कुरूक्षेत्रःअभिमन्यु सर्ग (अंतिम भाग)
कर रहा वीर यों सिंहनाद,
ज्यों मेघ कर रहे घोर नाद,
वो प्रलय काल की बारिश सा,
उत्ताल जलधि की लहरों सा,
अरि सेना पर करता प्रहार।
शर का संधान करता वो वीर,
हर द्वार बेधता वो रणधीर,
ज्यों खेले पडे खिलौनों से,
कुरू वीर उड रहे पत्तों से,
दूसरे द्वार पर द्रोण अडे,
हतप्रभ वे देखें खडे -खडे,
यह रौद्र रूप या प्रलयकाल,
आ गये धरा पर महाकाल,
जबतक शर संधान करें,
काटे वह उनकी धनुष डोर,
कर दर्प भंग,आगे आया,
तब द्वार तीसरे पर पाया,
सामने खडे थे सूर्यपुत्र,
वो जाने यह है पार्थपुत्र,
शंखनाद कर आगाज किया,
और कुंतीसुत को घेर लिया,
आश्चर्य मुदित पल भर देखा,
क्या यही भाग्य हरि ने लेखा,
तत्क्षण अभि ने शर साध लिया,
मृत्युंजय को भी अचेत किया,
आज धराशायी है “विजय धनुष”।
इस भाँति परास्त किया उसने,
दुर्योधन और दुश्शासन को,
चिंता तब कुरू घनघोर करें
क्यों किया आज ये व्यूह गठन।
जब एकल पार न पा वे सके,
सब घाती मिलकर करे वार,
अभि आ पहुँचा सातवाँ द्वार,
तब घात किया घाती सुत ने,
पीछे से आकर वार किया,
तब गदा छीन उस लक्ष्मण की,
दुर्योधन सुत का संहार किया,
रण करने आये जो महारथी,
रण छोड भागने को तत्पर,
हर रथी महारथी को कर परास्त,
वो वात वेग से बढता था।
असमंज मे है कर्ण आज,
नत होकर वो बुत बना रहा,
चलते ना उससे एक बाण,
हैं पस्त सभी महारथी,
दुश्साशसन की थी क्या बिसात,
गुरु द्रोण रहें या कृपाचार्य,
नतमस्तक हैं सारे आचार्य।
तब चली द्रोण ने कुटिल चाल,
बोले आओ सब महारथी,
सब मिलकर करें अभि का संहार,
सब युद्ध रीति वो भूल गये,
अपनी मर्यादा भूल गये,
वे भूल गये यह बाल वीर,
प्रिय अर्जुन सुत,न करे वे विचार,
फिर शुरू हुआ निर्लज्ज युद्ध,
अभिमन्यु से वे लड न सके,
जग की मर्यादा ले न सके।
रथ पर वार राधेय करे,
और अश्व को मारे कृपाचार्य,
ले खडग हाथ युद्ध करता था,
रथ के पहिये को बना ढाल,
समवेत सात महारथियों ने,
अभि की काया को बेध दिया,
हत भागे यह न समझ पाये,
ये आदि अंत का आ पहुँचा,
अभिमन्यु देह को बेध रहे,
कुरूओं ने हरि को बेध दिया।
हत होकर भू पर गिरने से
पहले उसने हुंकार भरी,
मामाजी देखो आज यहाँ
नत नहीं हुआ मै आज यहाँ,
कैसे सब महारथी कहे इनको,
निर्जलज्ज युद्ध देखो इनका,
आकर देखें, अब तातश्री,
सुत ने न मिटाई उनकी श्री।
वो गिरा वीर जब धरती पर,
धरती का कलेजा काँप उठा,
हरि के हिय मे भी सूल उठा,
प्रिय वीरगति को प्राप्त हुआ,
इस पाप युद्ध मे आज यहाँ,त्रिपुरारि का हृदय विदीर्ण हुआ।