सावनवा कुछ बहका-बहका है, संग मनवा भी कुछ बहका-बहका है

श्रीराम पुकार शर्मा हावड़ा। पावसऋतु संबंधित ‘चातुर्मास’ का प्रारंभ आषाढ़ ‘एकादशी देवशयनी’ अर्थात विगत 29 जून से ही हो चुका है, जो श्रावण, भाद्र और आश्विन माह से होते हुए आगामी कार्तिक ‘देवोत्थान एकादशी’, अर्थात 23 नवंबर तक चलेगा। हालांकि इस बार श्रावण ‘अधिमास’ के कारण यह ‘चातुर्मास’ चार के बदले, पाँच माहों का होगा। धर्मशास्त्रों के अनुसार वर्षाकालीन इन चार माहों के लिए भगवान श्रीहरि पृथ्वीलोक से विष्णुलोक के क्षीरसागर में अपने ‘शेषशैय्या’ पर योगनिद्रा हेतु गमन करते हैं। ऐसे में सृष्टि से संबंधित संचालन-कार्य भगवान भोलेनाथ जी और उनके परिजन के जिम्मे आ जाता है। इसलिए ‘चातुर्मास’ में भगवान शिव जी और उनके परिजन से संबंधित जुड़े व्रत-त्यौहारों के प्रचलन की आधिकता रहती है। यह ‘चातुर्मास’ आध्यात्मिकता की दृष्टि से ईश्वर के प्रति विशेष ध्यान, व्रत, उपवास, भक्ति, कर्म, पवित्र नदियों में स्नान आदि पवित्र गतिविधियों के लिए आरक्षित अवधि है।

‘चातुर्मास’ के इन पवित्र माहों में से ‘श्रावण’ माह का धार्मिक महत्व अन्य माहों की अपेक्षा कुछ अधिक ही है। यह पूर्णतः वर्षा एवं हरियाली का माह होने के कारण धरती के अनुकूल सुखद और अति मनभवन होता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार श्रावण माह में ही माता पार्वती ने कठोर तपस्या करके भगवान भोलेनाथ जी को प्रसन्नकर उन्हें अपने पति के रूप में प्राप्त किया था । यह श्रावण माह भगवान भोलेनाथ जी का पवित्र माह रहा है। अतः इस माह में भगवान भोलेनाथ जी के पूजन-अर्चन, जलाभिषेक, रुद्राभिषेक, जप-तप इत्यादि आध्यात्मिक कार्य विशेष फलदायक माना गया है। दूसरी मान्यता के अनुसार समुद्र मन्थन के समय समुद्र से निकले हलाहल को जगत के प्राणियों के रक्षार्थ भगवान भोलेनाथ जी ने अपने कंठ में धारण कर लिया था, जिससे वे नीलकंठ बन गए। उनका शरीर उस हलाहल के ताप से जलने लगा। उस जलन को शांत करने के लिए सभी देवताओं ने मिलकर उनका जलाभिषेक किया। फलतः उन्हें शीतलता प्राप्त हुई और वह प्रसन्न हुए। तब से श्रावण माह में भगवान भोलेनाथ जी को जलाभिषेक करने की परंपरा आज तक चलती रही है।

श्रीराम पुकार शर्मा, लेखक

ज्येष्ठ-आषाढ़ माह के तापिस दिवस और उमस से परिपूर्ण रात्रि से परेशान होकर हमारी धरती माता व्यग्र हो उठती हैं। वह भी हलाहल पान किए नीलकंठ जी की भाँति ही उस तेज ताप से जलने लगती है। ऐसे में श्रावणी शीतल फुहार को पाकर तप्त धरती शीतल होती है। फिर तो सम्पूर्ण वातावरण ही श्रावणी जलयुक्त कीचड़ की सोंधी सड़ाइन महक से परिपूर्ण हो उठता है। यह सड़ाइन सोंधी महक गतिशील पवन के साथ एकाकार होकर श्रावण के आगमन की सूचना देने के लिए किसी चंचल बालिका सदृश चतुर्दिक भागम-दौड़ करने लगती है। श्रावणी रिमझिम फुहारों के बीच दूर के पेड़-पौधे, जीव-जन्तु, पहाड़-पठार धुंधली चित्र बने नजर आते हैं। मोर के झुंड आकाश में बादलों को देखकर नाचने लगते हैं।

