मजदूर व किसान खाके सूखी रोटी बड़े आराम से सोते हैं

डॉ. विक्रम चौरसिया, नई दिल्ली । मजदूर, किसान व युवा ही देश की शक्ति हैं, इसलिए पूरी हो इनकी मांगे, यही मेरा अभिव्यक्ति है, कहते भी है न की यदि किसी राष्ट्र में मजदूर, किसान व युवा को उनके पूरे अधिकार नही मिलते, तो उस राष्ट्र की प्रगति रुक जाती है। कभी सोचे भी हो कि अगर सब कुछ ईश्वर को ही देना था तो फिर आरम्भ के 60 लाख साल पहले जब पहली बार मनुष्य के साक्ष्य पृथ्वी पर मिले तो मनुष्य को नंगा, भूखा, बिना घर के क्यों रखा? क्या इस लिए कि उन सब के कर्म में यह लिखा था और आज से 10,000 साल पहले तक वह ऐसे ही रहा या फिर वह कर्म का पुजारी आपके लिए संस्कृति की वह दीवार बना रहा था जिस पर आज आप हम और वो ऐश कर रहे हैं।

आज तो राष्ट्र का कानून, संविधान है। तब अक्सर समृद्ध लोग यह कह कर बच निकलते हैं कि वे मजदूर अपनी मर्जी से काम कर रहे हैं। कोई उन पर जबरजस्ती नही कर रहा है। इसलिए कोई कार्यवाही बनती ही नहीं है। देखे तो आप भी अक्सर होंगे ही की एक सामान्य मनुष्य गर्मी में इतना बेचैन हो उठता है कि वह पैदल चलने कि भी सोच नहीं पाता और एक उसी के जैसा मनुष्य उतनी ही गर्मी में आपको रिक्शा में लेकर ढोता है और पसीने से लत-पथ उस मनुष्य से लोग अपने गंतव्य पर पहुंच कर यह भी नही पूछते कि भैया क्या प्यास तो नही लगी है? क्योकि कुछ लोगो के लिए तो यह उसके कर्म है जो वह भोग रहा है?

ऐसे लोगो के लिए ही किसी ने क्या खूब कहा कि ‘दोनों मजदूर चल पड़े है अपने अपने काम पर, एक गम्छा डालकर दूसरा लैपटॉप टांगकर।’ जी हां, हर वह इंसान जो अपना पेट पालने के लिए काम करता है वह मजदूर होता है, फिर चाहे वह नंगे पैर चले या बीएमडब्ल्यू कार से देश के विकास में मजदूरों का सबसे बड़ा योगदान होता देश को बनाने की नींव यही मजदूर रखते है। लेकिन यहां भेदभाव चरम पर है, इंडिया बनाम भारत में बढ़ती खाई लोगो में नफरत फैला रहा है, अधिकतर लोग मानवता को पीछे छोड़कर भोगवादी राह पर निकल पड़े हैं। इन्हीं को सम्मान देने के लिए हर वर्ष 1 मई को श्रमिक दिवस मनाया जाता है।

हम सभी ने देखा भी की कोविड़ 19 से उपजी वैश्विक महामारी कोरोना से देश के कोने कोने से प्रवासी मजदूर अपने परिवार के साथ हजारों हजार किलोमीटर पैदल ही चलने को मजबूर हुए कुछ ट्रेन, ट्रकों के पहिए के नीचे कुचल कर मारे गए तो कुछ भूखे प्यासे यही सत्य है कि आज मात्र एक दिन सेमिनार, गोष्ठियां की जाती है मजदूरों के हितों को सुरक्षित करने के लिए बड़े-बड़े दावे किए जाते हैं, मगर 364 दिन मजदूरों के बारे में कोई भी नही सोचता, मजदूरों के नाम पर योजनाएं चलाई जाती हैं, मगर उन्हे उनका हक नहीं मिलता। देश में हर रोज मजदूर, किसान व युवा बेमौत मर रहे हैं, अब इनके सुरक्षा का ध्यान रखना ही होगा। किसी भी राष्ट्र के रीढ़ की हड्डी उस राष्ट्र के किसान, मजदूर व युवा शक्ति ही होती है।

vikram
डॉ. विक्रम चौरसिया

चिंतक/आईएएस मेंटर/दिल्ली विश्वविद्यालय। लेखक सामाजिक आंदोलनों से जुड़े रहे हैं व वंचित तबकों के लिए आवाज उठाते रहे हैं व इंटरनेशनल यूनिसेफ कौंसिल दिल्ली डॉयरेक्टर है।

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