यह हकीकत भारत के कमोबेश सभी गांवों या शहरों की है। ये तस्वीर पंचायत या नगर निगमों से लेकर विधानसभा और लोकसभा चुनावों तक कि है। उदाहरण स्वरूप पंचायत चुनाओं को ही लीजिए, किसी एक ग्राम प्रधानी के लिए मान लीजिए दस लोग उम्मीदवार के रूप में नामांकन पत्र दाखिल किए। जिसमें से कुछ उम्मीदवार तो वाकई पढ़े लिखे, नेक, सज्जन व समाजसेवी आदमी है। सभी उम्मीदवारों की तरफ से जोर-शोर से प्रचार किया गया।
कुछ उम्मीदवारों कि ओर से धन, बल का भी ख़ूब जोर लगा। चुनाव के ठीक एक दिन पहले नियमों को ताक पर रख के ज्यादातर उम्मीदवारों की ओर से मतदाताओं को रुपये, शराब बांटें गए। जब नतीजा आया तो चौकाने वाला था (हालांकि चौकने जैसा कुछ भी नहीं है), वो उम्मीदवार जो दिन-रात गांजे के नशे में डूबा रहता है वो ग्राम प्रधान के रूप में चुना गया।
कारण एक यही था कि चुनाव के महीने भर पहले से ही उसने अपने ट्रैकर में भर कर गेहूं फ़्री में बांटा। उसके बाद चुनाव के ठीक एक दिन पहले घर-घर जा कर रुपया, शराब जमकर बांटा ताकि मतदाताओं को खरीदा जा सके।
करीब चौदह सौ वोटों में से उसे साढ़े तीन सौ वोट मिला, उसने अपने निकटम प्रतिद्वंद्वी को डेढ़ सौ वोटों से हराया। योग्य उम्मीदवार हार कर हाथ मलते रह गये। यह हालत सिर्फ किसी एक गांव या शहर का नहीं है, यह हालत लगभग सभी गांवों, शहरों में देखा जा सकता है। न सिर्फ ग्राम प्रधान के चुनाव में बल्कि सभी चुनावों में जम के धन लुटाया जाता है।
शराब, रुपया जम के बांटा जाता है। चुनाव आयोग आंखों में काली पट्टी बांधे धृतराष्ट्र बना रहता है, विशेषकर पंचायतों और नगर निगमों के चुनाओं में! वैसे भी यहां कानून और उम्मीदवारों को दोष देने से पहले मैं ज्यादातर मतदाताओं को ही दोषी मानता हूँ।
एक ग्राम के विकास के लिए साल में लाखों रुपए मिलते है, पांच साल में लगभग डेढ़ करोड़ रुपए अनुमानित। अब सोचिए अगर उम्मीदवार दस लाख भी खर्च कर के चुनाव जीतता है तो उसे ग्राम प्रधान के रूप में एक करोड़ से ज्यादा का खज़ाना मिलता है!
जिसमे से ऐसे भ्रस्टाचारी ग्राम प्रधान कम से कम पचास लाख का तो घपला करेगा ही करेगा! हाँ कुछ ग्राम प्रधान जो कि सचमुच में ही समाज सेवक और ईमानदार होते हैं वो तो अपने पास से भी रुपया लगा देते हैं परन्तु ऐसे लोगों की संख्या ही कितनी है?
यह सही है कि सौ प्रतिशत जनप्रतिनिधि बेईमान नहीं हैं और न ही सभी मतदाता बेईमान है, फिर भी ज्यादातर लोग मुफ्त के राशन, बिजली के चक्कर में या हजार दो हजार रुपये में अपना ईमान बेच कर न सिर्फ अपने ग्राम या शहर के विकास को पीछे कर देते हैं बल्कि देश के निर्माण को भी पीछे धकेल देते हैं।
सिर्फ कुछ प्रतिशत मतदाता ही जागरूक है वो विकास और अच्छे कानून व्यवस्था के लिए अच्छे उम्मीदवारों को चुनती है।
कभी कभी मैं सोचता हूँ कि अगर भारत भूमि के अलावा किसी और राष्ट्र में रहने का मौका मिले तो मैं जापान में रहना पसंद करूंगा कारण एक राष्ट्र को जनता ने कैसे अपने अनुशासन और सामर्थ से विकसित किया ये जापानियों से सीखा जा सकता है।
ज्यादातर मूर्ख मतदाता हमेशा शातिर उम्मीदवारों को चुनकर अपने भविष्य को अंधकार में ढकेल देता है। फिर रोते रहता है रोटी, कपड़ा, मकान के लिए।
जब तक इस देश में जनता थोड़े से मुफ्त अनाज, बिजली के लालच में या कुछ रुपये के लोभ में मूर्ख बनती रहेगी तब तक इस देश का विकास सिर्फ विकासशील रूपी डंडे पर टंगा रहेगा।
विकसित होने के लिए नागरिकों को ख़ुद को भी अनुशासित और सभ्य बनना पड़ता है, जिससे की इस देश की ज्यादातर आबादी का कोई वास्ता ही नहीं है। शौच से लेकर स्वच्छता तक सभी चीजों को हमने सिरे से ख़ारिज किया है और हाँ अनुशासित तो हम कभी थे ही नहीं, कहने को जितना भी अपने को महान कह लें।
(नोट : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी व व्यक्तिगत हैं । इस आलेख में दी गई सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं।)
भारतीय राजनीति का ये सबसे विद्रूप चेहरा है जिसका उल्लेख आपने अपने लेख में किया है, भारतीय मतदाता मैं कहूंगा खास कर हिन्दू मतदाता अगर अपने मत का मोल समझ पाता तो शायद वो आज की पतन शील दशा को प्राप्त नही होता।
शायद उसके लिए स्वाभिमानी जीवन उतना महत्वपूर्ण नही है जितना तेल प्याज गैस।