श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा। गोरखपुर के ‘गीता प्रेस’ का नाम-स्मरण मात्र से ही हमारे मन-मस्तिष्क में स्वतः ही एक देव-पुरुष की अनुपम शांत, परंतु तेजस्वी छवि प्रतिष्ठित हो जाती है, वह अद्भुत छवि है, भारतीय संस्कृति के अक्षय वृक्ष की प्रबल जड़ सदृश श्रद्धेय हनुमान प्रसाद पोद्दार ‘भाई जी’ की। श्रद्धेय हनुमान प्रसाद पोद्दार ‘भाई जी’ आज कोई संज्ञासूचक शब्द न होकर अपने आप में एक वृहद आध्यात्मिक संस्था है। सबके प्रति प्रेमपूर्ण व्यवहार, भाई-चारे और विनम्र स्वभाव के कारण लोग उन्हें स्नेहवश ‘भाई जी’ के उपनाम से संबोधित किया करते थे। कलयुग में जब हिन्दू समाज अपने ज्ञान, विज्ञान, गौरव को भूल, अंग्रेजी सभ्यता का निरंतर दास बन रहा था, तब ‘भाई जी’ ने श्रीरामदूत हनुमान बनकर संजीवनी रुपी ‘गीता प्रेस, गोरखपुर’ की स्थापना कर सनातनियों को अपनी आध्यात्मिकता की जड़ों से जोड़े रखने का भगीरथी प्रयास किया। महाकवि ‘गोस्वामी’ जी की भाँति ही उन्होंने भी ‘रामचारितमानस’ सदृश वैदिक ग्रंथों, शास्त्रों, आध्यात्मिक तथा नीतिगत पुस्तकों को ढूंढ-ढूंढ कर ‘गीत प्रेस, गोरखपुर’ के सौजन्य से अत्यल्प खर्च में सरल-सहज भाषा में व्यवस्थित कर उन्हें हर घर-आँगन में पहुँचाने का देव-सदृश कार्य को सिद्ध किया और सबको एक बार फिर से प्रबल धार्मिक सूत्र में बाँधने का बड़ा ही सार्थक प्रयास किया है।
आज ‘गीता प्रेस’ गोरखपुर’ का नाम किसी भी भारतीय के लिए अनजान नहीं है और उसी के अनुरूप भारतीय अध्यात्मिक जगत में श्रद्धेय हनुमान पसाद पोद्दार ‘भाई जी’ का भी नाम किसी के लिए अपरिचित नहीं है। दोनों का नाम और कार्य एक दूसरे के पूरक बनकर उदित सूर्य की तेजस्वी स्वर्णिम किरणों के समान ही आज देश भर के हर घर-आँगन में आध्यात्मिक तथा नीतिगत ज्ञान की ज्योति को फैला रही है। देश और दुनिया भर में रामायण, गीता, वेद, पुराण, उपनिषद आदि से लेकर ऋषियों-मुनियों और महान विभूतियों की कथाओं तथा उनके अनमोल विचारों को घर-घर तक पहुँचाने का एक मात्र श्रेय ‘गीता प्रेस’ गोरखपुर और उसके सहयोगी संस्थापक श्रद्धेय हनुमान प्रसाद पोद्दार ‘भाई जी’ को ही जाता है। प्रचार-प्रसार से सर्वदा दूर रहकर एक अकिंचन सेवक और निष्काम कर्मयोगी बनकर उन्होंने हिंदू संस्कृति की मान्यताओं को पुनर्स्थापित करने में अपना जो अनुपम योगदान दिया है, उसके लिए सनातनी हिन्दू संप्रदाय सर्वदा उनका ऋणी ही रहेगा।