कभी तो विशाल गहरे कजरारे बादल अपनी ओट में सूर्य-तेज को भी छिपाकर काली रात्रि का भ्रम पैदा कर देते हैं और कभी हवा की तीव्रता से छटते मेघों की मसृणता को छू-छूकर कभी-कभी सूर्य अपना कोमल दर्शन देकर दिन रूपी रात्रि के भ्रम को तोड़ते नजर आते हैं। आकाश के एक छोर को दूसरे छोर से जोड़ते सतरंगी मनभावन रामधनुख (इंद्रघनुष) का दिव्य दर्शन पाकर मन प्रफुल्लित हो उठता है। मन में तो यही विचार उत्पन्न होता है कि फूलों जैसे ही इंद्रधनुष भी यदि हमारी धरती पर खिल उठते, तो चुपके से हम उनके पास जाकर, उन्हें अपने हाथों से छू लेने की अपनी इच्छा को पूर्ण कर पाते। पर जरूरी नहीं, कि सभी मानवीय इच्छाएँ पूर्ण ही हो जाए।

श्रावणी काली रात्रि में जगमगाते जुगनू ही शोभा प्रदान करते हैं। जहाँ-तहाँ जलकुण्डों में एकत्रित स्वच्छ जल में थालाकृति कमल के बड़े हरित पत्रक पर जल-बिन्दु मोती के समान शोभायमान हैं। छोटी-छोटी जलधराएँ अपनी सीमा से अधिक जल को प्राप्तकर अपनी सीमाओं को छोड़कर और तोड़कर कुछ असामाजिक बने आवारागर्दी करने लगती हैं। भक्तों को ऐसी मर्यादाहीनता कभी न भाई है। रामचरितमानसकार गोस्वामी जी को तो कदापि नहीं।
‘छुद्र नदीं भरि चलीं तोराई। जस थोरेहुँ धन खल इतराई।।’
‘बरषा रितु रघुपति भगति, तुलसी सालि सुदास।
रामनाम बर बरन जुग, सावन भादव मास।।’

श्रावण माह में धरती भी मानवीय विविध सतरंगी क्रिया-कलापों से सज- धज जाती है। चतुर्दिक उत्सव का माहौल होता है। जहाँ-तहाँ के जलकुंडों व जलधाराओं के धवल रजत-पट पर कदम्ब, गुलर, अनार आदि पेड़-पौधे अपने फूल-फल सहित इतराने लगते हैं। धरती भी अपने श्रावण-पिय के आगमन की खुशी में विविध प्राकृतिक स्वरूपीय रंग-बिरंगे बूटों युक्त गर्वित हरित परिधान को धारण कर पेड़ों की तनाओं से झूलते हिंडोला पर लहर-लहर कर पेंग मारती अपनी प्रफुल्लता को छुपा नहीं पाती है। मान्यता रही है कि हिंडोला झूलने से परस्पर प्रेम बढऩे के साथ ही प्रकृति के निकट जाने व उसकी हरियाली बनाए रखने की प्रेरणा मिलती है। पिय-मिलन की व्यग्रता को मोर, दादुर, कोयल की सम्मिलित गीतवाली ध्वनित करने लगती हैं। आसमान में उमड़ते घने कजरारे मेघ अपने मल्हार से सभी जीव-जन्तु व पादप-पुंज को हर्षित कर झुमाने लगते हैं। धरती के इस सौभाग्य को देखकर आकाश के काले कजरारे बादल ईर्ष्यावश शायद जल-भून उठते हैं और ईर्ष्या रूपी तेज दामिनी को रह-रह कर चमकाने लगते हैं। पर यह क्या? बादलों के ईर्ष्यालु बिजली के तेज चमक में जल युक्त धरती का सौन्दर्य और भी दमक उठता है। पर ऐसे में बेचारी रूपसी धरती अपनी जग हँसाई की चिंता से कुछ शरमा-सी जाती है।
‘भीगे बदन, तन लिपटे वसन, माने न कोई जतन गोरी।
बेदर्दी तू बालम, मानें न बतिया, जग में होई हँसाई मोरी।’

