आशा विनय सिंह बैस, रायबरेली। पापा बताते थे कि दो-तीन पीढ़ी पहले उनके पूर्वज जमींदार थे। बैसवारा के बरी, बरवलिया और दहिरापुर तीन गांवों में उनकी जमींदारी चलती थी।1950 के दशक में जमींदारी उन्मूलन कानून आया। जो जमींदार होशियार थे, पढ़े लिखे थे उन्होंने जमींदारी उन्मूलन कानून की भनक लगते ही सारी जमीन अपने या परिवार के सदस्यों के नाम करा ली। लेकिन बाकी जमींदार जो सीधे-साधे या कम पढ़े लिखे थे, उनकी अधिकतर जमीन रातों-रात जोतने वालों की हो गई। वह लोग जमींदार से सीधे छोटे किसान हो गए।
पापा के पिताजी यानी मेरे बाबा जी शायद पहली पीढ़ी थे जिनको हल की मूठ खुद पकड़नी पड़ी। फूलों की सेज से उनकी पीढ़ी सीधे कांटो के दामन में आ गिरी थी। बाबा और उनके भाइयों को दो जून की रोटी के लिए कठिन श्रम करना पड़ा। उन लोगों ने केवल रोटी, कपड़ा और मकान जैसी मूलभूत आवश्यकताओं के लिए बड़े कष्ट उठाये, बहुत संघर्ष किया।
लेकिन इस सबका सकारात्मक परिणाम यह हुआ कि शिक्षा का महत्व उन्हें बहुत अच्छी तरह समझ में आ गया था। इसलिए उन्होंने रूखा-सूखा खाकर अपने पेट काटकर भी पापा और उनके सभी भाइयों की पढ़ाई-लिखाई में कोई कसर न छोड़ी। परिणाम यह हुआ कि पापा और उनके चारों भाई खूब पढ़े। ईश्वर की कृपा से पापा इंटर कालेज में शिक्षक हो गए, बाकी भाई भी सरकारी नौकरी पाने में सफल रहे।
शिक्षा का महत्व जितना अधिक हमारे बाबा ने समझा उससे कई गुना अधिक पापा ने समझा। बाबा ने अपने सीमित संसाधनों से अपने बच्चों और परिवार की पढ़ाई पर ध्यान दिया लेकिन पापा का दृष्टिकोण उनसे कहीं अधिक व्यापक था।
एक बहुत बड़े परिवार की जिम्मेदारी संभालने के कारण उनके पास ‘रुपयों वाला धन’ तो बहुत कम था किंतु ‘शिक्षा धन’ उनके पास अकूत था। इस धन को उन्होंने जात-पांत के भेदभाव के बिना दोनों हाथों से खूब लुटाया। उनके संपर्क में जो भी शिक्षार्थ आया, निश्चित रूप से लाभान्वित होकर गया।
घर, मुहल्ले के सभी बच्चों के तो वह मार्गदर्शक थे ही, मुझे याद है हमारे खानदानी नाऊ बाबा के सभी लड़कों की पढ़ाई के लिए पापा ने ही विद्यालय के पुस्तकालय से किताबें उपलब्ध कराई थी। पड़ोस के गांव रानीपुर के बब्बू बाबा हमारे परिवार के अत्यंत विश्वासपात्र थे। संविधान के हिसाब से वह एससी जाति के थे। बब्बू बाबा जितना अधिक मेहनती थे, उससे कहीं अधिक ईमानदार थे। अत्यंत निर्धन होते हुए भी दूसरे का धन उनके लिए माटी मोल था। शादी-ब्याह में जब हमारा पूरा परिवार बारात चला जाता, तो घर के अंदर आंगन में महिलाएं महरुल खेलती और बाहर दरवाजे चारपाई पर लाठी लेकर बब्बू बाबा सोते थे। एक दिन के लिए ही सही, वह हमारे पूरे घर के रक्षक होते थे।
पापा के प्रभाव से बब्बू बाबा को उस जमाने में ही शिक्षा के महत्व का पता चल चुका था। उनका बड़ा लड़का पढ़ने में होशियार था। हालांकि उनके लड़के का रंग बिल्कुल ‘गोरा’ था परंतु नाम ‘कल्लू’ (रामसनेही) था। रामसनेही स्वभाव से अत्यंत सरल और विनीत थे। वह पापा को आदर से भैया कहते थे।
रामसनेही कभी पुस्तकालय से किताबें दिलवाने के लिए, कभी फीस माफी के लिए प्रार्थना पत्र लिखवाने के लिए, कभी किसी शिक्षक से सिफारिश करवाने और कभी नौकरी हेतु आवेदन पत्र भरवाने के लिए पापा के पास आ जाया करते थे। पापा के मार्गदर्शन और रामसनेही की मेहनत का परिणाम यह रहा कि पढ़ाई पूरा करते ही उनका उत्तर प्रदेश पुलिस में चयन हो गया।
नौकरी लगने के बाद भी रामसनेही पापा के पास जब-तब आशीर्वाद लेने आते रहते थे। रामसनेही के छोटे भाई रामखेलावन मेरे सहपाठी थे। उनसे भी मेरी खूब छनती थी। जब पापा का स्वर्गवास हुआ तब रामसनेही और उनके परिवार के लोग ढाढ़स बंधाने हमारे घर आये थे। आज भी उनके परिवार से हमारे मधुर और आत्मीय संबंध हैं।
पापा के शिक्षा रूपी कुंए का जल जीवन पर्यंत शिक्षा के प्यासे प्रत्येक विद्यार्थी को बिना किसी भेदभाव के और भरपूर मिला। उनके जैसे ठाकुर किसी परिवार, गांव या जाति के नहीं होते। वह सबके होते हैं और सब उनके होते हैं। पापा जैसे ठाकुरों को हर सहृदय मनुष्य के अंदर ‘जिंदा’ करने की जरूरत है।
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