हिन्दू सनातनी विभूति परम श्रद्धेय हनुमान प्रसाद पोद्दार ‘भाई जी’ का जन्म कृष्ण प्रदोष त्रयोदशी, आश्विन, विक्रम संवत 1949 अर्थात, 17 सितंबर, 1892 को राजस्थान के शेखावटी क्षेत्र के रतनगढ़ में मारवाड़ी धर्मपरायण एक वैश्य परिवार ‘लाला भीमराज अग्रवाल’ और उनकी पत्नी ‘रिखीबाई’ के धार्मिक आँगन में हुआ था। यह परिवार श्रीहनुमान जी का भक्त था। अतः श्रीहनुमान जी का ही श्रीप्रसाद मानते हुए उस भक्त परिवार ने अपने पुत्र का नाम ‘हनुमान प्रसाद’ रखा। दो वर्ष की शैशवास्था में ही बालक हनुमान प्रसाद की माता रिखीबाई स्वर्ग सिधारी। ऐसे में इनका पालन-पोषण धार्मिक प्रवृति से युक्त इनकी दादी-माँ रामकौर देवी ने किया था। दादी जी के धार्मिक संस्कारों और विचारों की छत्र-छाया में पलते हुए बालक हनुमान को बचपन से ही गीता, रामायण, वेद, उपनिषद और पुराणों की कहानियाँ पढ़ने-सुनने को मिलीं, जिसका बाल मन पर गहरा प्रभाव पड़ा। बचपन में ही वह ‘हनुमान कवच’ का पाठ करना सिख गया। ऐसे ही समय निंबार्क संप्रदाय के ‘संत ब्रजदास’ जी ने बालक को आध्यात्मिक दीक्षा प्रदान की थी।
उस समय हनुमान प्रसाद पोद्दार ‘भाई जी’ के पिता लाला भीमराज अग्रवाल का कारोबार वर्तमान कोलकाता में था, जबकि उनके दादा जी का कारोबार असम में फैला हुआ था। कुछ बड़े होने पर हनुमान प्रसाद अपने दादा जी के साथ असम में ही रहा करते थे। लेकिन कलकत्ता भी उनका आना-जाना होता ही रहता था। ‘भाई जी’ एक व्यवसायी परिवार से संबंध होने के कारण अपने जीवन की शुरुआत एक व्यवसायी के रूप में ही की थी। हालांकि, बाद में उन्होंने धर्म और आध्यात्मिकता को ही अपने जीवन का परम लक्ष्य निर्धारित कर स्वयं को ईश-सेवा के लिए पूर्ण रूपेण समर्पित कर दिया।
हनुमान प्रसाद पोद्दार ‘भाई जी’ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भी सक्रिय रूप से शामिल थे। उस समय कलकत्ता स्वतंत्रता आंदोलन का प्रमुख केंद्र था। देश की स्वतंत्रता आंदोलन की लहर उनके मन में भी प्रवाहित हुई। वे बंगाल के उल्लेखनीय क्रांतिकारी अरविन्द घोष, देशबंधु चितरंजन दास, पं. झाबरमल शर्मा आदि तथा बाद में लोकमान्य तिलक और गोपालकृष्ण गोखले के संपर्क में वे आए। फिर उनकी मुलाकात गाँधी जी से भी हुई। गाँधी जी के विचारों से प्रभावित होकर उन्होंने अपने जीवन में सत्य, अहिंसा और सादगी जैसे ‘त्रिरत्न’ को आत्मसात् किया।
खादी के कपड़े पहनना शुरू किया और अपने दैनिक जीवन में सादगीपूर्ण जीवन-शैली को प्राथमिकता दी। गाँधी जी से प्रेरित होकर 1906 में उन्होंने कपड़ों में गाय की चर्बी के प्रयोग किए जाने के ख़िलाफ एक जन आंदोलन चलाया और विदेशी वस्तुओं तथा कपड़ों के बहिष्कार के लिए संघर्ष छेड़ दिया। ब्रिटिश सरकार विरोधी कई आंदोलनों और विरोध प्रदर्शनों में प्रत्यक्ष भाग लेने के कारण उन्हें कई बार जेल भी जाना पड़ा था। उन्हें नजरबंद कर पंजाब की शिमलपाल जेल में भी भेजा दिया गया था।
