श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा : यह मानवतावादी, निष्पक्षतावादी तथा निर्भयता की उद्घोषणा करने वाली उक्ति कथा सम्राट मुंशी प्रेमचन्द ने अपनी बहुचर्चित कहानी “पंच परमेश्वर” में ‘बुढ़िया खालाजान’ के माध्यम से व्यक्त की है। यह सत्य है कि वर्तमान में लोग आपसी ‘बिगाड़’ को लक्ष्य करके ‘ईमान’ या ‘सत्यता’ को मौन-मूक दबा लेते हैं। भला कौन सबसे दुश्मनी लेते फिरे? यही कारण है कि घर-परिवार से लेकर शासन-प्रशासन तक सर्वत्र ही अत्याचार और भ्रष्टाचार का प्रबल बवंडर बह चला है और दूसरी ओर मानव मन में ‘बिगाड़’ या ‘क्षणिक स्वार्थ’ हेतु मौन-मूकता की गम्भीर छाया दिखाई दे रही है।
इसी बात को आधुनिक हिंदी कथा साहित्य और उपन्यास के पितामह मुंशी प्रेमचन्द मानवता के लिए गहरा कलंक माना है। किसी साहित्यकार के लिए उसकी अमूल्य साहित्यिक निधि, इंसानी जिन्दगी में अपने मन को स्थापित कर इंसानी संघर्ष की जमीन पर अपनी मुस्कराहट के साथ सदा अटल बने रहकर मानवीय संवेदना को निरंतर ग्रहण करना ही तो है। उसके लिए इंसानी जिन्दगी में दिन प्रतिदिन की घटना ही एक नई ‘रचना’ होती है।
उसे घाट-घाट का पानी पीना पड़ता है। उसे जाति, धर्म, वर्ग, प्रांत आदि के तथाकथित घेरे को तोड़ कर बाहर निकलना पड़ता है। तब जाकर ‘धनपत राय’ जैसा साधारण व्यक्ति विशेष ‘नवाब राय’ बनते हुए एक दिन उपन्यास और कथा सम्राट ‘प्रेमचन्द’ बन जाता है।
यह बात तो सत्य ही है कि जो व्यक्ति जितना भोगता है, जितना सहता है, जिसका प्रत्यक्ष गवाह होता है, उसी को वह अपनी कलम के मश्याम से पाठकों के सम्मुख परोसता है। यही भावनाएँ प्रेमचन्द को ‘कलम का जादूगर’ बना देती हैं। प्रेमचंद ने अपनी संवेदनाएँ गरीबी और कष्ट को झेलते हुए भी चट्टानों से लड़ने की जिजीविषा होरी-धनिया, गोबर-झुनिया, बूढी काकी, पिसनहारी, हामिद की दादी, सूरदास आदि के माध्यम से व्यक्त की है।
तो दूसरी ओर उस भौतिकवादी व्यवस्था पर प्रहार किया है, जो उच्च शिक्षा को प्राप्त कर भी अपने ह्रदय को संकीर्ण बनाये हुए गरीबों को शोषण का माध्यम मात्र ही मानते हैं। पंडित अलोपीदीन, बुद्धिराम, कुंवर विशाल सिंह, डॉ० चढ्ढा, मतदिनी, विप्र महाशय आदि ऐसे ही पात्र हैं, जिनको समझने मात्र से ही हमारे मन में उनके प्रति घृणा और उपेक्षा की भावना जागृत होती है।
प्रेमचन्द का निजी अनुभव अथाह था क्योंकि उनका सम्बन्ध आम जनता के साथ ही था। वह समाज में दबे-कुचले हुए अनगिनत उपेक्षित जनों के साथ ही जीवन वसर करते हुए कालान्तर में उनकी ही आवाज बनकर सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से विपन्न तथा विकास के राह से भटके लोगों को सही राह दिखाने वाले आजीवन कर्मठ व्रती बने रहें। उनका विचार पूर्णतः मानवतावादी रहा है।
मानवतावाद उनके सृजन की मूल प्रेरणा थी। उनका मानना है कि समाज में सबको रहने और जीने का अधिकार है और इसके लिए समाज में परस्पर समानता की भावना होनी चाहिए। प्रेमचंद स्वयं अपने आप को उस धर्म का सेवी माना है जिसमें मानवता को ही प्रधानता दी गई है। वह ऐसे देवी-देवता या पैगम्बर-नबी को दूर से ही प्रणाम करते हैं, जो लोगों को मानवता के विरुद्ध भड़काते हो।