श्रावणी मनोहारी प्रकृति अलकापुरी की रमणीयता से प्रतिस्पर्धा करती जान प्रतीत होती है। धरती के इस मनोहारी सौन्दर्य को देखकर ही इंद्रपुरी निवासी अशरीर ‘मदन’ भी इंद्रपुरी को त्याग कर अविलंब अपनी भार्या ‘रति’ के संग धरती पर आ धमकते हैं। फिर तो मधुमक्खियों के शहद की कोमल रसीली रज्जु से बंधित, मिठास से परिपूर्ण इक्षुः दण्ड से निर्मित बंकिम काम-धनुष पर, अशोक के महकते श्वेत पुष्पों के साथ, नीलवर्णी पंकज, नवमल्लिका (चमेली) और रसाल पुष्पों से निर्मित काम-बाणों को श्रावणी मधुरस में डुबोकर चतुर्दिक छोड़ने लगते हैं। जिसके आघात से स्थूल से लेकर सुक्ष्मजीवों का हृदय विदीर्ण होने लगता है। ऐसे में वह अपने संगी-स्नेही के कोमल मधुर प्रेमालिंगन के मधुर पाश में बद्ध कर मानसिक और आत्मीय शीतलता को प्राप्त करने का प्रयास करते हैं।

पर यह ‘श्रावण’ तो ‘मदन’ के गर्व के विनाशक शिव शंभू का प्रिय माह है, जो ‘त्रिलोक’ के समस्त सकरात्मक ऊर्जाओं का एकमात्र स्वामी भी हैं। अतः प्रातःकालीन शैशव सूर्य की अमल स्वर्णिम आभा में स्नात सम्पूर्ण प्रकृति ही उस त्रिलोकीनाथ को स्मरण कर ‘जय शिव शंकर’, ‘हर हर महादेव’, ‘जय भोले नाथ’, ‘बोल बम’ आदि की ‘शिवमय’ पावन धुनी से विशाल ‘शिवालय’ बनी प्रतीत होती है। खेतों की हरीतिमा के मध्य कुछ आर्द्र और कीचड़युक्त पगडंडियों पर ‘कांवड़धारी’ की रुन-झुन मधुर ध्वनि वातावारण को संगीतमय बना देती हैं। सचमुच श्रावण माह में मन भी तो शिव का ‘शिवाला’ ही बना रहता है।
‘मेरे प्रभु की यह धरती है शिवाला, मेरे मन को भी तू बना दे शिवाला।
ओ डमरुवाला।’

ऐसे में ही कहीं दूर से किसी चन्द्रवंशी गोप द्वारा अपनी बाँसुरी पर छेड़ते राग मल्हार सुनाई पड़ ही जाते हैं। पास के ही कीचड़ युक्त मटमैले जलकुण्डों में स्नात छोटे-छोटे, नंगे-अधनंगे बच्चें भागते-गिरते किसी चित्रकार के मनोरम चित्र प्रतीत होते हैं। छोटे-छोटे बाग़-बगीचों में आम, कदम्ब, महुआ या पीपल की शाखाओं से लटकते अगिनत झूलों पर ललनाओं के शरीर से चिपके उनके आर्द्र पीताभ व हरित वसन, हाथों में मेहँदी और हरी चूड़ियाँ, कानों में झुमके, माथे पर मांग-टीका और उनके गौर तथा श्यामल चहरे से ढुलकते श्रावणी दमकते जल-बूंद आदि उनके रमणीय श्रृंगार को अभिवृद्धि करते रहते हैं। उनके मधुर प्रेमानुकूल वाक्जाल तथा आंगिक छेड़-छाड़ दिन-प्रतिदिन के घरेलू संघर्षमय जीवन में भी मधुर हँसी-ख़ुशी के कुछ अमूल्य मधुर क्षण को जबरन छीन लेने का ही प्रयास करते हैं। तत्पश्चात संध्या काल से ही देर रात तक गाँव-गाँव में कजरी के मधुर ढोल-थाप पर पुराने पेड़ों और मकानों की धरानियों पर झुला लगा कर झूलती सुहागिन स्त्रियों की युगलबंदी के मधुर स्वर दूर से ही मन को श्रावणानुकूल आंदोलित करने लगते हैं।

और दिन के उजाले में दूर खेतों में घुटने तक डूबे पानी में धान की रोपाई करती हुई रोपनियों के कुछ पारम्परिक लयात्मक गीत भी कोई कम रोचक नहीं होते हैं । ऐसे ही पारम्परिक सामूहिक गीत सम्पूर्ण श्रावणी प्रकृति और परिवेश को ही सरगम के सुर-लय से आबद्ध कर इन्द्रधनुषी मंचीय स्वरुप प्रदान करते हैं, जो राह चलते राहगीरों के पैरों को जकड़ ही लेते हैं । उन्हें उठने ही नहीं देते हैं –
‘सुनी पीया हो!
अबकी न जाइब हम नइहरवा, इ सवनवा में।
भूली जाइब सब बैरी बायनवा, इ सावनवा में।’