जेल में रहते हुए हनुमान प्रसाद पोद्दार ‘भाई जी’ का मन अध्यात्म की प्रवृत हुआ। जेल में ही उन्होंने हनुमान जी की आराधना करना शुरू कर दी। वे अपनी दिनचर्या सुबह तीन बजे शुरू कर दिया करते थे और पूरा समय परमात्मा का ध्यान करने में ही बिताते थे। वही पर कैदी मरीज़ों के स्वास्थ्य की जाँच के लिए एक होम्योपैथिक चिकित्सक जेल में आते थे। ‘भाई जी’ ने उस चिकित्सक से होम्योपैथी की कुछ बारीकियाँ को सीखकर स्वयं ही मरीज़ों का इलाज भी करने लगे।
एक बार हनुमान प्रसाद पोद्दार ‘भाई जी’ वीर सावरकर द्वारा रचित ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ नामक पुस्तक को पढ़ा, उससे वे इतने प्रभावित हुए कि 1938 में वीर सावरकर तथा विनय दामोदर सावरकर से मिलने के लिए तत्कालीन बंबई (मुंबई) चले गए। मुंबई में अपने मौसेरे भाई जयदयाल गोयनका जी के साथ रहते हुए उन्होंने अग्रवाल नवयुवकों को संगठित कर ‘मारवाड़ी खादी प्रचार मंडल’ की स्थापना की। इसके बाद वे प्रसिद्ध संगीताचार्य विष्णु दिगंबर के सत्संग में भी आए, जिनके प्रभाव से उनके हृदय के तार भी झंकृत हो उठे। फिर उन्होंने कई भक्ति गीत लिखे, जो ‘पत्र-पुष्प’ के नाम से प्रकाशित भी हुए हैं। वहीं उनके मौसेरे भाई जयदयाल गोयनका जी के घर में नियमित होने वाले ‘गीता पाठ’ ने उनमें ‘गीता’ के प्रति प्रेम जागृत कर दी। लोगों की ‘गीता’ को लेकर जिज्ञासा को भाँपते हुए उन्होंने प्रण किया कि वे “श्रीमद् भागवद्गीता” को कम से कम मूल्य पर लोगों को उपलब्ध कराएंगे।
हनुमान प्रसाद पोद्दार ‘भाई जी’ ने संस्कृत साहित्य वेदों, पुराणों और उपनिषदों का गहन अध्ययन किया। उनका ज्ञान इतना विस्तृत था कि उन्होंने संस्कृत के गीता, रामायण और भागवत जैसे ग्रंथों को सरल हिंदी में अनुवाद किए और ‘गीता’ की एक टीका भी लिखी, जिसे कलकत्ता के ‘वाणिक प्रेस’ से छपवाई। प्रथम संस्करण की ही उसकी पाँच हज़ार प्रतियाँ बहुत जल्दी ही बिक गई। लेकिन ‘भाई जी’ जी को अपने उस कार्य से संतुष्टि न थी, कारण उस टीका में ढेरों गलतियाँ थीं। बहुत परिश्रम कर उन्होंने उसका स्वयं संशोधन कर उसे पुनः प्रकाशित किया। मगर उसकी त्रुटियाँ पूर्णतः दूर न हो पाई थीं। इस बात से उन्हें बहुत दु:ख हुआ। ऐसे में उन्होंने निश्चय किया कि जब तक अपना खुद का प्रेस नहीं होगा, तब तक वे छपाई के कार्य को आगे न बढ़ाएंगे।
हनुमान प्रसाद पोद्दार ‘भाई जी’ का यही एक छोटा-सा संकल्प ‘गीता प्रेस’ गोरखपुर, की स्थापना का आधार बना। इसके लिए धर्म पारायण उनके मौसेरे भाई सेठ जयदयाल गोयनका का उन्हें भरपूर सहयोग प्राप्त हुआ। समस्या यह हुई कि प्रेस कहाँ लगाई जाए। उनके एक मित्र श्री घनश्याम दास जालान, गोरखपुर में ही व्यापार करते थे। उन्होंने प्रेस गोरखपुर में ही लगाए जाने और इस कार्य में अपना भरपूर सहयोग देने का ‘भाई जी’ को पूर्ण आश्वासन दिया। इसके बाद वैशाख शुक्ल 13, रविवार, वि.सं. 1980 (29 अप्रैल 1923 ई.) को उन्होंने अपने मौसेरे भाई सेठ जयदयाल गोयनका तथा मित्र घनश्याम दास जालान के साथ मिलकर गोरखपुर में ‘गीता प्रेस’ की स्थापना की।
