श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा। शास्त्रों में कहा गया है कि गुरु के बिना हम भगवान (जीवन-उद्देश्य) को नहीं प्राप्त कर सकते हैं। भारतीय सनातनी संस्कृति में गुरु-शिष्य परम्परा आध्यात्मिक प्रज्ञा को नई पीढ़ी तक पहुँचाने का एक अद्भुत पवित्र सेवा की परंपरा है, जिसके अन्तर्गत गुरु अपने शिष्य को नि:स्वार्थ भाव से अपनी योग्यता के अनुकूल शिक्षा में पारंगत करते हैं। बाद में वह शिष्य गुरु से प्राप्त ज्ञान के माध्यम से स्वयं अपने आप को, अपने परिवार को, अपने समाज को, अपने देश को और फिर लोकहितार्थ के कार्यों को सम्पादित कर उन्हें समृद्धशाली, खुशहाल और उन्नत बनाता है। फलतः एक शिष्य का भी कर्तव्य होता है कि वह भी अपनी क्षमतानुकूल अपने गुरु के प्रति पूर्ण निष्ठा, श्रद्धा, विश्वास, समर्पण, सेवा आदि भावों का प्रदर्शन करते हुए उनके प्रति पूर्ण आज्ञाकारी और कृतज्ञ बना रहे। सामाजिकता और लौकिकता के आधार पर गुरु-शिष्य का सम्बन्ध पूर्णतः नि:स्वार्थ होना अपेक्षित है।
गुरु-शिष्य की यह पवित्र परम्परा ज्ञान के आदान-प्रदान के लगभग सभी क्षेत्रों में समान रूप से प्रतिष्ठित है, जैसे पठन-पाठन, अध्यात्म, संगीत, कला, खेलकूद, वास्तु, विज्ञान, चिकित्सा, कार्य-क्षेत्र आदि सब कुछ में। एकमात्र गुरु ही माता-पिता के समान ही अपने शिष्य के निरंतर भौतिक और आध्यात्मिक उत्तरोत्तरी विकास की हार्दिक कामना रखते हुए उसे अपने से भी अधिक क्षमतावान व श्रेष्ठ बनाना चाहते हैं। वह तो उस कुम्हार की भाँति होते हैं, जो कच्ची मिट्टी के घड़े रूपी अपने विद्यार्थी को सही स्वरूप देने के लिए ऊपर से तो जरूरत के अनुकूल चोट करते हैं, तो अन्तः से उचित सहारा भी देते हैं। अतः शिष्य को चाहिए कि वह अपने मन में अपने गुरु के प्रति कोई शंका न रखते हुए, अपने माता-पिता के समान ही अपने गुरु के प्रति भी उचित आदर-सम्मान और सेवा की भावना रखे।
गुरु-शिष्य की पवित्र परंपरा की बातें होने पर अनायास ही गुरु द्रोणाचार्य-शिष्य एकलव्य की, गुरु चाणक्य- शिष्य चन्द्रगुप्त की, गुरु रामकृष्ण परमहंस-शिष्य स्वामी विवेकानंद की, समर्थ गुरु रामदास-शिष्य शिवाजी आदि की बातें हमें स्मरण हो उठती हैं। भील पुत्र एकलव्य, अपने गुरु द्रोणाचार्य के प्रति सत्य निष्ठा, श्रद्धा, भक्ति, विश्वास, समर्पण आदि भाव रखने के कारण ही गुरु के परोक्ष रहते हुए भी धनुर्विद्या में पारंगत हो गया। गुरु चाणक्य के प्रति एकनिष्ठा, विश्वास, समर्पण आदि के भाव कारण ही चन्द्रगुप्त एक साधारण बालक से मौर्यवंश का निर्माता और एक महान शासक बना। समर्थ गुरु रामदास के प्रति अटूट श्रद्धा और विश्वास ने ही शिवाजी को मराठा साम्राज्य का अधिनायक बना दिया। गुरु रामकृष्ण परमहंस के प्रति सत्य निष्ठा, श्रद्धा, भक्ति, विश्वास, समर्पण, सेवा आदि भाव रखने के कारण ही साधारण बालक नरेंद्र आगे चलकर संसार को नई दिशा प्रदान करने वाले स्वामी विवेकानन्द बन पाए। गुरु-शिष्य संबंधित ऐसे उदाहरण हमारे इतिहास में अनगिनत भरे पड़े हैं। गुरु के निःस्वार्थ कार्यों को स्मरण कर उनके सम्मान में प्रति वर्ष ही आषाढ़ पूर्णिमा पर ‘गुरुपर्व’ मनाया जाता है, जिसे ‘गुरु पूर्णिमा’ भी कहते हैं।
