डॉ. अखिल बंसल । युग दृष्टा भगवान महावीर तीर्थंकर ऋषभदेव की परंपरा में 24वें तीर्थंकर थे। तीर्थंकर वे होते हैं जो चतुर्विद संघ का निर्माण करते हैं तथा धर्म तीर्थ के प्रवर्तक होते हैं। जिसके द्वारा संसार सागर से पार उतरते हैं वह तीर्थ हैं और तीर्थ के प्रवर्तक तीर्थंकर कहलाते हैं। यह तीर्थंकर मानव जाति को मोक्ष का मार्ग बताकर उस पर अग्रसर होने की प्रेरणा और शक्ति प्रदान करते हैं। वह धर्म शासन के अनुष्ठान द्वारा आध्यात्मिक साधना कर जीवन को परम पवित्र बनाकर कैवल्य प्राप्त कर निर्वाण के अधिकारी बनते हैं।
जैन मान्यता के अनुसार अतीत में अनंत तीर्थंकर हो चुके हैं। वर्तमान में ऋषभदेव से महावीर तक 24 तीर्थंकर हुए हैं तथा भविष्य में भी 24 तीर्थंकर होंगे। यह अनादि कालीन परंपरा है। सुप्रसिद्ध दार्शनिक विद्वान डॉ. राधाकृष्णन इंडियन फिलासफी वॉल्यूम- I.P. 287 में लिखते हैं- “इस बात के प्रमाण पाए जाते हैं कि ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दी में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की पूजा होती थी। इसमें कोई संदेह नहीं है कि जैनधर्म वर्धमान और पारसनाथ से भी पहले प्रचलित था और वेद में ऋषभदेव अजितनाथ और अरिष्टनेमी इन 3 तीर्थंकरों के नामों का निर्देश है।
भागवत पुराण भी इस बात का समर्थन करता है कि ऋषभदेव जैन धर्म के संस्थापक थे। 24वें तीर्थंकर वर्धमान महावीर युग दृष्टा थे। उन्होंने सांसारिक युद्धों को नहीं अपितु आत्मिक विकारों पर विजय प्राप्त की इसलिए वे महावीर कहलाए। उनका जन्म ईसा पूर्व 599 में वैशाली गणराज्य के कुण्डपुर में चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को राजा सिद्धार्थ के यहां माता त्रिशला देवी के कोख से हुआ था। राष्ट्रकवि स्वर्गीय रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा है –
“वैशाली जन का प्रतिपालक ,गण का आदि विधाता।
जिसे ढूंढता देश आज, उस प्रजातंत्र की माता।।
रुको एक क्षण पथिक यहां, मिट्टी को शीश नवाओ।
राज सिद्धियों की समाधि पर ,फूल चढ़ाते जाओ।।”
महावीर जब माता के गर्भ में आए तब प्रजा सुखी व राजकोष में दिनोंदिन बृद्धि होती दिखी, छह मास तक कुण्डपुर में रत्नों की वर्षा हुई अतः उनका नामकरण वर्द्धमान किया गया। एक बार उद्यान में बाल सखाओं के साथ खेलते समय सर्प के आ जाने से भयभीत साथियों के भागने पर उस सर्प को पकडकर वृक्षों के झुरमुटों में उठाकर फेंक दिया। उनकी इस वीरता की चर्चा ने उन्हें वीर नाम दिया। 28 वर्ष की आयु तक वे राजमहल में रहकर भी कठिन व्रतों की साधना करते रहे। उनकी साधनाओं से प्रभावित होकर जन मानस ने उन्हें अतिवीर नाम से अभिहीत किया।
एक बार दो चारण ऋद्धिधारी मुनिराज आकाश मार्ग से कुण्डपुर के नगर उद्यान में अपनी कुछ शंकाएं लेकर बालक वर्द्धमान के पास आए। वर्द्धमान के दर्शनमात्र मात्र से उनकी शंकाओं का स्वतः निरसन हो गया। उसी दिन से उन्हें सन्मति विरुद से सम्बोधित किया जाने लगा। उन्होंने अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त की, दुर्गुणों और कषायों, अहन्ताओं और ममताओं को जीत कर आत्मजयी बने इसलिए महावीर कहलाए। इसप्रकार वे वर्द्धमान, वीर, अतिवीर, संमति और महावीर के नाम से विख्यात हुए।