इसका उद्देश्य धार्मिक और सांस्कृतिक साहित्य को सरल जनभाषा ‘हिन्दी’ में प्रकाशित कर अत्यल्प सहयोग धनराशि पर जनसाधारण तक पहुँचाना था। ‘गीता प्रेस’ ने श्रीमद् भागवतगीता, उपनिषद, पुराण, रामचरितमानस और अन्य धार्मिक ग्रंथों के सस्ते संस्करण छापे, जिससे भारतीय समाज के लगभग हर वर्ग के घर-आँगन में धार्मिक ग्रंथों का व्यापक प्रसार हुआ। ‘भाई जी’ ने अपने जीवन काल में ‘गीता प्रेस’ गोरखपुर में पौने छ: सौ से ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित की है। ‘गीता प्रेस’ गोरखपुर, आज भी अपने उसी परम् लक्ष्य को लेकर निरंतर अपने कार्य में अग्रसर है और कम से कम कीमत में धार्मिक पुस्तकों का सबसे बड़ा प्रकाशक है।
1926 में ‘मारवाड़ी अग्रवाल महासभा’ का अधिवेशन दिल्ली में हुआ था। उस अधिवेशन के सभापति सेठ जमनालाल बजाज थे। इस अवसर पर सेठ घनश्यामदास बिड़ला भी मौजूद थे। बिड़ला जी ने हनुमान प्रसाद पोद्दार ‘भाई जी’ द्वारा ‘गीता’ के प्रचार-प्रसार के लिए किए जा रहे कार्यों की सराहना करते हुए उनसे आग्रह किया कि सनातन धर्म के प्रचार और सद् विचारों को लोगों तक पहुँचाने के लिए एक संपूर्ण पत्रिका का प्रकाशन भी होना चाहिए। उनके इच्छित वाक्य ने ‘भाई जी’ को ‘कल्याण’ पत्रिका के प्रकाशन के लिए प्रेरित किया।
श्रावण कृष्ण एकादशी, संवत १९८३ विक्रमी, अर्थात 15 अगस्त, 1925 में मुंबई से हनुमान प्रसाद पोद्दार ‘भाई जी’ के निर्देश और सम्पादन-कार्य में “कल्याण” पत्रिका का पहला प्रवेशांक प्रकाशित हुआ। उसके पहले अंक में धार्मिक रचनाओं के अलावा महात्मा गाँधी और रवींद्रनाथ टैगोर के भी लेख प्रकाशित हुए थे। आचार्य नंद दुलारे बाजपेई इसके प्रथम संपादकीय दल के एक सदस्यों में से थे। “कल्याण” तेरह माह तक मुंबई ही से प्रकाशित होती रही। उसके बाद अगस्त 1926 से वह ‘गीता प्रेस’ गोरखपुर से प्रकाशित होने लगी। “कल्याण” में धर्म, संस्कृति और आध्यात्म पर आधारित लेख और विचार प्रस्तुत किए जाते थे।
बाद में “कल्याण” के नियमित लेखकों में महर्षि अरविंद घोष, आचार्य नरेंद्रदेव, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, एस. राधाकृष्णन, आचार्य विनोवा भावे, थिऑसोफिकल सोसाइटी की एनी बेसेंट, दीनबंधु एंड्रयूज, लाल बहादुर शास्त्री, पुरुषोत्तम दास टंडन, पट्टाभि सीतारमैया, के.एम. मुंशी, बनारसी दास चतुर्वेदी, करपात्री महाराज, सेठ गोविंद दास, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, गुरु गोलवलकर आदि सम्मानित व्यक्तित्व रहे थे। आज भी देश भर में धार्मिक जागरण में ‘कल्याण’ पत्रिका की भूमिका अतुलनीय है।