हाँ, अक्सर सुनने में आता है कि उपरोक्त गुरु-भक्ति संबंधित दृष्टांत आज की नहीं, वरन सदियों पुराने हैं। अन्य वस्तुओं और क्रिया-कलापों के समान ही समय और परिस्थिति के अनुसार गुरु-शिष्य जनित संबंधों में भी बहुत परिवर्तन होते ही आए हैं। अर्थात, कहा जा सकता है कि आज वह पवित्र गुरु-भक्ति केवल लेखन-सामाग्री या फिर मनोरंजनार्थ चलचित्रों के लिए उपयुक्त मानी जा सकती है। वर्तमान अर्थ-प्रधान धरातल पर यह सनातनी गुरु-भक्ति कोई कल्पनातीत ही है। तो चलिए, आज ‘गुरु पूर्णिमा’ के पावन अवसर पर गुरु-भक्ति से संबंधित कुछेक वर्तमान दृष्टांतों से आपको अवगत करवाता हूँ।
सन् 1979 में पाकिस्तानी वैज्ञानिक डॉ. अब्दुस सलाम ने शेल्डन ग्लासहाउ और स्टीवेन वीनबर्ग के ‘इलेक्ट्रोवीक यूनिफिकेशन थिअरी’ में अपना विशेष योगदान देते हुए ‘पार्टिकल फिजिक्स’ में ‘हिग्स बोसॉन’ की खोज की, जिसे ‘गॉड्स पार्टिकल’ भी कहा जाता है । जिसके लिए उन्हें 1979 का संयुक्त रूप में भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में ‘नोबेल पुरस्कार’ प्रदान किया गया था। उन्होंने ‘क्वांटम फील्ड थियरी’ में और ‘इंपीरियल कॉलेज लंदन’ में गणित की उन्नति में भी अपना विशेष योगदान दिया है। वह ‘नोबल पुरस्कार पाने वाले पहले पाकिस्तानी और पहले मुस्लिम व्यक्तित्व थे। यह बात अलग है कि डॉ. अब्दुस सलाम को एक गैर-मुसलमान ‘अहमदिया’ समुदाय से संबंधित होने के कारण उन्हें अपने ही देश पाकिस्तान में कोई सम्मान न प्राप्त हुआ। इतना ही नहीं, बल्कि पाकिस्तानी विषम परिस्थिति के कारण उन्हें 1974 में अपने मुल्क पाकिस्तान को भी त्यागकर लंदन में जाकर बसना पड़ा। पर उनकी पूर्ववर्ती अद्भुत सनातनी गुरु-भक्ति से हम भारतीयों का गहरा संबंध होना अपेक्षित है, जिसे हम भारतीयों के लिए न सिर्फ जानना, बल्कि उसका अनुकरण करना अपेक्षित है।
डॉ. अब्दुस सलाम : जब डॉ. अब्दुस सलाम को 1979 में शेल्डन ग्लासहाउ और स्टीवेन वीनबर्ग के साथ संयुक्त रूप से ‘नोबेल पुरस्कार’ प्राप्त हुआ, तब उन्होंने तुरंत ही भारत सरकार को अपने भारतीय पूर्व गुरु अनिलेंद्र गांगुली का पता देने के लिए आवेदन किया, जो विभाजन के पूर्व लौहार के ‘सनातन धर्म कॉलेज’ में उन्हें गणित पढ़ाया करते थे। पर बाद में बंटवारे के समय वह भारत आ गये थे और फिर भारतीय भीड़ में कहीं खो ही गए। उनसे उनका संबंध टूट ही गया था। डॉ. अब्दुस सलाम का मानना था कि प्रोफेसर गांगुली की शिक्षा के कारण ही उन्हें ‘नोबल पुरस्कार’ प्राप्त हुआ है।