30 वर्ष की आयु में उन्होंने राजकीय भोगोपभोगों का त्यागकर आत्मकल्याण की भावना से मार्गशीर्ष कृष्णा 10वीं ई.पू. 569 में प्रवज्या ग्रहण की। उन्होंने अंतरंग परिग्रहों का त्यागकर निर्ग्रंथ अवस्था धारण कर ली। मौनव्रत धारणकर वाणी की चंचलता का परित्याग करते हुए बुद्धि, विक्रिया, तप, बल, औषध, रस एवं क्षेत्र ये सात ऋद्धियाँ प्राप्त कीं। दीक्षा के उपरांत महान तपस्वी महावीर 12 वर्षों तक कठिन साधना करते हुए विहार करते रहे। जृम्भिक ग्राम के समीप ऋजुकूला नदी के किनारे मनोहर नामक वन के मध्य साल वृक्ष के नीचे नियम पूर्वक प्रतिमायोग विराजमान हुए।
कर्म मलों का विघटन होने से उनके अंतर में वैशाख शुक्ल 10 को एक दिव्य ज्योति प्रकाशित हुई। शुक्ल ध्यान के द्वारा चारों घातिया कर्मों को नष्ट कर उन्होंने अनंत चतुष्टय केवलज्ञान की प्राप्ति की। वे अब चौतीस अतिषयों से सुशोभित हो सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हो गये। यह उनके आत्मा की अनंत शक्ति का प्रस्फुटन था। कैवल्य की प्राप्ति होते ही सौधर्मेन्द्र ने चारों प्रकार के देवों के साथ ज्ञान कल्याणक की विधिवत पूजा कर विशाल व्याख्यान सभा मण्डप की रचना की जिसे समवसरण कहा जाता है। भगवन् सिंहासन के तल से चार अंगुल ऊंचे अधर में विराजित हो अति शोभायमान थे।
छियासठ दिन तक समवसरण सहित मौन विहार करते रहे परन्तु दिव्यध्वनि रूप धर्मामृत की वर्षा नहीं हुई। विहार करते हुए भगवन् मगध देश की राजधानी राजगृह के विपुलाचल पर्वत पर आरूढ हुए। इन्द्रभूति गौतम अपने शिष्यों के साथ महावीर के दर्शनार्थ अपनी कुछ शंकाएँ लेकर पधारे। मानस्तम्भ देखते ही उसका ज्ञानमद चूर-चूर हो गया। समवसरण में प्रवेश करते ही महावीर के दर्शन मात्र से इन्द्रभूति की सभी शंकाओं का समाधान हो गया जिससे उसने अपने 500 शिष्यों के साथ शिष्यत्व स्वीकार कर लिया। इस प्रकार इन्द्रभूति उनका प्रमुख गणधर बन गया।
भगवान महावीर अपने समवसरण सहित 30 वर्ष तक निरंतर देश के कौने-कौने में विहार करते रहे। भगवान महावीर की ओंकारमयी दिव्य वाणी 18 महाभाषा और 700 लघुभाषा के माध्यम से जन-जन तक इन्द्रभूति गणधर के माध्यम से सरल भाषा में पहुंचती जिसका अनुशरण कर सभी जीव अपना आत्मकल्याण करने की ओर प्रशस्त होते। भगवान महावीर ने अहिंसा का शंखनाद कर नयी क्रांति को जन्म दिया।
अंत में कार्तिक कृष्ण अमावस्या प्रभात की मंगल बेला में पावापुर के उद्यान में सरोवर के तट पर 72 वर्ष की आयु में आपने नश्वर देह का परित्याग कर मोक्ष का वरण किया। भ. महावीर ने प्राणीमात्र के कल्याण हेतु पंचमहावृत की शिक्षा दी। आपने अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिगृह का उपदेश दिया। आपका जियो और जीने दो का सिद्धांत प्राणीमात्र के कल्याण के लिए है। आपका कहना था जिस किसी भी कार्य से हिंसा हो उसे त्याग देना चाहिए।