हनुमान प्रसाद पोद्दार ‘भाई जी’ ने “कल्याण” को एक आदर्श और रुचिकर आध्यात्मिक पत्रिका का रुप देने के लिए अक्सर देश भर के महात्माओं, संतों और विद्वानों, लेखकों आदि को पत्र लिख-लिखकर विविध विषयों पर उनसे लेखों का आग्रह किया करते थे। बाद में “कल्याण” मे अन्य धर्मों के आचार्यों, जैन मुनियों, रामानुज, निम्बार्क, माधव आदि संप्रदायों के विद्वानों के लेखों का भी प्रकाशन करने लगे। उन्होंने मुंशी प्रेमचंद, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन ‘पंत’, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी आदि विशिष्ट साहित्यकारों से भी “कल्याण” के लिए लेख लिखवाए और उन्हें “कल्याण” के नियमित पाठक भी बनाए। उसमें प्रकाशनार्थ कई बार अंग्रेजी, संस्कृत, बांग्ला, मराठी और गुजराती के भी लेख आया करते थे, जिसे वे ठुकराते न थे, बल्कि स्वयं हिन्दी में उनका उचित अनुवाद कर उसे “कल्याण” में प्रकाशित किया करते थे। यह पत्रिका आज भी निर्बाध प्रकाशित हो रही है और भारतीय धार्मिक साहित्य में अपना एक विशेष प्रतिष्ठित स्थान रखती है।
परम श्रद्धेय पूजनीय देव पुरुष हनुमान प्रसाद पोद्दार ‘भाई जी’ आजीवन ‘गीता प्रेस’ गोरखपुर की ट्रस्टी के रूप में आध्यात्मिक कार्यों में संलग्न रहते और अपने निमित कार्य को करते हुए चैत्र कृष्ण दशमी, विo 2028, मंगलवार, (22 मार्च 1971) को अपने नश्वर शरीर को त्याग कर ईशत्व में सर्वदा के लिए लीन होकर अमरत्व को प्राप्त किए। उन्होंने अपने पीछे अपनी अमूल्य विरासत स्वरूप `गीता प्रेस’ गोरखपुर के नाम से एक ऐसा केंद्र छोड़ गए, जो भारतीय सनातनी संस्कृति को पूरे विश्व में अविरल फैलाने में अपनी अग्रणी भूमिका निभा रही है और भविष्य में भी निभाती ही रहेगी।
हनुमान प्रसाद पोद्दार ‘भाई जी’ केवल एक समर्थ साहित्यकार नहीं, बल्कि एक महान भक्त और समाजसेवी भी थे। वे अक्सर विभिन्न संतों और महात्माओं द्वारा आयोजित सत्संगों में शामिल होते, उनका मार्ग-दर्शन प्राप्त करते और उनके जीवन व उनकी शिक्षाओं पर आधारित लेख और पुस्तकें भी लिखा करते थे। सन् 1938 में जब राजस्थान राज्य में भयंकर अकाल पड़ा था, तब ‘भाई जी’ अकाल पीड़ित क्षेत्रों के अकाल पीड़ितों की भरपूर सहायता तो की ही, उसके साथ ही उन्होंने बेजूबान मवेशियों के लिए भी पर्याप्त भोजन-चारे की भी व्यवस्था कारवाई थी। बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम, द्वारिका, कालंडी श्रीरंगम आदि स्थानों पर ‘वेद-भवन’ और ‘सांस्कृतिक विद्यालयों’ की स्थापना में भी उन्होंने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जब महामना पं. मदन मोहन मालवीय जी ‘बनारस हिंदू विश्वविद्यालय’ की स्थापना के लिए धन संग्रह हेतु कलकत्ता आए, तब ‘भाई जी’ ने उन्हें कई व्यापारी लोगों से मिलवाया और उनके उस वृहत सामाजिक और शैक्षणिक कार्य के लिए पर्याप्त दान-राशि की भी व्यवस्था की थी।
