आशा विनय सिंह बैस की कलम से : वेलेंटाइन डे

आशा विनय सिंह बैस, नई दिल्ली। आजकल के नौजवानों को प्यार बहुत जोर से आता है। रोज डे, प्रोपोज डे, किस डे, हग डे से होता हुआ आधुनिक लव कुछ ही दिनों में ओयो रूम तक जा पहुँचता है। हालांकि कार्बाइड डालकर पकाया हुआ यह लव अमूमन 11 महीने से अधिक नहीं टिकता है। कई बार तो ग्यारह दिन में ही ‘माई बॉडी, माई चॉइस’ कहते हुए “टाटा, बाय-बाय और फिर सब कुछ खत्म” हो जाता है। अगले ही दिन से नए ‘लव’ की तलाश भी शुरू हो जाती है।

‘लव’ तो नहीं लेकिन ‘प्यार’ मनु-सतरूपा के समय से लोगों को होते आया है। हमारे जमाने मे भी लोगों को होता ही था। कामदेव के बाण से सभी लोग कभी न कभी बिंधे ही है। लेकिन तब प्यार का फल बड़े हौले-हौले पकाया करते थे लोग। तब के प्रेमी बड़े स्लो होते थे। समझो कि आज सूरज और चंदा में नजरें टकराई। दिलों में कुछ सिहरन, गुदगुदी सी हुई। मन को कुछ अच्छा सा लगा, मौसम कुछ बसंती सा हुआ। प्यार की कोमल कोंपलें उगी, रेगिस्तानी धरती पर मानो बारिश की बूंद सी गिरी।

अब एक आध महीना सूरज आसमान वाले ‘चंदा’ में अपनी ‘चंदा’ की सूरत बनाता बिगाड़ता रहेगा। एक दो महीने बाद जब चंदा का सचमुच का नाम और पता मालूम हो जाएगा तो दो चार दिन उस गली में ऐसे ही घुर-फिर करेगा। कभी सायकिल का चेन उसके घर के सामने उतारेगा और इस उम्मीद से चढ़ाएगा कि उस के चेन चढ़ाते-चढ़ाते, चंदा छत पर आ आएगी, उसे दिख जाएगी। उसके ख्वाबों को हकीकत में बदल जाएगी।

फिर किसी दिन सचमुच ऐसा हो जाएगा। चंदा, सूरज को देखकर हौले से मुस्करा भर देगी। ग्रीन सिग्नल मिलते ही प्यार की गाड़ी फर्राटे भरने लगेगी। अब सूरज दो चार महीने धरती पर पांव न रखेगा। उड़ता सा फिरेगा, मनमौजी सा झूमेगा। उसका मन मयूर यूँ नाचता रहेगा मानो तपती जेठ में मनभावन सावन बरस पड़ा हो। मानो शुष्क पतझड़ में एकदम से चारों तरफ फूल ही फूल खिल गए हों।

इसके कुछ महीने बाद बड़ी हिम्मत करके सूरज, चंदा की किसी सहेली रोशनी के माध्यम से
“दुनिया मांगे अपनी मुरादें, मैं तो मांगू चंदा”
लिखकर और गुलाबी दिल को लाल रंग के तीर से चीरकर प्रेम पत्र भेज देगा। उस समय बहादुर प्रेमी अपने खुद के खून से और नाजुक प्रेमी खून से मिलते रंग से अपनी प्रेमिका को खत लिखा करते थे। चंदा को गुलाबी दिल की सुर्खियत बूझने और खून से लिखी शायरी का अर्थ समझने में अमूमन एक आध-महीना लग ही जाता था। फिर चंदा भी हिम्मत करके रोशनी के ही द्वारा-
“लिखती हूँ मैं भी खून से, स्याही न समझना,
मरती तुम्हारी याद में, जिंदा न समझना”
टाइप का रूमानी जवाब भेजती थी।

अब गांव के किसी शादी-ब्याह में एक दूसरे को देखकर वे मुस्कराते। किसी मेला, बाजार में एक दूसरे को देखकर खुश हो लेते। थोड़ा हिम्मत करके चंदा और सूरज किसी नदी-पोखर किनारे, किसी बाग में मिलने का कार्यक्रम बना ही रहे होते कि चंदा की शादी किसी राहु (ल) से तय हो जाती थी और जब तक सूरज इस ग्रहण से बाहर निकलता तब तक चंदा के दो छोटे छोटे उपग्रह सूरज को मामा बोलने आ जाते।
जा रे जबाना!!

आशा विनय सिंह बैस, लेखिका

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