आवेदन करने के दो साल बाद, जनवरी 1981 में डॉ. अब्दुस सलाम को अपने पूर्व गुरु प्रोफेसर अनिलेन्द्र गांगुली के बारे में सही पता चला। डॉ. अब्दुस सलाम उनसे मिलने दक्षिण कोलकाता में उनके निवास पर पहुँच गए। बहुत ही दुर्बल और बात करने में भी असमर्थ शैय्या-सेवी अपने पूर्व गुरु अनिलेन्द्र गांगुली को देखते ही डॉ. अब्दुस सलाम भावुक होकर उनसे लिपट कर भरपूर रोए। फिर उन्होंने अपना ‘नोबेल पुरस्कार’ मेडल को बड़े ही प्यार से उनके गले में पहनाते हुए कहा, – ‘सर! यह आपका गुरु दक्षिणा है।’ अपने अद्भुत शिष्य के उस सम्मानीय कथन और कार्य से गुरु अनिलेन्द्र गांगुली भाव विभोर हो गए। आज तक उन्हें ऐसी कोई अद्भुत ‘गुरु दक्षिणा’ न प्राप्त हुई थी। फिर किसी भी गुरु के लिए यह सर्वोच्च सम्मान की ही बात हो सकती है, जो प्रोफेसर अनिलेन्द्र गांगुली को उनके एक महान शिष्य डॉ. अब्दुस सलाम से प्राप्त हुआ था।
उसी वर्ष ‘कोलकाता विश्वविद्यालय’ ने डॉ. अब्दुस सलाम को ‘द देवप्रसाद सर्बाधिकारी गोल्ड मेडल’ से सम्मानित करने का फैसला किया। तब डॉ. अब्दुस सलाम ने विनम्रतापूर्वक कोलकाता विश्वविद्यालय के अधिकारियों को मना करते हुए कहा, – ‘इस पुरस्कार का भी सही हकदार मैं नहीं, बल्कि मेरे गुरु प्रोफेसर अनिलेन्द्र गांगुली जी ही हैं।’ बाद में बीमार प्रोफेसर अनिलेंद्रनाथ गांगुली के घर पर ही कुछ विशिष्ठजनों के साथ ही एक छीटे-से आयोजन में डॉ. अब्दुस ने अपनी आँखों से उन्हें सम्मानित होते देखा था और परम प्रसन्नता को प्राप्त किया। यह किसी भी गुरु के लिए बहुत ही बड़ा सम्मान की बात रही है, जिसे अर्थ, धर्म और देश की सरहदें भी न बाधित न कर सकी। डॉ. अब्दुस सलाम दुबारा 19 जनवरी 1981 को अपने पूर्व प्रोफेसर अनिलेन्द्र गांगुली को श्रद्धांजलि देने के लिए कोलकता, भारत पधारे थे।
गुरु-शिष्य संबंधित एक दूसरा प्रसंग, भारत के नौवें राष्ट्रपति विद्वपुरुष डॉ. शंकर दयाल शर्मा के प्रति ओमान के सुल्तान काबूस बिन सईद की गुरु-भक्ति भी दर्शनीय और अनुकरणीय है, जब सुल्तान काबूस ने सारे प्रोटोकॉल को तोड़कर डॉ. शंकर दयाल शर्मा को हवाई अड्डा से लेकर अपने राजमहल तक स्वयं कार चला कर ले गए थे।
डॉ. शंकर दयाल शर्मा ने राष्ट्रपति के रूप में 1994 में मस्कट (ओमान) का दौरा किया था। उस समय ओमान के सुल्तान काबूस बिन सईद थे। ओमान के प्रोटोकॉल के अनुसार वहाँ का सुल्तान कभी भी किसी भी विदेशी अतिथियों को लेने के लिए हवाई अड्डे पर नहीं जाया करते। मगर जब भारतीय राष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा मस्कट पहुँचे, तो ओमान के सुल्तान काबूस बिन सईद उन्हें स्वागत करने और उन्हें लेने के लिए स्वयं हवाई अड्डे पर पहुँचे। आगत फ्लाइट में सुल्तान स्वयं उनकी सीट तक गए और उन्हें सादर पूर्वक अपने साथ नीचे ले आए। फिर उन्होंने अपने गाड़ी के ड्राइवर को ड्राइविंग छोड़ने के लिए कहा और स्वयं गाड़ी को चलाते हुए डॉ. शंकर दयाल शर्मा को अपने महल के अतिथिशाला तक ले कर आए थे।