हनुमान प्रसाद पोद्दार ‘भाई जी’ ने समय-समय पर सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ भी आवाज उठाई। वे मृत्युभोज और ऐसे ही अनावश्यक कई खर्चों के विरोधी थे और उन्होंने इसके खिलाफ अभियान चलाया। उनका मानना था कि मृत्युभोज जैसी प्रथाएँ समाज में आर्थिक और नैतिक गिरावट का कारण बनती हैं। भाई जी का मानना था कि किसी भी अनुशासित समाज के लिए नैतिकता और धार्मिकता की स्थापना होनी चाहिए, और इसके लिए उन्होंने जीवन भर अनथक कार्य किया। वे भारतीय संस्कृति और मूल्यों के संरक्षक थे और उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से समाज को सर्वदा नैतिक और आध्यात्मिक मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते रहा है।
हनुमान प्रसाद पोद्दार ‘भाई जी’ के जीवन-संबंधित एक महत्वपूर्ण घटना का जिक्र यहाँ आवश्यक हो जाता है। बताया जाता है कि एक दिन गृह में पूजन के समय देवी-स्मरण की अवस्था में उनके मन-मस्तिष्क में श्री किशोरी जी (श्रीराधारानी) की वाणी का संचार हुआ, – ‘सनातनी धर्म के आततायियों के भीषण अत्याचारों- हाहाकारों के मध्य लोगों की आस्था और विश्वास को बनाए रखने वाले और प्रभु-महिमा का गान करने वाले गोस्वामी तुलसीदास कृत ‘रामचरितमानस’ को सर्व सुलभ करवाने की शीघ्र ही चेष्टा करो।’ उन्होंने उसी अवस्था में उत्तर दिया, – ‘जब आप करा रही हैं, तो व्यवधान कैसा? कार्य अवश्य ही होगा ।”
पूजन के पश्चात भोजन करके वे वामकुक्षी (बाईं करवट) लेटे ही थे कि फिर वहीं देवी-ध्वनि मन-मस्तिष्क में आदेशात्मक रूप में गूँजी, – “अरे, तुम तो लेट गए। कार्य कैसे संपन्न होगा?” अब आराम की इच्छा ‘भाई जी’ को पाप प्रतीत हुआ। ‘भाई जी’ तुरंत उठ बैठे। मन में विचार किया कि ‘रामचारितमानस’ के प्रथम संस्करण की कम से कम पचास हजार प्रतियां प्रकाशित होनी चाहिए। कागज-पेंसिल लेकर हिसाब लगाया कि कागज-कंपोजिंग, छपाई, विक्रेता का लाभ आदि सभी व्यय में कुल एक लाख पैंतीस हजार रुपये (जब सोना बीस-बाइस रुपये तोला था) तक पहुँच सकता है। उन्होंने अपनी पत्नी रामदेई पोद्दार से कहा, – “हमारा झोला (धोती–कुर्ता, लंगर–बंडी, संध्या पात्र, और माला) लगा दो। हमें कलकत्ता जाना है।”
झोला तैयार हुआ और ‘भाई जी’ गोरखपुर से कलकत्ता पहुँच गए। अपने एक परिचित व्यवसायी सेठजी के एक पैड़ी (सेठ की गद्दी) पर पहुँचे। वहाँ के सेठ जी ने ‘भाई जी ! आओ-पधारो’ की मंगल ध्वनि से उनका स्वागत किया और प्रश्न किया, ‘भाई जी! थे (आप) कदसी पधारे? आप स्नान-पूजनादि कर निवास पर भोजन करने पधारिए।’ तब ‘भाई जी’ ने बिना किसी लाग-लपेट के कहा, – ‘ठीक है, भोजन तो हम करेंगे! किंतु पहले दक्षिणा लेंगे, फिर भोजन करेंगे। ’‘तो अब बाणियों ने भी ब्राह्मणों की भाँति भोजन दक्षिणा लेकर करने की परंपरा आरंभ कर दी क्या?’
