रायबरेली। स्पोर्ट्स कार, फर्राटेदार बाइक और सुविधायुक्त स्कूटी के इस जमाने में साइकिल की बात करना कुछ पिछड़ापन जरूर लगेगा। एक कारण यह भी कि आज सड़क पर साइकिल वाले अल्पसंख्यक हो गए हैं, इक्के-दुक्के ही दिखते हैं। लेकिन एक समय ऐसा भी था जब गांव की गलियों से लेकर शहर की सड़कों तक साइकिल वालों का राज था। तब आमजन के लिए साइकिल ही आवागमन का सुलभ, सस्ता और टिकाऊ साधन था।
हालांकि साइकिल बनाने वालों ने या किसी कंपनी ने साइकिल की सवारी का लिखित में तो कोई नियम नहीं बनाया था लेकिन सायकिल चालकों के लिए समाज का अलिखित, पारंपरिक नियम यह हुआ करता था कि…
1) अकेला पुरुष होने पर वह गद्दी पर बैठेगा और सायकिल चलाएगा।
2) दो पुरुष होने पर युवा या ताकतवर पुरूष गद्दी पर बैठेगा, दूसरा पुरुष पीछे कैरियर पर।
3) एक पुरुष और एक महिला होने पर पुरुष गद्दी पर बैठकर सायकिल चलाएगा और महिला बाएं तरफ दोनों पैर लटकाकर पीछे कैरियर पर बैठेगी।
4) एक पुरुष, एक महिला और एक बच्चा होने पर सायकिल के डंडे पर अंगौछा या तौलिया लपेटकर बच्चे को बैठाया जाता था।
5) दो बच्चे होने पर, बड़ा बच्चा डंडे पर और छोटा मां की गोद में पीछे कैरियर पर।
बचपन से युवावस्था तक साइकिल पर बैठने का यही क्रम और नियम मैं देखते आया था। लेकिन जब मेरी पोस्टिंग बैरकपुर (कोलकाता) हुई तो एक दिन देखता हूं कि एक पुरुष, एक वयस्क महिला को आगे डंडे पर बैठाए हुए सायकिल चला रहा है। दोनों सामान्य ढंग से सड़क पर जा रहे थे। इससे भी बड़े आश्चर्य की बात यह कि इस तरह साइकिल की सवारी करने वाला वह पहला या आखिरी जोड़ा नहीं था। ऐसे जोड़े मुझे फिर अक्सर ही दिखने लगे। आसपास के लोगों के लिए भी शायद यह सामान्य घटना ही थी। कमेंट पास करने और बेशरम कहने की तो बात ही छोड़ दीजिए कोई न तो उन्हें घूर रहा था, न मुड़कर पीछे देख रहा था।
लेकिन उत्तर भारत के एक छोटे से कस्बे में पले बढ़े मुझ जैसे युवा व्यक्ति के लिए यह दृश्य कतई सामान्य नहीं था। हमारे बैसवारा में तो कोई लड़का या पुरुष ऐसा करने की कल्पना भी नहीं कर सकता था। हमने तो अपनी पत्नी का हाथ पकड़ कर लालगंज की सब्जी मंडी में चलने वाले व्यक्ति को लोगों की धिक्कार सुनते हुए देखा है। मैंने ऐसे दृश्य एकाध बार फिल्मों में जरूर देखे थे। लेकिन रील लाइफ में बहुत कुछ ऐसा दिखाया जाता है जो रियल लाइफ में कतई संभव नहीं है।
बंगाल के लिए सामान्य और मेरे लिए असामान्य यह दृश्य मुझे कई दिनों तक कचोटते रहे, झकझोरते रहे। एक दिन जब मुझसे न रहा गया तो मैंने साहस जुटाकर एक समझदार पुरुष से पूछ ही लिया कि बंगाल में महिलाएं सायकिल के डंडे पर आगे क्यों बैठती हैं? क्या उन्हें इस तरह बैठना असामान्य नहीं लगता??
तो उस व्यक्ति ने पहले मुझे ऊपर से नीचे तक घूरा, मेरा परिचय लिया और फिर जवाब दिया…
1) इसका ऐतिहासिक कारण यह कि आजादी के पहले से ही जो शेष भारत आज सोचना शुरू करता था, बंगाल वह कब का कर चुका होता था।
2) सांस्कृतिक कारण यह कि तुम्हारा बैसवारा कला, संस्कृति और महिला सशक्तीकरण के क्षेत्र में अभी भी बंगाल से पच्चीस साल पीछे चल रहा है।
3) व्यवहारिक कारण यह कि महिला के आगे बैठने से बातचीत करने में सुविधा रहती है, नजदीकी बनी रहती है।
और
4) सबसे बड़ा कारण यह कि बंगाल में महिलाएं पुरुषों से हर क्षेत्र में आगे हैं तो सायकिल में पीछे क्यों रहें??
(विनय सिंह बैस)
बैसवारा से बंगाल तक की संस्कृति के साक्षी
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