प्रेमचन्द की निगाह में साम्प्रदायिकता एक ऐसा पाप है, जिसका कोई प्रायश्चित नहीं। उनके अनुसार धर्म का एक आदर्श स्वरूप होना चाहिए, जो प्राणी मात्र की सेवा, सहिष्णुता, नेकनियत, शारीरिक पवित्रता, त्यागशीलता, दया-सहानुभूति आदि आदर्श गुणों पर आधारित हो, न कि स्वार्थ पर। वह तो ‘हिंसा परमो धर्मः’ के जामीद के देहात के लोगों की क्रिया-कलापों को आदर्श समाज के लिए सार्थक मानते हैं।
‘जामीद के देहात में न तो कोई मस्जिद थी, न कोई मन्दिर। मुसलमान लोग एक चबूतरे पर नमाज पढ़ लेते थे, हिन्दू एक वृक्ष के नीचे पानी चढ़ा दिया करते थे।’
प्रेमचन्द ने स्वयं स्वीकार किया है, – ‘मैं एक इन्सान हूँ और जो इंसानियत में विश्वास रखता हो, इन्सान का काम करता है I मैं वही हूँ और ऐसे ही लोगों को चाहता हूँ। मैं उस धर्म को कभी स्वीकार नहीं करना चाहता जो मुझे यह सिखाता हो कि इंसानियत, हमदर्दी और भाईचारा सबकुछ अपने धर्म वालों के लिए है और उस दायरे के बाहर जितने लोग हैं, सभी गैर हैं, और उन्हें ज़िंदा रहने का कोई हक नहीं, तो मैं उस धर्म से अलग होकर विधर्मी होना ज्यादा पसंद करूँगा।’
इसीलिए ‘मुक्तिधाम’ का एक पात्र ‘रहमान’ गाय के प्रति अपने प्रेम को दिखाकर हिन्दू-मुस्लिम सौहार्द्र को बनाये रखने का प्रयास करता है। इसी तरह की बातें ‘क्षमा’, ‘स्मृतिका’, ‘पुजारी’, ‘खून सफेद’ आदि कहानियों के माध्यम से उन्होंने ने साम्प्रदायिक वैषम्य को दूर करने का साहित्यिक प्रयास किया है।
इसीलिए प्रमचंद ने सभी स्वार्थ जनित धर्मों को तिलांजली देकर मानव धर्म को अपनाए जाने के पक्ष में थे। जिसमें प्रेम, अहिंसा, भाईचारा और एक दूसरे के दुःख-दर्द को समझने और बाँटने का पूरा का पूरा अवसर हो। जिसमें किसी गरीब का नवजात शिशु दूध के लिए बिलखते न रहे और मंदिर-मस्जिद में कोई दूसरा दूध-मेवा-मिष्टान उड़ाता न रहे। जिसमें गरीबों की सिसकियाँ और अमीरों का अट्हास न हो।
उस धर्म और मजहब के सामने माथा झुकाने से क्या लाभ मिलेगा, जिस धर्म में निष्क्रियता ने घर कर लिया हो और जो धर्म केवल अपने को ही जीना सिखाता हो, दूसरों को गैर मानकर उसके इज्जत-आबरू से खेलना चाहता है, उसके लहू से अपने हाथों को रंगने के लिए उद्वेलित रहता है। परोपकार के लिए कुछ त्याग भी करना पड़े, उसे परमात्मा का उद्देश्य मान कर करना ही मानवता है।
प्रेमचन्द उस समरस समाज को देखना चाहते थे, जिसमें सबके रक्त का रंग एक ही हो। जिसमें ‘अलगू चौधरी’ और ‘शेख जुम्मन मियाँ’ दोनों एक साथ रहें।साम्प्रदायिकता के घिनौनेपन के विरोध में उन्होंने जो कुछ भी लिखा, वह कल भी प्रासंगिक था और आज भी प्रासंगिक है और कल भी प्रसांगिक ही रहेगा।हकीकत में प्रेमचन्द के मानव धर्म में न सिर्फ मानव बल्कि समस्त प्राणियों की रक्षा की विराट भावना निहित है।