‘हाँ भाई! ब्राह्मण भोजन करके दक्षिणा लेता है, पर यह वैश्य दक्षिणा लेकर ही भोजन करेगा।’ कहते हुए हिसाब का पर्चा उनके सामने रखते हुए देवी आदेश को सुनाया। पर्चा देखकर सेठ सहर्ष बोले, – ‘जब देवी माँ ने आदेश दिया है, तो वे स्वयं ही सब कुछ अवश्य ही पूर्ण करेंगी। आप उठकर स्नानादि करें। देवी की कृपया से सब कार्य सिद्ध होंगे।’
‘भाई जी’ कुछ ही समय में स्नान-पूजन से निवृत होकर प्रस्तुत हुए। तब सेठ ने उनसे आग्रह किया, – ‘चलिए, भैया जी! बग्घी तैयार है।’
‘ठीक है, हम चलते हैं। किंतु हम दक्षिणा लेकर ही भोजन करेंगे। यह बात स्मरण रखिएगा। थाली लाकर माता अन्नपूर्णा का मुझसे अपमान न करवाइएगा।’ ‘ठीक है। आप चलिए तो सही।’
और फिर ‘भाई जी’ सेठ के निवास पर पहुँचे। तो देखा कि वहाँ दो अन्य भद्र–पुरुष पहले से ही बैठे हुए थे। सम्मिलित उनका स्वागत हुआ। वहीं पर एक थाली खाली भी रखी हुई थी। ‘भाई जी’ के आसान ग्रहण करते ही दोनों भद्र सज्जनों ने अपनी-अपनी ओर से बैंक के दो चैक उस थाली में रख दिए। इतने में दो अन्य सज्जनों ने प्रवेश किया और ‘राम-प्रणाम’ कर उन्होंने ने भी थाली में अपने-अपने बैंक के चैक को उस थाली में रखकर आसान ग्रहण किया। तभी अंदर से सेठ जी की वृद्धा माता घुंघट काढ़े हुए सरकती हुई वहाँ पहुँचीं और उस थाली में पैंतीस हजार रूपये नगद रख दी। चारों चेक पच्चीस-पच्चीस हज़ार अर्थात् एक लाख के थे और नगद में पैतीस हजार रुपये। इस प्रकार एक लाख पैंतीस हजार रुपये की पूर्ति होते देखकर ‘भाई जी’ ने संतुष्टि व्यक्त करते हुए कहा, – ‘भाई साहब! भयंकर भूख लगी है। शीघ्रता से मुझे कुछ भोजन करवाओ’ और फिर ‘भाई जी’ अपने सम्मुख भोजन की थाल को देख अन्नपूर्णा माता को प्रणाम कर भोजन ग्रहण किया।
तत्पश्चात आतिथेय सेठ जी ने आग्रहपूर्वक कहा, – हे बाणिया श्रेष्ठ! थे कच्चे बनिये हो! अरे, पाँच-छ: सौ पृष्ठों का मोटा ग्रंथ बिना जिल्द के दोगे क्या? वह तो दो दिन में ही नष्ट हो जाएगा। हमने एक जिल्दसाज को बुलाकर, उस ग्रंथ के जिल्द का ब्यौरा ले लिया है। दस-बारह हजार का उसने खर्चा बताया है’ और फिर आतिथेय ने अपनी ओर से पन्द्रह हज़ार रुपये उस लक्ष्मी संचयित थाली में समायोजित कर अपने एक खास सेवक को भेजकर तुरंत ही डेढ़ लाख रुपये का एक बैक ड्राफ्ट तैयार करा लिया और ‘भाई जी’ को सादर प्रदान किया।