पर ये सभी श्रावणी मानवीय क्रिया-कलाप तो श्रावणी पारम्परिक संस्कृति के झलक मात्र ही हैं, जबकि इनका क्षेत्र और स्वरूप काफी व्यापक है, जिन्हें शब्दों की परिधि में बाँध पाना कदापि संभव नहीं है। लेकिन आधुनिकता के प्रबल प्रवाह में प्रकृति के विरूद्ध मानवीय अप्राकृतिक क्रिया-कलापों में निरंतर वृद्धि के कारण सम्पूर्ण प्राकृतिक श्रावणी परिदृश्य ही बहुत तेजी से बदलता जा रहा है और इसके साथ ही बदल रहे हैं, हमारी पुरानी परंपराएँ, सामाजिक मान्यताएँ, बहुरंगी समृद्ध लोकजीवन पर आधारित हमारी सभ्यता-संस्कृति और सोच व समझ। इसके साथ ही बढ़ा है प्रकृति के प्रति कठोरता और बेहताश दोहन, जिसके प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रभाव से हमारी प्रकृति और हमारी संस्कृति निरंतर विदीर्ण होती ही जा रही है। जिसके दुष्प्रभाव को पृथ्वी पर जलवायु परिवर्तन के रूप में हमें साफ दिखाई दे रहा है। देखिए न, श्रावण माह का प्रारंभ हो चुका है और कई क्षेत्र के लोग तथा पशु-पक्षी, पेड़-पौधे या फसलें पानी के लिए तरस रहे हैं।

इसके विपरीत कई क्षेत्र में अतिवृष्टि जलप्लावन की भयावह स्थिति को उत्पन्न कर दी है। जन-जीवन, कार्य-व्यापार, रोजी-रोटी की व्यवस्था का आधार अस्त-व्यस्त हो रहा है। इन प्राकृतिक जानलेवा विपदाओं ने ‘मदन’ के रसीले काम-बाणों को भी भोथरा दिया है। पूर्णरूपेन कृत्रिमता और दिखावे पर आधारित सालों भर एक समान दिखने वाले शहरी वातावरण की तो बात ही छोड़ दीजिए। परंतु शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं और ठिका-मजदूर बनते जा रहे ग्रामीणों के पेट की ज्वाला ने श्रावणी मधुमास को भस्मित कर दिया है। रोपनियों के गीतों की जगह खेतों में अब काले विषैले धुँआ छोड़ते असुरी ट्रैक्टर-शक्तियाँ अपने ‘ठक-ठक-ठक’ की आवाज से मोर, दादुर, पपीहों की पुकार को दबा रहे हैं। पेड़ों के कटते जाने के कारण श्रावणी झूले भी निरंतर गायब होते जा रहे हैं। श्रावणी हिंडोला झूलने की परंपरा श्रावणी एकादशी से जन्माष्टमी तक मंदिरों में भगवान को झूला झुलाने के रूप में ही सिमटकर रह गई है।

हो भी क्यों न? उन पर झूलने वाली नव-वधुएँ भी तो ससुराल में आते ही केवल अपने पिय को पहचानने लगती हैं और मुँह दिखावन के बाद ही पिया संग शहर गमन कर रही हैं। संयुक्त परिवार की अवधारणा टूट-टूट कर एकल परिवार और फिर ‘पति-पत्नी-बच्चा’ पर आ खड़ा हुआ है। सभ्यता और संस्कृति की जो पाठशालएँ गाँव-घर के आँगन में लगा करती थीं, वह तो आज हमारे बंद कमरों में टेलीविजन या फिर मोबाईल पर आकर सिमट गए हैं। ऐसे में भाई-रिश्तेदारों व संगे-संबंधियों का आगमन भी कम कष्टदायक प्रतीत नहीं होता है। अभी तो भाई-बहनों के पावन श्रावणी राखी-बंधन त्योहार भी दूर है। ऐसे में कमरे में टंगे बड़े टेलेविजन-स्क्रीन पर बरसते बारिस की बूंदों के सम्मुख या फिर स्नानघर में फुहारों के नीचे ही श्रावण की मनभावन उपस्थिति को हम-आप आत्मसात् कर लेने का एक प्रयास मात्र ही कर सकते हैं –
‘इहे सवनवा में हो, इहे सवनवा में।’

श्रीराम पुकार शर्मा
ई-मेल सूत्र – rampukar17@gmail.com

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