्र सोच रखते हुए नेता चुनते है? आज तो चुनाव से पहले रेवड़ियां बांटी जा रही है। कही साड़ी, टीवी, साईकिल तो कही-कही अलग-अलग चुनावों में अपने अनुसार अलग-अलग प्रलोभन देकर भोली भाली जनता से उनके हक को ये चतुर राजनेता मार ले रहे है।

देखे तो आज धनबल, बाहुबल, भाई-भतीजा वाद, कही न कही लोकतंत्र को कमजोर कर रही हैं। सोचिए जो उम्मीदवार करोड़ों रुपए चुनाव में फूंक रहे हों तो सांसद, मंत्री बन जाने पर ओ भला हम आम जनता के लिए क्यों सोचेंगे? क्या हम अपने नेता को चुनते वक्त, उसके जनहित के कामों को देखते है? क्या हम अपने नेतृत्वकर्ता के काबिलियत को देखते है या बस उसकी मसल पावर, धन देखकर के या किसी ख़ास कौम को डराने के मकसद से उसे चुनते है?

डॉ. विक्रम चौरसिया

चिंतक/आईएएस मेंटर/दिल्ली विश्वविद्यालय लेखक सामाजिक आंदोलनों से जुड़े रहे हैं।

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