हनुमान प्रसाद पोद्दार ‘भाई जी’ अगले दिन गोरखपुर पहुँच गए और अपने व्यक्तिगत अन्य सभी कार्यों छोड़कर देवी-आदेश के अनुकूल ‘रामचरितमानस’ की छपाई कार्य में लग गए। कंपोजिंग युद्ध स्तर पर होने लगी। डेढ़ माह के अंदर ही ‘रामचारितमानस’ की प्रतियाँ छप कर अत्यल्प कीमत में घर–घर पहुँचने लगी। ‘भाई जी’ द्वारा सिंचित ‘मानस’ की अमृत-धार से देश के मुरझाए धार्मिक उपवन एक बार फिर जीवंत हरितिमा युक्त लह-लहाकर अपने भक्ति-सौरभ से वातावरण को सुवासित करने लगे। ‘भाई जी’ का कार्य ‘मानस’ तक ही न सीमित रहा, बल्कि उनकी कार्य-प्रबलता ने समग्र तुलसी-सूर के साथ अनेकानेक संतों-महात्माओं के साहित्य भी सरल हिन्दी में मुद्रित कर घर-घर पहुँचाने लगी।
धर्म-कर्म और अध्यात्म में सर्वदा रुचि रखने वाले हनुमान प्रसाद पोद्दार ‘भाई जी’ सर्वदा पर्दे के पीछे रहकर अपने कार्य को पूर्ण संपादित करने वाले एक अकिंचन सेवक और निष्काम कर्मयोगी की तरह ही निरतर कार्य करते रहे। उन्होंने कभी भी प्रसिद्धि और सम्मान की परवाह नहीं की। उनके कार्य और लोकप्रियता को देखकर तत्काली अंग्रेज अधिकारियों ने उन्हें ‘रायबहादुर’ की पदवी देनी चाही। लेकिन उन्होंने उसे सादर ठुकरा दिया। फिर देश की आजादी के बाद डॉ. संपूर्णानंद, कन्हैयालाल मुंशी और अन्य लोगों के परामर्श से तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री गोविंद वल्लभ पंत ने भी उन्हें ‘भारत रत्न’ की उपाधि से अलंकृत करने का प्रस्ताव रखा, लेकिन उन्होंने उसे भी विनम्रता से ठुकरा दिया था।
हनुमान प्रसाद पोद्दार ‘भाई जी’ के अविरल कार्यों को देखकर प्रतीत होता है कि भगवान श्रीसीताराम जी ने भक्ति संबंधित दुर्गम कार्यों को संपादित करने के लिए ही निमित्त के रूप में उन्हें अपना ‘श्रीहनुमान’ मनोनित किया। ‘भाई जी’ का सरल-सादगी और निरंतर कर्मठ जीवन आज भी लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत है। भारतीय संस्कृति, धर्म और साहित्य के क्षेत्र में उनके द्वारा संपादित कार्य, आज भी भारतीय सनातन समाज की नींव को सिंचित कर रहा है, जिससे हमारे धर्म-संस्कृति और साहित्य अनंतकाल तक हरीतिमा युक्त सुंदर पुष्पों तथा सरस फलों से परिपूर्ण रहेगा। ‘भाई जी’ जैसे महापुरुषों के द्वारा ही एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी, दूसरी से तीसरी पीढ़ी और फिर आगे की सभी पीढ़ियों तक को ज्ञान पहुँचाने हमारी वाली ऋषि परम्परा जीवित है। विश्व भर के समस्त सनातनी हिन्दू परिवार ‘भाई जी’ के कार्यों का सदैव ऋणी ही रहेगा।
श्रीराम पुकार शर्मा
अध्यापक व स्वतंत्र लेखक
हावड़ा -711101 (पश्चिम बंगाल)
ई-मेल सूत्र – rampukar17@gmail.com
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