बाद में ओमान के मीडिया वालों ने सुल्तान काबूस बिन सईद से देश के प्रोटोकॉल को तोड़ने के विरोध में कई तीखे प्रश्न किए। उनका उत्तर देते हुए सुल्तान काबूस बिन सईद ने कहा, – ‘मैं भारत के राष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा को लेने हवाई अड्डे पर नहीं गया था, बल्कि मैं अपने गुरु डॉ. शंकर दयाल शर्मा जी को अपने देश में, अपने घर में अगुवाई करने के लिए हवाई अड्डा गया था। वे मेरे गुरु रहे हैं। भारत में पुना में मेरी पढ़ाई के दौरान प्रोफेसर डॉ. शंकर दयाल शर्मा जी ने मुझे पढ़ाया है। गुरु के प्रति आदर-सम्मान प्रगट करना भारतीय संस्कृति का एक विशेष अंग है, जिसे मैंने अपनी अध्ययनशीलता के दौरान पाया है। अतः मैंने अपने देश ओमान के सारे प्रोटोकॉल को तोड़ा, क्योंकि मुझे पता है कि गुरु से बढ़कर कोई और नहीं हो सकता है।’
सुल्तान काबूस बिन सईद के पिता सईद बिन तेमूर ने भी भारत में ही अजमेर के ‘मेयो कॉलेज’ से ही शिक्षा को प्राप्त किए थे। उनके दादा तैमूर बिन फैसल ने भी अपने जीवन के आखिरी साल मुम्बई, भारत में ही बिताए थे और भारत में ही रहकर ओमान की सत्ता चलाई थी। उनकी मृत्यु मुम्बई, भारत में ही 1965 मे हुई और उन्हें मुंबई में दफनाया गया। यही कारण है कि भारत और भारतीय समुदाय के लोगों के प्रति ओमान के राज परिवार के मन कृतज्ञता की भावना रही है।
गुरु भक्ति संबंधित एक अन्य दृष्टांत,
अप्रेल, 2021 में कोरोना काल की बात है। एक स्टेशन पर भीख माँगते पाई गई एक रिटायर्ड गणित शिक्षिका और उसकी मदद के लिए सामने आए उनके पुराने कई छात्रों की खबर फेसबुक सहित कई सामाजिक स्रोतों पर बहुत अधिक वाइरल हुआ था।
देश के सबसे ज्यादा साक्षरता वाला राज्य केरल की एक रिटायर्ड विक्षिप्त शिक्षिका अपनी संतान द्वारा दर-दर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ दी गई थी। बेचारी वह दुखी और विक्षिप्त रिटायर्ड महिला शिक्षिका अपनी भूख को मिटाने के लिए एक रेलवे स्टेशन पर भीख माँगते हुए पाई गई। वह केरल के मलप्पुरम के ‘इस्लामिया पब्लिक स्कूल’ में गणित शिक्षिका थी, जिनका नाम ‘वलसा है और वह तिरुवनंतपुरम के पेटा गाँव की रहने वाली है।
एक सरकारी कर्मचारी विद्या एम.आर. ने उस उपेक्षित और विक्षिप्त वृद्ध महिला के पास से बरामद कुछ पुरानी तस्वीरें तथा उसकी पूर्व गाथा को सोशल मीडिया ‘फेसबुक’ पर पोस्ट कर दी, जिसे देखकर कुछ पुराने छात्र अपनी पूर्व गणित शिक्षिका ‘वलसा’ को पहचान लिये और उन्होंने उन्हें ढूंढ निकाला। फिर तो उनकी हर तरह की मदद के लिए कई और उनके पुराने कुछ छात्र आगे आए। उन्हें पास के पुलिस थाने के माध्यम से तिरुवनंतपुरम के ही एक वृद्धाश्रम में सादर व्यवस्थित कर दिया गया। अब वह रिटायर्ड शिक्षिका वलसा हँसी-खुशी से अपना बाकी का जीवन व्यतीत कर रही है।
गुरु भक्ति से संबंधित ये तीन दृष्टांत वर्तमान में गुरु-भक्ति की प्रासंगिकता को समझाने के लिए शायद पर्याप्त हो। जबकि गुरु-भक्ति से संबंधित अनगिनत उदाहरण विखरे पड़े हैं । उनसे हमें सिख लेते हुए गुरु-भक्ति को ‘गुरु दक्षिणा’ संबंधित उपहारों के आदान-प्रदान से हटकर ‘गुरु सेवा’ संबंधित परंपरा को कायम रहने की आवश्यकता है।
(“गुरु पूर्णिमा” विशेष, 3 जुलाई, 2023)
श्रीराम पुकार शर्मा
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